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Apr 16, 2019

प्रेरक

आईने में हम
रचना गौड़ भारती
शब्दों का इस्तेमाल जब आवाज़ के साथ होता है तो उसे बोलना कहते हैं। बात दोनों प्रकार की होती है एक प्रभाव डालने वाली और दूसरी बिगाड़ने वाली। संचार की मुख्य क्रिया बोलना है। विचार विनिमय जीवन में अति आवश्यक है, दूसरों के विचार जानने और अपने विचार उन तक पहुँचाने के लिए। ये कोई नई बात नहीं है। यह तो सब जानते हैं, यहाँ हम बात करेगें मूक प्रतिक्रिया, मौन या चुप रहने पर। कहते हैं शब्द जितनी बात नहीं समझा सकते उतनी खामोशी बयां कर देती है- खामोशी बोलती है।
            बड़े बुजुर्गों को अक्सर कहते सुना है कि जब कोई झगड़ रहा हो तो उस समय चुप हो जाओ, बात आगे नहीं बढ़ेगी। मगर लोग वाद-विवाद, बहस आदि में अधिक विश्वास करते हैं। दूसरों को दबाकर जीतना एक शगल बन गया है। यहाँ सवाल हार-जीत का नहीं, बात की प्रभावोत्पादकता का है। किसी के साथ संवाद में भिड़ जाना समझदारी नहीं होती। बात को समझने या समझाने के लिए कुछ देर मौन या चुप्पी आवश्यक होती है। बात में इतना प्रभाव होना चाहिए कि आप दूसरे को समझा सकें, नहीं तो वहाँ चुप हो जाना बेहतर होता है। चुप हो जाने में यहाँ मतलब यह बिल्कुल नहीं है आप हार गए या आपकी बात में दम नहीं है। इसमें कुछ बिन्दु काम करते हैं जैसे-
1. आपने हार स्वीकार कर ली इसलिए चुप हैं-
जब कोई भी दो व्यक्ति आपस में उलझ जाते हैं और दोनों अपनी-अपनी बात पर अडिग रहते हैं तो स्थिति झगड़े का रूप ले लेती है। ऐसी परिस्थिति में एक जने को चुप हो जाना ठीक रहता है। बोलने वाला कुछ देर में अपनी भड़ास निकालकर या तो खामोश हो जाएगा या आप उससे कुछ समय के लिए दूरी कायम कर लें। स्थिति को सही अंजाम देना हमारे अपने हाथ में होता है। हाँ! यह सही है सामने आने वाला कभी-कभी यह सोचकर खुश हो जाता है कि ये चुप है मतलब इसने हार मान ली या मैंनें इसे हरा दिया। छोटी सी बात को तूल देकर लम्बा खींचना कोई समझदारी नहीं होती। चुप रहने वाला उस समय एक समझदार, शालीन व सभ्यता के दायरे में होता हैं। बोलकर चुप कराने वाला व्यक्ति अपनी वाचालता, घमण्ड और बड़बोलेपन के मद में खुश हो जाता है। दोनों व्यक्ति शांत होकर खुश हैं, मगर अपनी-अपनी सोच में। जैसे कोई दान लेकर खुश होता है तो कोई दान देकर। इंसानियत का तकाज़ा है कि जहाँ तक संभव हो क्लेश को दूर रखना चाहिए। ये एक अच्छे इंसान के गुण होते हैं। बात को आई गई करना भी एक कला है। दुनिया एक रंगमंच और हर इंसान एक कलाकार है। कोई भी कला सुख शांति व समृ़द्धि प्रदान करती है। यह बात व्यक्तिगत रूप में, सामूहिक रूप में व सामाजिक रूप में स्पष्ट नज़र आती है। हमारा जन्म गीली मिट्टी के लौंदें के समान होता है जिसे हमारे संस्कार, हमारा परिवेश व हमारी शिक्षा तराश-तराश कर एक अच्छा व्यक्ति, अच्छा नागरिक बनाते हैं। यहीं से उचित व अनुचित की कीलें हमारे मन व मस्तिष्क में ठुकनी आरम्भ होती हैं। जिसके जीवन में जितनी कड़वाहट होती है, उसी अनुपात में कीलें बढ़ती जाती हैं। कीलें यानिकुण्ठाएँ। जो धीरे-धीरे आपके व्यवहार पर हावी होती जाती हैं। जितना कुण्ठित व्यक्ति होगा वह दूसरों को उतना ही चुभेगा। आपका व्यवहार व आचरण एक कंटीले वृक्ष में परिवर्तित हो जाएगा। आप तब इंसान न होकर एक कैक्टस बन जाएँगें। आपको पता है वनस्पति में कैक्टस को घर में रखना भी अशुभ माना जाता है। यहाँ इंसान को कैक्टस इसलिए कहा है क्योंकि हमारी बातें, हमारी उपस्थिति और हमारा परिवेश अशांतिकारक, दूसरों को व्यथित करने वाला और असंतोषजनक है तो हम एक कैक्टस ही हैं।
            देखा आपने कभी-कभी की चुप्पी कितनी असरकारक होती है। जब मॉफी माँगने से कोई छोटा नहीं होता तो चुप रहने से छोटा या गलत कैसे हो सकता है। चुप रहकर वो प्रयासरत होता है बात को संभालने में, सामंजस्य बनाने और शांति स्थापित करने में।
2. आपकी बात गलत थी इसलिए चुप हैं-
वाक्युद्ध या द्वन्द में चुप हो जाना श्रेष्ठ है। सामने वाला चाहे यह सोच ले कि शायद आपको समझ आ गया है कि आपकी बात गलत थी, इसलिए आप चुप हो गए। वाद-विवाद या कोई बात आखिर क्या है-हमारे विचार। सबको अपना पक्ष और अपने विचार सदा सही लगते हैं। मगर क्या ऐसा होता है? यदि दोनों पक्ष सही होगें तो विवाद किस बात का? इसे हम ऐसे देख सकते हैं कि पक्ष और विपक्ष दोनों के विचार आपस में नहीं समझे जा रहे। दोनों को अपने विचार सही लग रहे हैं और दूसरे के गलत। कैसी भी परिस्थिति हो झगड़ा छोटा हो या बड़ा, एक बार स्वयं को दूसरे की जगह रखकर उसका दृष्टिकोण समझने की चेष्टा करनी चाहिए शायद कुछ मामला समझ आ जाए। असामान्य स्थिति में चुप रहना आपका गुण होगा, आपकी समझदारी व इंसानियत का तकाज़ा भी।  सही और गलत जब हम अपने अहम् को दूर रखकर दूसरे के स्थान व दूसरे की नज़र से देखते हैं तो स्वतः ही दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है।
3. आप अपनी बात समझाने में सक्षम नहीं इसलिए चुप हैं -
चुप रहकर स्थिति को नियंत्रण में बनाना, बोल-बोलकर उलझने से कहीं बेहतर होता है। कभी-कभी चुप होने का सामने वाला गलत अर्थ भी निकाल लेता है। जैसे आप अपनी बात समझा नहीं पा रहे इसलिए चुप हो गए। आपके पास चुप होने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा। शिक्षित व समझदार इंसान के लिए इशारा ही काफी होता है। चुप्पी में एक अलग ही आनन्द है, विश्वास है और शांति है। चुप रहकर बात नहीं बढ़ाना अच्छा है वरना जो सामने आएगा वो शायद बहुत बुरा हो। जो आपके रिश्तो और सम्बंधों को क्षति पहुँचाने वाला हो। आपने ऐसा होने नहीं दिया अतः आपको आनन्द की अनूठी अनुभूति है। विश्वास इस बात का कि प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती अतः  कभी न कभी सच जरूर सामने आएगा जिससे सामने वालों की आँखों से गलतफहमी का पर्दा स्वतः ही उठ जाएगा। जब सारी बात ही साफ हो जाएगी तो शांति कहाँ जाएगी वो आपके पास ही पनाह लेगी। बात समझने या समझाने के लिए दिमाग शांत होना चाहिए। क्रोध में हम न समझ पाते हैं ना समझा पाते हैं। यहाँ इसलिए चुप्पी का विशेष अर्थ एवं महत्व सिद्ध होता है।
4. मानसिक स्तर में अन्तर
            जब कोई एक व्यक्ति लगातार बोले और दूसरा चुप हो जाए तो मामला स्वतः कुछ समय में ठण्डा पड़ जाता है। सामने वाला या बोलने वाला तीव्रता से अपनी बात के साथ अनर्गल बातों को जोड़कर आपको मानसिक पीड़ा पहुँचाने का प्रयास करे तो समझ लेना चाहिए उसका मानसिक स्तर गिर रहा है। इस वक्त किसी भी प्रकार वो आपकी बात नहीं समझेगा। दो व्यक्तियों की मस्तिष्क तरंगों की समानता या असमानता उनका स्तर कहलाता है। लेवल अलग-अलग होने पर विचारधाराएँ भिन्न बनतीं हैं। विचारों का टकराना ही झगड़े का कारण है। ऐसे में चुप रहना समझौते की परिधि बन जाता है। शिक्षित व्यक्ति का व्यवहार उसके लेवल को तय करता है। यहाँ शिक्षित का मतलब डिग्री प्राप्त कर लेने से न होकर बुद्धि के विकास, मानसिक विकास से है।
5. शिक्षा का अभाव, ज्ञान चक्षु का बंद होना
            वाद-विवाद में शिक्षा की अहम् भूमिका होती है। किसी भी विषय क्षेत्र में इंसान अपने ज्ञान के अनुसार बहस करता है। कभी-कभी गलत बात पर अड़ जाना भी अज्ञानता का ही प्रतिबिम्ब होता है। जिसे जितना मालूम होगा उतना ही बोलेगा। विषय की सम्पूर्ण जानकारी के बिना अपनी बात लेकर विवाद करना अनुचित है। यदि सामने वाले से हमारी बात अलग है, तो शांत मन मस्तिष्क से एक बार उसकी पूरी जानकारी हासिल कर लेनी चाहिए। कभी-कभी कुछ बातें नियमोंके अंर्तगत होते हुए भी गलत हो जाती हैं जिन्हें हम सच समझते रहते हैं। समय परिवर्तन के साथ नियम परिवर्तन का ध्यान भी रखना चाहिए। जिस नियम के बल पर हम अपनी बात पर अडिग हो रहें हैं उसके नियम भी बदल सकते हैं। जिनकी हमें जानकारी नहीं होती। ऐसी स्थिति में हम सर्वथा गलत हो जाते हैं। दूसरों की बात को किसी पूर्व धारणा के आधार से नहीं जोड़कर बुद्धि से आँकना जरूरी होता है। ऐसी परिस्थिति में चुप हो जाना बेहतर है, ये समझ कर कि सामने वाला अज्ञानता में है या उसके ज्ञान चक्षु बन्द हैं। सत्य को देखने के लिए ज्ञान चक्षु का खुला रहना अति आवश्यक है। यहाँ पूर्वाभास काम नहीं करता। आपकी बात यदि सही है तो उसे कोई समझे या ना समझे क्या फ़र्क पड़ता है। सत्यमेवजयते। जीत हमेशा सत्य की होती है। सत्य को बाहर आने में देर जरूर लगती है मगर सत्य बाहर आकर रहता है। उस समय सामने वाला यदि अच्छा इंसान है तो अपनी गलती मान लेगा अन्यथा गरूर व अहम् के मद में स्वीकार नहीं करेगा। मंुह से चाहे ना स्वीकारे लेकिन उसकी अर्न्तआत्मा जरूर जान लेगी कि वह गलत है। अतः धैर्य का आश्रय लेकर चुप रहना वक्त की मांग बन जाता है।
6. इंसानियत के कद का बौना होना
            गुण या अवगुण इंसान के होते हैं। जब किसी में इंसानियत ही नहीं होगी तो उसके गुणों और अवगुणों को हम किस कसौटी पर उतारेंगें। यदि आप उत्तरोत्तर अच्छे गुणों के विकास में लगे हैं तो आपके अंदर के इंसान का कद स्वतः बढ़ेगा। इसके विपरीत गुणों का हृास आपके इंसानी कद को बौना कर देगा। कितने लोग ऐसे हैं जो स्वार्थ को परे रख इस बात की चिन्ता करते हैं। ये जुड़ा होता है आपकी नैतिकता, आत्मा के उत्थान या पतन से। एक अच्छी आत्मा अच्छे इंसान में होगी। आजकल हम बाह्य उन्नति में दौड़ लगा रहे हैं। स्वार्थ के आगे घुटने टेक रहे हैं। हमें आवश्यकता है नैतिक उत्थान की। अन्दर से महान बनने की। जब हम किसी ऐसे धावक व्यक्ति से टकराएँ तो यहाँ चुप हो जाना समय की माँग होगी। हर तालाब पानी के ठहरने पर साफ़ नज़र आता है (जैसे हम अच्छी स्थिति में खुश व शांत) उसमें पत्थर गिरने से लहरें, नीचे बैठी गंदगी को हिलाकर पानी को गंदला कर देती हैं। ये तो खुला तालाब है, मगर हमारा मन बहुत गहरा है तथा इसको अंदर से साफ रखना हमारे हाथ में है। साफ मन का सरोवर कभी किसी के भड़काने, उकसाने से गंदा नहीं हो सकता। गन्दे पानी में साफ पानी को कितना भी मिलाएं पानी गन्दा ही होगा। जबकि साफ पानी में केवल एक मग्गा गंदा पानी उसे गंदा कर देता है। हमें अपनी चुप्पी से इस मिलावट को बंद करना होगा। यहाँ चुप होने वाला दूसरे के साथ नहीं स्वयं के साथ अच्छा करेगा। परिस्थिति कुछ भी हो कभी इंसानियत का कद बौना नहीं होना चाहिए।
7. लिंगानुगत भेद का फायदा उठाना
            अक्सर स्त्री व पुरूष के द्वन्द में, पुरूष को कहते सुना है कि तुम चुप हो जाओ। पुरूष पिता, पति, पुत्र या अफसर कोई भी हो सकता है। पुरूष अपने अहम् के आगे न तो नारी की सुनना चाहता है, न ही उसे बोलने देता है। क्या उसे डर होता है कि वह ज्ञान व समझ में उससे हार गया तो? स्त्री भी एक इंसान है, शिक्षित व समझदार है, जब नौकरी करते हुए उसके विचार वह बाह्य क्षेत्र में बेझिझक देती है तो वही विचार घर में गलत कैसे हो सकते हैं? यहाँ भी अन्तर होता है दृष्टिकोण का, हम विषय से भटक जाते हैं और रह जाती है पावर। वह पावर जो घर के मुखिया की है, एक पुरुष की है, उसके अहं की है। ऐसी स्थिति में एकमात्र उपाय चुप रहना ही क्लेश से दूर ले जाता है। नारी एक नदी है जो बहती है। उसके जल में अच्छे बुरे सब तरह के विचार आते हैं। पुरूष शुद्ध जल का फिल्टर है मगर उसकी फिल्टर वाली कैण्डल जल्दी चोक हो जाती है। यह स्वभावगत अन्तर है। बात को उसकी गरिमा से मानना चाहिए न कि आपस के ताकत प्रदर्शन से। जरूरी नहीं होता कि पुरूष सर्वदा सही और नारी गलत हो। कभी-कभी स्त्री भी सही हो सकती है, ये वहाँ होता है जहाँ उसको सुना जाता हो, बात का मूल्यांकन होता हो। जहाँ ऐसा नहीं होता वहाँ चुप रहना एक अच्छा अस्त्र होता है।सही बात की सत्यता कभी न कभी, कहीं न कहीं से सत्यापित हो ही जाती है।
8. संस्कार व रिश्तों का दबाव बनाना
            कभी-कभी विचारों की टकराहट उम्र व रिश्तों में बड़ों से हो जाती है। उस वक्त उम्र व रिश्तों का लिहाज़ कर हमें चुप हो जाना पड़ता है। यहाँ भी बात की सत्यता या उसकि मूल्यांकन को परे रखना गलत होता है। जब हम बड़ों से विचार विनिमय करते हैं और उनके विचार हमसे भिन्न होते हैं, तब भी संस्कारों के दबाव के कारण चुप रहना हमारी मज़बूरी बन जाती है। सभी लोग यदि बात की सत्यता के संदर्भ से बात करें तो शायद कहीं झगड़े ही नहीं होंगें। मैंने ऐसा कह दिया, तुम मानो। जैसे इनके कहे शब्द पत्थर की लकीर हो। एक ही शब्द जब अलग-अलग परिस्थिति में इस्तेमाल होता हो तो उसका अर्थ भी समयानुसार बदल जाता है। अच्छे व सही विचार जरूरी नहीं कि सिर्फ बड़ों के पास हों, उनपर बड़ों का एकाधिपत्य हो ऐसा बिल्कुल नहीं होता। छोटों के विचार भी सराहनीय हो सकते हैं, उनका सम्मान करना चाहिए। लेकिन जहाँ बात की महत्ता से ऊपर बड़प्पन का राज़ हो वहाँ चुप रह जाना ही श्रेष्ठ है। जहाँ संस्कार व रिश्तों का दबाव होता है वहाँ संवेदनाएँ निष्क्रिय हो जाती हैं। बड़ों के सामने चुप होना उनका सम्मान होता है मगर तब तक ही जब तक सत्य पर आँच नहीं आए। विचारों का आदान प्रदान ही संचार क्रिया है जो इन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी संवाहित करती है। बड़ों के आगे चुप रहकर उनकी इज्ज़त करना जरूरी होता है, यहाँ कोई हार जीत नहीं होती। अपनी बात धैर्य रख विनम्रता से उन्हें स्मरण कराई जा सकती है। बशर्तें आपकी बात में वज़न होना चाहिए।
9. पद-प्रतिष्ठा का सहारा लेना
            हमारे समाज में चाहे जातिगत अन्तर कम हो रहा है लेकिन पद प्रतिष्ठा का अन्तर साफ़ नज़र आता है। आज किसी अफसर के आगे कर्मचारीगण का मौन रहना अनुशासन के अर्न्तगत आता है। व्यवसाय में मालिक व मज़देरों में अन्तर देखा जा सकता है। चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की बात कितनी भी सही होगी, वह अफसर के आगे चुप रहता है। ऐसा होना नहीं चाहिए। सत्य बात कहने में किसी से नहीं डरना चाहिए। मगर बात अनुशासन की हो तो चुप रहना बेहतर होता है। ऐसी परिस्थिति में यदि अपनी बात अपने अफसर के समक्ष रखनी हो तो बड़े साफगोई ढंग व विनम्रता के साथ प्रस्तुत करनी चाहिए। उच्चपदाधिकारी या बॉस से आप अपनी बात जबरदस्ती नहीं मनवा सकते। विनय पूर्वक अपनी बात को सिद्ध करें अन्यथा तनाव झेलने को तैयार रहें। वक्त पर अपनी बात कहना एक हिम्मत व कौशल की बात होती है। बस, बात कहने का तरीका सही होना चाहिए। वरना विपरीत स्थिति में चुप रहना सही चुनाव होगा। चुप रहने में बड़ी ताकत होती है। जितना समय लेकर, सोच विचार के उपरान्त बात की प्रस्तुति होती है उसमें उतना ही निखार आ जाता है। चुप्पी कमज़ोरी नहीं बलकि तूफान के आने से पूर्व की खामोशी भी होती है। चुप्पी , किसी बड़े फैसले या बड़ा कदम उठाने से पूर्व भी होती है। चुप्पी अपने आप में एक ताकत है, जो आपकी टूटी हिम्मत को संग्रहित कर, समय आने पर प्रयुक्त होती है।
10. चुप्पी का जवाब वक्त के खेमे में
            अपने चुप रहने से मन में दुखी न हों क्योंकि आपकी चुप्पी का जवाब वक्त देता है। समय बड़ा बलवान होता है। जो बात आप कह नहीं सके उसे समय अपने अनुरूप सामने ला देता है। किसी को शब्दों में जवाब देकर कड़वाहट ही पैदा होती है, रिश्ते खराब हो जाते हैं। आप इंतज़ार करिए वक्त सब समझा देगा, जिससे सामने वाला या तो शर्मिन्दा होगा या अफसोस करेगा। व्यवहार सोच समझकर करना चाहिए।
सम्पर्कः 304,रिद्धि सिद्धि नगर प्रथम, बूंदी रोड, कोटा राजस्थान., मो. 9414746668

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