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Apr 1, 2024

कहानीः नजर बट्टू

  - ज्योति जैन

‘‘जल्दी से लाओ यार... लपक के भूख लग रही है...’’ दोनों हाथों को आपस में रगड़ते हुए नव्या ने कहा। मानो दोनों हथेलियाँ रगड़ने से जिन्न प्रकट होगा और नाश्ता उसके हाथों में।

‘‘हाँ यार... मुझे तो उसल की खुशबू से ही मुँह में पानी आ रहा है...’’ पलक ने नाक से गहरी सांस ली और आँखें बंद करके मानों उसल का स्वाद ले रही थी।

‘‘ओ भई... अपने को तो पहले जलेबी...’’ तन्मय की बात बीच में ही काटकर स्वीटी ने ‘‘ऽऽ.....’’ बिल्कुल विज्ञापन वाले बच्चे के अंदाज में ‘‘जलेबीऽऽऽ’’ कहा...’’ और सब खिलखिला कर हँस पड़े।

तब तक अंकित, गगन और इंदर गरम-गरम नाश्ता ले आऐ। जिनमें पोहे, उसल व जलेबी शामिल थे। 

‘‘ओ भई प्याज-नींबू अलग से...’’ स्वीटी चिल्लाई।

‘‘ठण्ड रख बेटा... ला रहा हूँ...’’ इंदर बिल्कुल बड़ों जैसी स्टाईल में बोला।

सबने फिर ठहाका लगाया।

वो एक 7-8 जनों का ग्रुप था , जो पढ़ाई में अंतिम वर्ष में था। और सब उस रविवार की ठण्डी सुबह में खाऊ ठिये पर नाश्ते का आनन्द लेने आए थे।

पहले एक-डेढ़ मिनट में तो सब चुपचाप सूतने में लग गए। पेट में जब थोड़ा वजन पड़ा तो बातचीत का क्रम फिर शुरू हो गया।

‘‘अबे... क्या पेटू की तरह खाए जा रहा है...’’ यह स्वीटी थी, जो अंकित को टारगेट बना रही थी। ‘‘तेरे झाँसी में खाने को नहीं मिलता क्या......?’’

‘‘ऐ... अपने शहर के बारे में कुछ नहीं बोलना हो... झाँसी की रानी...’’

और सब फिर हँस पड़े। बड़ी मस्त जिन्दगी लगती है वो, जब लोग बात-बात पर हँस दें। आजकल तो हँसी से भरी जिन्दगी कम ही नजर आती है।

‘‘सही है रे झाँसी की रानी...’’ अब नव्या ने छेड़ा ‘‘बेचारे को नजर मत लगा...’’ ‘‘देख तो कितना दुबला हो रहा है’’ और उसने हथेली के पृष्ठ भाग से उसकी हल्की उभरती ‘टमी’ पर धीरे से हाथ मारा।

फिर बिंदास ठकाहा गूंज उठा था।

‘‘अरे नजर से याद आया... पलक ने नव्या से पूछा तेरे पैर में यह काला धागा नजर के लिए ही बंधा है क्या...?’’ सबकी नजर नव्या के पैरों पर चली गई। उसके खुबसूरत, नाजुक पैरों में से बायें पैर में एक काला धागा बंधा था।

‘‘हाँ यार... नव्या ने एक सांस भरकर कहा - ‘‘दादी ने बंधवाया है। बीच में मुझे वायरल हो गया था ना। तब से तबियत कुछ ज्यादा ही बिगड़ गई थी। बस...... दादी को लगा कि मुझे नजर लग गई है। और उन्होंने पता नहीं कहाँ से मंत्रा कर यह ‘नजर बट्टू’ बाँध दिया।’’

’’तुझे लगता है यह नजर-वजर कुछ होती है...’’ स्वीटी ने पूछा। वह जरा अलग सोच वाली लड़की थी।

‘‘देख यार... जवाब इन्दर ने दिया।... नजर होती है या नहीं, इससे बड़ी यह चीज है कि यह हमारे बड़ों की आस्था होती है... हमारे लिए प्यार व फिक्र होती है... मैंने कहीं एक कविता पढ़ी थी, ऐसी कुछ थी कि

माँ ने नजर से बचाने को

काले धागे बाँध दिये

पर वो नहीं जानती कि

ताकत काले धागे में नहीं

खुद माँ की उंगलियों में है...

ऐसी कुछ थी... कविता से इंदर ने अपनी बात पूरी की।

‘‘वा...वा......ऽऽ बहुत खूब... अंकित बोल पड़ा... ‘‘तो ऐसा है कि मेरे खाने को कोई नजर न लगे इसलिए मैं भी माँ से धागा बंधवा कर आऊँगा अगली बार... क्या कहते हैं इसे...? नजर बट्टू ना...?

खाऊ ठिये पर फिर ठहाका गूँज उठा।

‘‘और इसी बात पर एक समोसा लेने जा रहा हूँ और कोई खाएगा क्या...? कहते हुए अंकित उठा।

‘‘रुक मैं भी आ रहा हूँ’’ और इंदर उसके पीछे-पीछे चला गया, तभी... उन 4-5 बच्चों का झुण्ड उन लोगों के थोड़ा और करीब खिसक आया , जो काफी देर से थोड़ी दूर खड़े थे। शायद इस उम्मीद से कि अब बचा-खुचा कुछ तो मिल ही जाएगा।

दोस्तों की टोली का ध्यान उन बच्चों की ओर गया तो एक-दो बच्चों ने कहा - ‘‘भैया-दीदी कुछ खाने को दिला दो ना... भूख लगी है।’’

आजकल की युवा पीढ़ी को शायद हम ठीक से समझ नहीं पाते हैं। ये लोग जीवन को जीना जानते हैं, काटना नहीं। देने का सुख भी यह पीढ़ी शायद बेहतर जानती है। इसीलिए लेने से ज्यादा देने में यकीन रखती है।

स्वीटी, पलक, तन्मय... सभी ने एक दूसरे की आँखों में देखा और शायद सब, सबकी बात समझ गए। दो-तीन दोस्त अंकित व इंदर के पास गए और उन्होंने दुकानदार से उन भिक्षुक बच्चों को पाँच पैकेट पोहे और पाव भर जलेबी देने को कहकर पेमेन्ट कर दिया।

धूल-गंदगी से काले पड़े बच्चों के चेहरों पर सफेद आँखें चमकीली हो उठी। गरम पोहे, जलेबी मिलेंगे इस विचार ने ही उनकी ठंड भगा दी।

दोस्तों की टोली नाश्ते को ‘दी एण्ड’ करती पार्किंग की ओर बढ़ गई।

वे पाँचों बच्चे ललचाई निगाहों से अपने हाथ में आने वाले पैकेट का इन्तजार कर रहे थे, लेकिन दुकानदार को उन्हें देने की कोई जल्दी नहीं थी। मानो उससे ही भीख ले रहे थे।

बड़ी हिकारत से उसने पूरा समय लेकर खाने की पुड़ियाँ उन बच्चों के हाथों में पटक दीं।

‘‘नीम्बू...? नीम्बू... तो अलग से देओ ना अंकल जी’’। एक बच्चे ने हिम्मत करके कहा।

‘‘नीम्बू चाहिए... स्याले चल भाग... पता नहीं है दस रुपये के दो है... भागों यहाँ से। इतना मिल गया है ना... चल भाग...’’ और उसने दुत्कार दिया...।

पाँचों बच्चों ने पोहे की पाँचों पुड़िया व जलेबी का पैकेट एक मटमैले झोले में डाला व एक ओर दौड़ लगा ली।

पार्किंग स्थल से सटी एक जगह थी, जहाँ वे पाँचों आराम से नीचे जमीन पर बैठ गए और लपलपाती जीभ व चमकीली आँखों से पाँचों ने अपनी-अपनी पोहे की पुड़िया अपने हाथों में ले ली। इसके बावजूद खोलने की कोई जल्दी नहीं थी। ये आश्चर्य की बात थी। दरअसल सबकों नीम्बू की कमी खटक रही थी। पाँच में से तीन तो ऐसे थे जिन्हें नींबू का स्वाद बड़ा भाता था। उनमें से एक , जो लीडर टाइप था या उसकी अगुवाई वही करता था, (कुछ लोग यों ही कहते हैं कि गरीब ईमानदार नहीं होते)/(कौन कहता है गरीबी ईमानदार नहीं होती?) उसने ईमानदारी से जलेबी के पाँच हिस्से करके सबकों देते हुए कहा - ‘‘अब बिना नींबू के ही खाले रे... मिला , जो ही भोत है।’’

‘‘रुक जरा...’’ नींबू के लिए जिसने दुकानदार से कहा था वो बच्चा बोला - ‘‘रुकना सब... मैं अब्बी आया...’’

और वो एक ओर भाग लिया। मिनट भर में लौटा तो उसके हाथ में चार फांक कटे कुछ नींबू थे।

‘‘वाह...’’ सबको मजा आ गया।

‘‘कां से लाए रे फत्तू...? वो अंकल से...?

‘‘नई रे... वो कां देता...!’’ विजयी मुस्कान से वो बोला। आखिर नींबू तो वो ही लाया था ना।

‘‘अपन वो चौराहे से आ रहे थे ना... तभी मैंने देखा था। सड़क पे पड़े थे... कोई डाल गिया था। वो ही उठा लाया।’’

मैले थेले से नींबू पोंछकर पोहे में निचोड़ते हुए वो बोला। और पहला कौर खाते ही उसने अपार तृप्ति से आँखे बंद करते हुए नींबू का स्वाद लिया।

इस सारे घटनाक्रम का साक्षी पार्किंग में खड़ा उन दोस्तों का ग्रुप था जिसने इन बच्चों को नाश्ता दिलवाया था। वे सब पर्किंग के पास ही खड़े बतिया रहे थे। और अब सब खामोश थे।

उन सबसे वे बेखबर वे भिक्षुक बच्चे नींबू पोहे व जलेबी का आनन्द ले रहे थे।

‘‘यार... क्या लाइफ़ है ना इनकी...’’ पलक का गला भर आया था।

‘‘हाँ यार... बेचारे... अपन तो कितनी अच्छी जगह है ना...? हमें , जो मिला है, उसके लिए भगवान का धन्यवाद करना चाहिए।’’ इंदर बोला।

‘‘पर एक बात बता यार...’’ अंकित असमंजस में था। ‘‘ये , जो नींबू उठाकर लाए वे किसी ने नजर उतारने के बाद चौराहे पर लाकर काटकर डाले होंगे... इन्हें तो नजर नहीं लग जाएगी?’’

‘‘नहीं लगेगी... तन्मय का स्वर गंभीर था...’’ ‘‘जिन्हें गरीबी लगी हो, उन्हें कोई और नजर क्या लगेगी...?

ठण्डी सांस ले उसल पोहे का स्वाद भूल वे दोस्त अब जिन्दगी के विभिन्न स्वाद के बारे में बात कर रहे थे और इन सबसे बेखबर वे भिक्षुक बच्चे नजर बट्टू नींबू का स्वाद ले रहे थे।

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