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Apr 1, 2024

. व्यंग्यः ट्रेम्पोलीन में कूद झमाझम

 - बी. एल. आच्छा

मजेदार होता है ट्रेम्पोलिन | बड़े होने पर तो कूदना शरमा देता है। मगर शादी में यह महाखिलौना मुफ्त झमाझम कूद का आनन्दोत्सव बन जाता है। उसके भीतर का स्पंज इतना उचकाता है,  गिराता है और उठाता है कि बच्चों की रग-रग खिल जाती है। सोशल मीडिया के ट्रेम्पोलिन सरीखे प्लेटफार्म पर कुछ ऐसा ही, मगर कई किलोवाट का स्पंज होता है। खींचता है, उचकाता है, बहुत कुछ बटोर लाता है। अलबत्ता मीडिया का तहखाना विज्ञापनों के बाजार की कैश जुगत से ही इसे तौलता है। ट्विटर की चिड़िया आकाश नपवा देती है- लड़न्त-भिड़न्त चोंचों का शाब्दिक कोलाहल। टी वी टी टुट् टुट्, चल हुट | वाट्सएप तो प्रकोष्ठ- सा टुच्चक टुच्चक गेंदबाजी की तरह।

असली ट्रेम्पोलिन तो फेसबुक है। चाहे जितना कूदो। वर्तमान में कुदाओ । इतिहास की स्मृतियों को बार-बार कुदाओ। घर-भर को कुदाओ। कभी थकने का नाम ही नहीं लेता। यह स्पंज जितना गहरे धँसाता है, उतना ही कंचनजंघा के शिखर पर भी पहुँचा देता है। कुछ छपा नहीं कि मैं झट फेसबुक पर अपलोड कर देता हूँ- 'आज मैं यहाँ, आज मैं वहाँ।' फिर फटी आँखों से अपनी कूद को लाइक्स-कमेंट्स से निहारता- तौलता रहता हूँ। सुबह सुबह के अनिवार्य कर्म से भी अधिक अनिवार्य  मुक्तिदायक कर्म | और रिश्ते ऐसे कि इधर पोस्ट , उधर से लाइक्स | कायमचूर्ण की तरह पाचक- बहुत खूब ।बहुत बढ़िया | क्या बात है! और कमेंट लंबा आ जाए तो तकदीर खुली । फिर  रिटर्न  गिफ्ट में धन्यवाद का  सिलसिला टोटल लाइक्स का प्रसाद बन जाता है।

मजहब और इलाकों से निरपेक्ष दोस्ती का अनजाना बिनअर्थशास्त्र का समाजशास्त्र फेसबुकिया लाइक्स में कुलांचे भरता है।' कामायनी' 'में' क का प्रयोग फेसबुकिया बधाइयों की संख्या से कम पड़ जाएगा। महाकाव्यों-महाउपन्यासों को बधाई के पेस्ट  से खड़े खड़े निपटा देता है। इधर मेरे मित्र कह रहे हैं -" कितनों को विनम्र श्रद्धांजलि देते जाओगे?"मैने कहा- "किसी भी शवयात्रा में जाते हैं तो तीन घंटे पूरे ! मगर फेसबुकिया रिश्तों में शवऔर श्मशान के जलते चित्रों के साथ इतनी देर में दो चार सौ को निपटाया जा सकता है। न नहाना, न धोना ।विनम्र श्रद्धांजलि  के साथ केवल ऊपर पहुँचाना।

 इधर सेटेलाइट से मेरे दिवंगत पिता मैसेज दे रहे हैं- "कभी हमें भी याद कर लिया कर बेटे !बीस-तीस साल पुराने मित्र-पिताजियों और माताजियों को नमन करते जा रहे हो तो हम भी.... ?" इधर मेरे साला- श्री व्यंग्यात्मक फरमान जारी कर रहे हैं- "हिमाचल- मेघालय, टोरंटो डच-गुयाना के अनजाने मित्रों के पड़पोतों को बधाई दिए जा रहे हो और मेरे बेटे के लिए एक भी पोस्ट नहीं ? "धन्य हैं वे लोग , जो फेसबुकिया नाट्य मंचन पर अपने दाम्पत्य की कूटनीति को साध लेते हैं। धन्य हैं वे, जो संपादक जी को हृदयतल से आभार व्यक्त करते हैं। उन्होंने संपादक जी का हृदयतल छू लिया, हम तो हृदय- नली में भी नहीं अटक पाए।

मुझे भी देखा-देखी रोग लग गया है। शादी के बाद जिस एल्बम को निहारा तक नहीं, उसके पुराने फोटो 'इतिहास में आज' की तरह पोस्ट करने के लिए फेसबुक के हेलीपेड पर खड़ा हूँ।  किसी की रचना छपी हो तो तड़ से लिख देता हूँ- "याद आया, 1984 में हमारी भी इसी विषय पर रचना छपी थी। और पीलीपट्ट कतरन चिपका दी। उस जमाने का बिन फेसबुकिया यौवन इस चौथेपन में ब्याज सहित झमाझम। नेताओं के तो ट्रेम्पोलिन ही दस-बीस । इस पार्टी के ट्रेम्पोलिन से दूसरी -छठी के। पर बचपन की तरह इस ट्रेम्पोलिन पर पोतों-पड़पोतों सहित और इतिहास बनी पीली कतरनों- अभिनंदनों के साथ कूदने को हर सुबह मैं फेसबुक हेलीपैड पर तैयार।

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