- शुभ्रा मिश्रा
बाट जोहते दरवाजे
अपलक निहारतीं खिड़कियाँ
अपने बच्चे को गोद में लेने के लिए
व्याकुल मेरा आँगन
जैसे ही मैं गई
चारों तरफ से आवाजें गूँज रही थीं
बचिया! बचिया! बचिया!
ऐसा लगा जैसे माँ पुकार रही हो!
बाबूजी आवाज दे रहे हों!
दादी कहानी सुना रही हो!
बाबा दौड़कर मुझे गोद में उठा लिये हों!
सब कुछ वैसा ही था
जैसा मैं वर्षों पहले यहाँ से
विदा होते समय छोड़ गई थी
त्याग ना सकी मैं कुछ भी
मेरे भीतर आज भी सब कुछ वैसे ही जीवंत है
आज भी चारों दिशाओं ने मेरा स्वागत किया
गिरती हुई दीवारों में आज भी
वही शक्ति है
थाम लिया उसने मुझे!
मुझे फिर गिरने से बचा लिया उसने
सहेलियों के साथ बिताए अनगिनत किस्से
दीवारों को अब भी याद है!
तुलसी का चबूतरा वहीं है
लगा कि माँ सूर्य को जल देकर
चौरे की परिक्रमा कर रही है!
मैं भी उसका आँचल पकड़ उसके पीछे- पीछे
चल रही हूँ
गाय के साथ उसकी बछिया
निहार रही है मुझे
बाबूजी हम सभी के लिए लाए हों
रंग बिरंगी ढेर सारी टॉफियाँ
हम सभी एक ही रंग के लिए
मचा रहे हैं धमा-चौकड़ी
कोई चढ़ जाता बाबा के कंधे पर
तो कोई दादी की सुरक्षित गोद में
कोई माँ के आँचल में
तो कोई बाबूजी के पीछे
सब कुछ तो वैसा ही था
जब अचानक किसी ने पूछा-
कब आई??
तो देखा
बदल गए हैं चौखट के पहरेदार!
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