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Apr 1, 2024

डायरी के पन्नों सेः मन्नत का वह धागा

  - शशि पाधा

अपनी कहानी कहाँ से शुरू करूँ ? जिन्दगी का सफ़र  जिस मोड़ पर शुरू हुआ, चलो  वहीं से शुरू करती हूँ -

वर्ष 1967 के दिसंबर महीने में मैं अपने कालेज के वार्षिक टूयर पर गई थी। सारी प्रिय सहेलियाँ, दो प्रोफेस्सर और एक बस। दिल्ली, आगरा, जयपुर, मथुरा -वृन्दावन जैसे प्रसिद्ध नगरों की सैर का कार्यक्रम था। उन दिनों जम्मू से कोई रेलगाड़ी नहीं चलती थी, इसीलिए यह सारा सफ़र बस से ही करना था। सफर कितना भी लंबा हो, अगर साथ मजेदार हो, तो कहना ही क्या! 

मैंने  अपने कपड़ों में अपनी भाभी से माँगी हुई दो साड़ियाँ, हलके रंग की लिपस्टिक भी पैक कर ली थी। साथ में धूप वाला काला  चश्मा भी। यह सब सभी सहेलियों ने मिल बैठ के तय किया था। सब मस्ती करने के मूड में थे। बस अभी जम्मू से निकली ही थी कि अन्ताक्षरी शुरू हो गई। खाना-पीना, गाना-बजाना करते हुए हम दिल्ली पहुँच गए।

दिल्ली में पहुँचते ही धीरे-धीरे लड़कियों के पर्स से लिपस्टिक निकलने लगी। किसी ने हल्की सी लगाईं और किसी ने ज़रा गहरी गुलाबी। सब के पास, तो माँगी हुई ही थी न, , जो भाभी-दीदी ने दे दी वही , तो लगानी थी। वैसे क्या फर्क पड़ता था। अपना, तो कोई आस-पास था नहीं, कौन देख रहा था। दिल्ली के प्रसिद्ध स्थानों को देख कर दो दिन के बाद हमारी बस आगरा पहुँची। 

 मेरी कहानी का पहला चैप्टर आगरा से ही  शुरू हुआ था । ताज महल, सिकंदरा, आगरा फोर्ट देखने के बाद हम सब फतेहपुर सीकरी पहुँच गए। दरगाह में माथा टेकने के बाद गाइड हमें एक  पेड़ के पास ले गया और लम्बी कहानी सुनाते हुए उसने कहा, “ यहाँ पर धागा बाँधने से सब के मन की मुराद पूरी होती है।” गाइड भी एक लड़का सा ही था। हम लड़कियों को देख कर शरारत से शब्दों में उसने कहा, “ जिसके मन में , जो कोई है, आज माँग लो। देखना वही मिलेगा।”

हमारी बस वहाँ से शहर की तरफ जा रही थी। कुछ लड़कियाँ एक- दूसरे की मन्नत के बारे में अनुमान लगा रहीं थी। जिनके मन का रहस्य पता था, उनका नाम लेकर छेड़- छाड़ चल रही थी। 

अचानक मेरे साथ बैठी मेरी सहेली ने मुझसे पूछा, “ शशि, तूने किसके लिए धागा बाँधा है? तू चुप रहती है पर ज़रूर कोई है तेरे दिल में। हैं ना? और उसके साथ बाकी लड़कियों  ने भी पूछना शुरू कर दिया। 

“ है न कोई, बता न- धागा किसके लिए बाँधा है ??” और पता नहीं क्या क्या बोलकर उन सब ने बस में शोर मचाना शुरू कर दिया। 

सच बताऊँ? मैं उस समय बस की खिड़की से बाहर देख रही थी। बाहर सड़क पर लाल कैप (फौज में पैराट्रूपर ही लाल रंग की कैप पहनते हैं)  पहने हुए  एक सुंदर- सा फौजी अफसर अपनी मोटर साइकल पर जा रहा था। एक स्मार्ट  फौजी अफसर को देखकर लड़कियों ने खिड़कियों से हाथ हिलाना शुरू कर दिया। बस की खिड़कियों से लड़कियों की हँसी सुनकर उसने एक नज़र हमारी ओर डाली और मुस्कराकर, हाथ हिलाते हुए  निकल गया।

 हाँ वैसे मैं स्वभाव से इतनी खुली -डुली नहीं थी, अधिकतर चुप ही रहती थी; लेकिन पता नहीं मुझे क्या सूझी, मैंने जोर से एलान कर दिया - “ वह , जो फौजी अभी -अभी गया है न, उसी  के लिए मन्नत का धागा बाँधा है । बस खुश?”

बस में हँसी का, जोदौर शुरू हुआ, वह कई घंटों तक चलता रहा। 

ओ! स्मार्ट फौजी? पर वो, तो हाथ हिलाकर चला गया-  छेड़छाड़ का दौर बड़ी देर तक चलता रहा।

यह बात 28 दिसंबर की है। मुझे याद है क्योंकि कुछ तारीखें भूलती नहीं -

30 दिसम्बर को हम अपने टूयर से वापिस जम्मू पहुँचे थे। 31 दिसम्बर की दोपहर माँ ने मुझे सोते हुए जगाया और कहा, “कमला बुआ को तुमसे कोई ज़रूरी काम है। मुन्ना तुझे बुलाने के लिए आया है। जरा चली जा।”

कमला बुआ का घर मेरे घर के पास ही था। वह अक्सर स्वेटर के डिज़ाइन बनाते हुए मुझसे पूछती रहती थीं। मैंने सोचा, कुछ यही पूछना होगा। मन, तो नहीं था, थकी भी थी, पर चली गई।

कमला बुआ आँगन में बैठी स्वेटर बुन रही थी। पास ही कुर्सी पर किसी को बैठे देख मैं ठिठक गई । बुआ ने पास बिठाया और स्वेटर के डिज़ाइन की बात करने लगीं । फिर उस अजनबी की ओर देखते हुए कहा, “यह मेरा भतीजा है, कल ही आगरा से आया है। वहाँ फौज में कैप्टन है।”

मैंने उन्हें  नमस्ते कहा और जैसे ही जाने को उठी कैप्टन साहब ने कहा, ‘‘बैठ जाइए। बुआ बता रहीं थी कि आप भी आगरा गईं थी।’’

“हाँ!” कालेज टूयर के साथ।” -कुछ शर्माते हुए मैंने संक्षिप्त- सा उत्तर दिया और उठ खड़ी हुई। 

 “वहाँ कहाँ ठहरे थे आप लोग, क्या- क्या देखा?” उसने मुझे फिर रोक लिया था।

 मन में सोचा, न जान न पहचान। क्यों रुक जाऊँ? फिर भी खड़े- खड़े ही मैंने उस अजनबी के  प्रश्नों का ऊतर दिया। 

“देख शशि! यह डिज़ाइन ठीक से बन नहीं रहा है, ज़रा बैठकर तुम बुन के दिखाओ।” कहकर बुआ ने फिर से बिठा लिया।

मैं स्वेटर बुन रही थी और कैप्टन साहब बीच-बीच में आगरा, ताजमहल, आदि  की बात करते रहे। वो अधिकतर अंग्रेज़ी में बोल रहे थे और मैं हिन्दी में जवाब दे रही थी। (यह बात मुझे अभी तक याद है; क्योंकि मुझे , तो अंग्रेज़ी में बात करने की आदत नहीं थी और यह ठहरे फौजी)

दस-बारह सिलाइयों के बाद डिज़ाइन बन गया, तो मैं जाने को फिर से उठ खड़ी हुई। मैंने बड़े संकोच के साथ इन्हें नमस्ते कहा। हाँ! जाते जाते इन्होंने कहा था— It was good to talk to you.  

 घर आकर फिर से सोने की कोशिश करने लगी। अचानक मेरे मन-मस्तिष्क में  बिजली की तरह कुछ कौंधा-  कहीं यह वही फौजी अफसर , तो नहीं  जिसे आगरा में देख कर मैंने शरारत में अपनी सहेलियों से कह दिया था - इसके लिए मन्नत का धागा बाँधा है। अरे! मैं क्या सोच रही थी? यह कैसे हो सकता है????

हाँ! सच में वो वही था। पर यह कैसे हुआ, क्या संयोग था- मैं अभी तक नहीं जान पायी।

 बुआ का मन था कि मेरी शादी उनके परिवार में हो । स्वेटर का डिज़ाइन, तो बस बहाना था, वहाँ , तो मेरे भविष्य का डिज़ाइन तैयार हो रहा था।

6  जनवरी के दिन  इनके परिवार की ओर से  सगाई का संदेसा आया। मेरा पूरा परिवार बेहद खुश और मैं बेहद हैरान। 

ऐसा भी कभी होता है क्या? है न रोमांचक कहानी ????? ऐसा ही हुआ था।

शादी के कुछ दिन जब  मैंने आगरा वाली बात सुनाई , तो हैरान हो कर इन्होंने कहा, “ हाँ! वो मैं ही था। मैंने बस की नंबर प्लेट पर J&K लिखा देखा , तो हैरान हो गया था। जम्मू की बस और आगरा में?

थोड़ा रुक गया था मैं । खिड़की से कुछ लोग हाथ हिला रहे थे, तो मैंने भी जवाब दे दिया। क्या तुम भी उस बस में थी?”

हम दोनों एक दूसरे को देखकर खूब हँसे थे।

दो साल के बाद हम जब आगरा गए, तो दोनों ने फतेहपुर सीकरी के उस पेड़ पर बँधा मन्नत का धागा खोला और अटूट बंधन की प्रार्थना में एक बार फिर से नया धागा बाँध दिया। 

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1 comment:

Anonymous said...

अत्यंत रोचक एवं रोमांचक संस्मरण शशि जी ।सुदर्शन रत्नाकर