सागर से मिलने पर नदिया के
देखो नयन भर आए हैं!
क्या पाया था! क्या कर बैठे!
इस पार उतर जब आए हैं।
जिनके सिंचन-पोषण को मैं
हिम पर्वत से मुँह मोड़ चली,
दायित्व निभाने को अपने,
सम्बंध सभी मैं, तोड़ चली!
पोषण लेकर दूषण लौटाया,
ममता का ऋण यूँ है चुकाया!
उद्धार पाकर, मानव जाति,
मर्यादा अपनी छोड़ चली!
इतना अपशिष्ट प्रवाहित कर,
इस शुभ्र आभा को मलिन किया।
माँ हूँ! क्या करती, बालक को,
अपनी क्षमता से अधिक दिया!
कहती- "बालक अपने ही हैं"
रहती वात्सल्य, लुटाए है!
सागर से मिलने पर नदिया के
देखो नयन भर आए हैं!
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