जहाँ प्रेम का पेड़
लगाते हैं
दूल्हा- दुल्हन
- प्रसून लतांत
पैसे दे दो, जूते ले लो..... लोक में इस गीत के बोल चाहे जिस तरह के भी हों, विवाह के अवसर पर जूते चुराकर नेग लेने की परंपरा बहुत पुरानी है। लेकिन उत्तराखंड की लड़कियों ने शादी के लिए आए दूल्हों के जूते चुरा कर उनसे नेग लेने के रिवाज को तिलांजलि दे दी है। वे अब दूल्हों के जूते नहीं चुराती बल्कि उनसे अपने मैत यानी मायके में पौधे लगवाती हैं। इस नई रस्म ने वन संरक्षण के साथ साथ सामाजिक समरसता और एकता की एक ऐसी परंपरा को गति दे दी है, जिसकी चर्चा देश भर में हो रही है।
अब यह आंदोलन उत्तराखंड सहित देश के आठ राज्यों में भी अपने जड़ें जमा चुका है। चार राज्यों में तो वहां की पाठ्य पुस्तकों में भी इस आंदोलन की गाथा को स्थान दिया गया है। कनाडा में मैती आंदोलन की खबर पढ़ कर वहां की पूर्व प्रधानमंत्री फ्लोरा डोनाल्ड आंदोलन के प्रवर्तक कल्याण सिंह रावत से मिलने गोचर आ गईं।
वे मैती परंपरा से इतना प्रभावित हुई कि उन्होंने इसका कनाडा में प्रचार-प्रसार शुरु कर दिया। अब वहां भी विवाह के मौके पर पेड़ लगाए जाने लगे हैं। मैती परंपरा से प्रभावित होकर कनाडा सहित अमेरिका, ऑस्ट्रिया, नार्वे, चीन, थाईलैंड और नेपाल में भी विवाह के मौके पर पेड़ लगाए जाने लगे हैं।
मैती आंदोलन की भावनाओं से अभिभूत होकर अब लोग जहां पेड़ लगा रहे हैं वहीं उनके व्यवहार भी बदल रहे हैं। पर्यावरण के प्रति उनके सोच में भी परिवर्तन आ रहा है। यही वजह है कि अब लोग अपने आसपास के जंगलों को बचाने और इनके संवर्धन में भी सहयोग करने लगे हैं। इस आंदोलन के चलते पहाड़ों पर काफी हरियाली दिखने लगी है और सरकारी स्तर पर होने वाले वृक्षारोपण की भी असलियत उजागर हुई है। गांव-गांव में मैती जंगलों की श्रृंखलाएं सजने लगी हैं।
पर्यावरण संरक्षण के लगातार बढ़ते इस अभियान को अपनी परिकल्पना और संकल्प से जन्म देने वाले कल्याण सिंह रावत ने कभी सोचा भी नहीं था कि उनकी प्रेरणा से उत्तराखंड के एक गांव से शुरु हुआ यह अभियान एक विराट और स्वयं स्फूर्त आंदोलन में बदल जाएगा।
मैती की धुन
अब तो इसकी व्यापकता इतनी बढ़ गई है कि इसके लिए किसी पर्चे-पोस्टर और बैठक-सभा करने की जरूरत नहीं होती है। मायके में रहने वाली मैती बहनें शादियों के दौरान दूल्हों से पौधे लगवाने की रस्म को खुद-ब-खुद अंजाम देती हैं।
विवाह के समय ही पेड़ लगाने की इस रस्म के स्वयं स्फूर्त तरीके से फैलने की एक बारात में आए लोग भी होते हैं जो अपने गांव लौटकर इस आंदोलन की चर्चा करने और अपने यहां इसे लागू करने से नहीं चूकते। शादी कराने वाले पंडित भी इस आंदोलन का मुफ्त में प्रचार करते रहते हैं। अब तो शादी के समय छपने वाले निमंत्रण पत्रों में भी मैती कार्यक्रम का जिक्र किया जाता है।
आज की तारीख में आठ हजार गावों में यह आंदोलन फैल गया है और इसके तहत लगाए गए पेड़ों की संख्या करोड़ से भी ऊपर पहुँच गई है।
करीब डेढ़ दशक पहले चामोली के ग्वालदम से फैला यह आंदोलन कुमाऊं में घर-घर होते हुए अब गढ़वाल के हर घर में भी दस्तक देने लगा है। शुरुआती दौर में पर्यावरण संरक्षण के वास्ते चलाए गए इस अभियान में महिलाओं और बेटियों ने इसमें सर्वाधिक भागीदारी निभाई।
मैती का अर्थ होता है लडक़ी का मायका। गांव की हर अविवाहित लडक़ी इस संगठन से जुड़ती हैं। इसमें स्कूल जाने वाली लड़कियों के साथ, घर में रहने वाली लड़कियां भी शामिल होती हैं। इस संगठन को लड़कियों के घर परिवार के साथ गांव की महिला मंगल दल का भी समर्थन-सहयोग प्राप्त होती है। बड़ी-बूढ़ी महिलाएं भी मैती की गतिविधियों में शामिल होने से नहीं चूकती।
मैती वाली दीदी
मैती संगठन की कार्यविधि बिल्कुल साफ औऱ एकदम सरल है। संगठन को मजबूत और रचनात्मक बनाने के लिए सभी लड़कियां अपने बीच की सबसे बड़ी और योग्य लडक़ी को अपना अध्यक्ष चुनती है, अध्यक्ष पद को बड़ी दीदी का नाम दिया गया है। बड़ी दीदी का सम्मान उनके गांव में उतना ही होता है जितना एक बड़े परिवार में सबसे बड़ी बेटी का होता है।
गांव के मैती संगठन की देखरेख और इसको आगे बढ़ाने का नेतृत्व चुनी गई बड़ी दीदी ही करती है। बाकी सभी लड़कियां इस संगठन की सदस्य होती है। जब बड़ी दीदी की शादी हो जाती है तो किसी दूसरी योग्य लडक़ी को बहुत सहजता के साथ संगठन की जिम्मेदारी सौंप दी जाती है और यह क्रम लगातार चलता रहता है।
गांव की हरेक लडक़ी मायके में अपने घर के आसपास किसी सुरक्षित जगह पर अपने प्रयास से किसी वृक्ष की एक पौध तैयार करती है। यह पौध जलवायु के अनुकूल किसी भी प्रजाति की हो सकती है। कुछ लड़कियां जमीन पर पॉलिथीन की थैली पर केवल एक पौधा तैयार करती है। गांव में जितनी लड़कियां होती हैं, उतने ही पौधे तैयार किये जाते हैं।
हरेक लडक़ी अपने पौधे को देवता मान कर या अपने जीवन साथी को शादी के समय देने वाला एक उपहार मान कर बड़ी सहजता, तत्परता और सुरक्षा से पालती-पोसती रहती है। इस तरह अगर गांव में सौ लड़कियां हैं तो सौ पौध तैयार हो रहे होते हैं।
किसी भी गांव की लडक़ी की शादी तय हो जाने पर बड़ी दीदी के मां-बाप से बातचीत करके उनके घर के ही आंगन में या खेत आदि में शादी के समय अपने दूल्हे के साथ पौधारोपण कर देती हैं। शादी के दिन अन्य औपचारिकताएं पूरी हो जाने पर बड़ी दीदी के नेतृत्व में गांव की सभी लड़कियां मिल कर दूल्हा-दुल्हन को पौधारोपण वाले स्थान पर ले जाती हैं। दुल्हन द्वारा तैयार पौधे को मैती बहनें दुल्हे को यह कह कर सौंपती हैं कि यह पौधा वह निशानी है या सौगात है जिसे दुल्हन ने बड़े प्रेम से तैयार किया है।
मैती कोष भी
दूल्हा मैती बहनों के नेतृत्व में पौधा रोपता है और दुल्हन उसमें पानी देती है। मंत्रोच्चार के बीच रोपित पौधा दूल्हा दुल्हन के विवाह की मधुर स्मृति के साथ एक धरोहर में तब्दील हो जाता है। पौधा रोपने के बाद बड़ी दीदी दूल्हे से कुछ पुरस्कार मांगती है। दूल्हा अपनी हैसियत के अनुसार कुछ पैसे देता है, जो मैती संगठन के कोष में जाता है। मैती बहनों दूल्हों से प्राप्त पैसों को बैंक य़ा पोस्ट ऑफिस में या गांव की ही किसी बहू के पास जमा करती रहती हैं।
इन पैसों का सदुपयोग गांव की गरीब बहनों की मदद के लिए किया जाता है। गरीब बहनों के विवाह के अलावा इन पैसों से उन बहनों के लिए चप्पल खरीदी जाती है, जो नंगे पांव जंगल में आती-जाती हैं या इन पैसों से गरीब बच्चियों के लिए किताब या बैग आदि खरीदे जाते हैं। हरेक गांव में मैती बहनों को साल भर में होने वाली दस पंद्रह शादियों से करीब तीन चार हजार से अधिक पैसे जमा हो जाते हैं। ये पैसे मैती बहनें अपने गांव में पर्यावरण संवर्धन के कार्यक्रमों पर भी खर्च करती है।
0 मैती आंदोलन के इस तरह व्यापक होने की उम्मीद पहले से थी ?
00 इस आंदोलन की जो अवधारणा थी और जो ताना-बाना बुना गया था, उससे ही यह उम्मीद की गई थी कि लोग जरूर इस आंदोलन को अपनाएंगे और इसमें अपनी भावनात्मक दिलचस्पी दिखाएंगे। उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल में, जहां भी लोगों ने इसके बारे में सुना, वहां यह आंदोलन अपने आप फैलता चला गया।
0 आंदोलन को बहुआयामी बनाने के लिए और क्या-क्या प्रयोग किए गए ?
00 लोग भावनात्मक रूप से वृक्षारोपण से जुड़ेंगे तो पेड़ लगाने के बाद उसके चारों ओर दीवार या बाड़ लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। लोग खुद ही उसकी सुरक्षा करेंगे।
इस आंदोलन को केवल वृक्षारोपण तक सीमित नहीं रखा गया, बल्कि हमारी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय घटनाएं हैं, इनमें कुछ अहम तिथियां हैं, उनसे जोडक़र इस आंदोलन को भावनात्मक रूप देने का प्रयास किया गया ताकि उन चीजों के प्रति भी लोगों की भावनाएं जाग सकें। जैसे कि कोई राष्ट्रीय धरोहर है, राष्ट्रीय पर्व है। इसके अलावा कुछ वैसी चीजों जो हमारे यहां दूसरे देशों से आई हैं, उनको भी अपनी राष्ट्रीयता के ताने बाने में बुनकर पेश करने की कोशिश की गई। वैलेंटाइन डे मनाने का प्रचलन दूसरे देशों से अपने यहां आया, जिसका काफी विरोध हुआ, पर इसके बावजूद युवा पीढ़ी उसकी ओर काफी आकर्षित हुई। मैती आंदोलन ने इसका विरोध नहीं किया बल्कि इसे एक नया रूप देने की कोशिश की गई। हम लोगों ने युवाओं से आग्रह किया कि इस मौके पर फूल नहीं देकर एक पेड़ लगाइए। पेड़ को ही कहीं जाकर प्रेम से झुक कर लगाइए। फिर देखिए अगले पांच सालों में वह पेड़ इतना ऊंचा हो जाएगा कि आपको उसे सिर उठा कर देखने के लिए विवश होना पड़ेगा।
0 मैती संगठन को एक एनजीओ का रूप क्यों नहीं दिया गया ?
00 पहले मैं भी इस मुद्दे पर पूरी तरह स्पष्ट नहीं था। अगर मैती आंदोलन को एनजीओ का रूप देगें तो हो सकता है कि इसका आज के जैसा आकर्षण खत्म हो जाएगा। देश में कई एनजीओ हैं अपवाद के रूप में, जो केवल कागजों पर चल रहे हैं। काम नहीं करते हैं और सभी सरकारी, गैर सरकारी फंड लूट कर ले जाते हैं। इस कारण लोगों की नजर में एनजीओ का सकारात्मक रूप नहीं रह गया है। इसलिए हमने कहा कि मैती को एक स्वयंस्फूर्त आंदोलन ही रहने दिया जाए ताकि लोग इससे भावनात्मक रूप से जुड़ सकें। इस आंदोलन में जहां पैसे को जोड़ेंगे, वहीं इसकी आत्मा मर जाएगी।
0 मैती आंदोलन का जन्म कैसे हुआ और इसकी प्रेरणा आपको कैसे मिली ?
00 इस आंदोलन के जन्म की कहानी तो वास्तव में प्रकृति प्रेरणा से शुरु हुई है। मैं खुद प्रकृति प्रेमी हूं। मेरे पिता भी वन विभाग में रहे। दादा भी उसमें ही रहे। मेरा बचपन भी जंगलों के बीच बीता। जब मैं गोपेश्वर में पढऩे गया तो वहां जंगल को बचाने के लिए चिपको आंदोलन शुरु हुआ। उसमें मैंने छात्र होते हुए भी सक्रिय भागीदारी निभाई। गांधावादी संगठनों के संपर्क में रहा और मैं छात्र भी वनस्पति विज्ञान का रहा। प्रकृति के करीब रहने में मेरी दिलचस्पी रही। पूरे हिमालय का दौरा किया गढ़वाल-कुमाऊं का चप्पा चप्पा घूम गया हूं। इन यात्राओं के दौरान गावों में वहां के जन-जीवन को महिलाओं की परिस्थितियों को समझने का मौका मिला।
मैंने देखा कि सरकारी वृक्षारोपण अभियान विफल हो रहे थे। एक ही जगह पर पांच पांच बार पेड़ लगाए जाते पर उसका नतीजा शून्य होता। इतनी बार पेड़ लगाने के बावजूद पेड़ दिखाई नहीं पड़ रहे थे। इन हालात को देखते हुए मन में यह बात आई कि जब तक हम लोगों को भावनात्मक रूप से सक्रिय नहीं करेंगे, तब तक वृक्षारोपण जैसे कार्यक्रम सफल नहीं हो सकते। लोग भावनात्मक रूप से वृक्षारोपण से जुडेंग़े तो पेड़ लगाने के बाद उसके चारों ओर दीवार या बाड़ लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। लोग खुद ही उसकी सुरक्षा करेंगे। शुरु में अंधविश्वासों के कारण मुझे कुछ दिक्कतों का सामना करना पड़ा पर हमारी सही नीयत ने कमाल कर दिखाया। मैती बहनें तो सक्रिय हैं ही, गांव के आम लोग भी मैती से जुड़ते चले गए हैं।
एक युगल एक पेड़
मैती आंदोलन अब केवल विवाह के मौके पर दूल्हा-दुल्हन से वृक्ष लगाने तक सीमित नहीं रह गया है। इस आंदोलन के प्रणेता कल्याण सिंह रावत ने इस भावनात्मक आंदोलन को बहुमुखी बनाने में भी कामयाबी पाई है। अपने अनेक अभिनव प्रयोगों और गरीबों, विकलांगो, महिलाओं और छात्रों के बीच सामाजिक कार्यों के कारण मैती संगठन की पहचान सभी वर्गों के बीच बन गई है। इस संगठन ने वैलेंटाइन डे जैसे आयातित मौके को भी गुलाब फूल लेने-देने के प्रचलन से बाहर निकाल कर 'एक युगल एक पेड़Ó के कार्यक्रम से जोड़ दिया है। अब उत्तराखंड़ के गांव-गांव में वेलेंटाइन डे पर भी प्रेमी जोड़े अपने प्रेम की याद में पेड़ लगाते हैं।
मैती बहनों ने एक और भावनात्मक कार्यक्रम को अंजाम दिया। जब टॉस वन प्रभाग उत्तरकाशी में स्थित एशिया का सबसे बड़ा देवदार वृक्ष गिर गया तो उसकी याद में मैती बहनों ने इस पेड़ के महाप्रयाण पर एक भव्य औऱ शिक्षाप्रद क्रार्यक्रम का आयोजन किया। इस मौके पर जहां हजारों लोगों की मौजूदगी में महाप्रयाण किए देवदार वृक्ष को भावभीनी विदाई दी गई, वहीं उसकी जगह इसी जाति का एक नया पेड़ भी लगाया गया।
मैती बहनों ने पर्यावरण संरक्षण और वन्यप्राणियों की रक्षा के लिए कई नए मेलों का भी शुभारंभ किया जो आज भी हर वर्ष अपने समय पर आयोजित होते आ रहे हैं।
मैती बहनों ने पूरे उत्तराखंड में पर्यावरण संरक्षण के लिए वृक्षारोपण के अलावा वन्यजीवों की रक्षा के साथ अंधविश्वास के खिलाफ न सिर्फ चेतना जगाई बल्कि लंबा संघर्ष भी किया। चौरींखाल पौड़ी गढ़वाल में बूंखाल मेले के दौरान पशुवध के खिलाफ संघर्ष किया। संघर्ष का परिणाम यह हुआ है कि जहां हर वर्ष इस मेले में चार सौ भैंसों की बलि दी जाती थी, वहीं उनकी संख्या अब चालीस से भी कम हो गई है। इसी तरह विनसर और सरनौल क्षेत्रों में भी वन्य प्राणियों की रक्षा के अभियान चलाए गए। सरनौल में सौ से अधिक वन्यप्राणियों की रक्षा की गई। मैती संगठन ने पूरे उत्तराखंड में वन्य़प्राणियों के प्रति प्रेम पैदा करने के लिए आठ सौ किलोमीटर की महायात्रा का आयोजन किया और वन्य प्राणियों की रक्षा के लिए लोगों को जागरुक किया।
मैती बहनों ने रूद्रनाथ बुग्याल में जड़ी-बूटी दोहन के खिलाफ भी संघर्ष किया। चामोली गांवल में पाटला गांव को गोद लेकर उसे पूरी साक्षर बनाने में कामयाबी पाई। बांधों के कारण डूब गए टिहरी शहर की स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए डूबते समय तैंतीस ऐतिहासिक स्थलों की मिट्टी को लाकर स्वामी रामतीर्थ कॉलेज के हाल में उसे अलग-अलग गढ़ों में स्थापित किया गया और उस पर वृक्ष लगाए गए।
इसी तरह मैती बहनों ने राज्य सरकार की मदद से पंद्रह दिसंबर 2006 में सौ साल पूरा करने वाले एफआरआई देहरादून का शताब्दी समारोह मनाया। इस समारोह में राज्य भर के बारह लाख बच्चों के हस्ताक्षर युक्त दो किलोमीटर लंबे कपड़े से एफआरआई भवन को लपेटा गया। तत्कालीन राज्यपाल सुदर्शन अग्रवाल ने मुख्य अतिथि के रूप में कपड़े की गांठ बांधी और दो ऐतिहासिक वृक्षों का जलाभिषेक किया।
मैती बहनों ने पर्यावरण संरक्षण और वन्यप्राणियों की रक्षा के लिए कई नए मेलों का भी शुभारंभ किया जो आज भी हर वर्ष अपने समय पर आयोजित होते आ रहे हैं। ग्रामीणों के बीच स्वास्थ्य चेतना अभियान युवाओं के लिए खेलकूद और बेसहारों को सहारा देने के लिए भी अनेक कर्यक्रम संचालित होते रहे हैं। (www.रविवार.com)
लगाते हैं
दूल्हा- दुल्हन
- प्रसून लतांत
पैसे दे दो, जूते ले लो..... लोक में इस गीत के बोल चाहे जिस तरह के भी हों, विवाह के अवसर पर जूते चुराकर नेग लेने की परंपरा बहुत पुरानी है। लेकिन उत्तराखंड की लड़कियों ने शादी के लिए आए दूल्हों के जूते चुरा कर उनसे नेग लेने के रिवाज को तिलांजलि दे दी है। वे अब दूल्हों के जूते नहीं चुराती बल्कि उनसे अपने मैत यानी मायके में पौधे लगवाती हैं। इस नई रस्म ने वन संरक्षण के साथ साथ सामाजिक समरसता और एकता की एक ऐसी परंपरा को गति दे दी है, जिसकी चर्चा देश भर में हो रही है।
अब यह आंदोलन उत्तराखंड सहित देश के आठ राज्यों में भी अपने जड़ें जमा चुका है। चार राज्यों में तो वहां की पाठ्य पुस्तकों में भी इस आंदोलन की गाथा को स्थान दिया गया है। कनाडा में मैती आंदोलन की खबर पढ़ कर वहां की पूर्व प्रधानमंत्री फ्लोरा डोनाल्ड आंदोलन के प्रवर्तक कल्याण सिंह रावत से मिलने गोचर आ गईं।
वे मैती परंपरा से इतना प्रभावित हुई कि उन्होंने इसका कनाडा में प्रचार-प्रसार शुरु कर दिया। अब वहां भी विवाह के मौके पर पेड़ लगाए जाने लगे हैं। मैती परंपरा से प्रभावित होकर कनाडा सहित अमेरिका, ऑस्ट्रिया, नार्वे, चीन, थाईलैंड और नेपाल में भी विवाह के मौके पर पेड़ लगाए जाने लगे हैं।
मैती आंदोलन की भावनाओं से अभिभूत होकर अब लोग जहां पेड़ लगा रहे हैं वहीं उनके व्यवहार भी बदल रहे हैं। पर्यावरण के प्रति उनके सोच में भी परिवर्तन आ रहा है। यही वजह है कि अब लोग अपने आसपास के जंगलों को बचाने और इनके संवर्धन में भी सहयोग करने लगे हैं। इस आंदोलन के चलते पहाड़ों पर काफी हरियाली दिखने लगी है और सरकारी स्तर पर होने वाले वृक्षारोपण की भी असलियत उजागर हुई है। गांव-गांव में मैती जंगलों की श्रृंखलाएं सजने लगी हैं।
पर्यावरण संरक्षण के लगातार बढ़ते इस अभियान को अपनी परिकल्पना और संकल्प से जन्म देने वाले कल्याण सिंह रावत ने कभी सोचा भी नहीं था कि उनकी प्रेरणा से उत्तराखंड के एक गांव से शुरु हुआ यह अभियान एक विराट और स्वयं स्फूर्त आंदोलन में बदल जाएगा।
मैती की धुन
अब तो इसकी व्यापकता इतनी बढ़ गई है कि इसके लिए किसी पर्चे-पोस्टर और बैठक-सभा करने की जरूरत नहीं होती है। मायके में रहने वाली मैती बहनें शादियों के दौरान दूल्हों से पौधे लगवाने की रस्म को खुद-ब-खुद अंजाम देती हैं।
विवाह के समय ही पेड़ लगाने की इस रस्म के स्वयं स्फूर्त तरीके से फैलने की एक बारात में आए लोग भी होते हैं जो अपने गांव लौटकर इस आंदोलन की चर्चा करने और अपने यहां इसे लागू करने से नहीं चूकते। शादी कराने वाले पंडित भी इस आंदोलन का मुफ्त में प्रचार करते रहते हैं। अब तो शादी के समय छपने वाले निमंत्रण पत्रों में भी मैती कार्यक्रम का जिक्र किया जाता है।
आज की तारीख में आठ हजार गावों में यह आंदोलन फैल गया है और इसके तहत लगाए गए पेड़ों की संख्या करोड़ से भी ऊपर पहुँच गई है।
करीब डेढ़ दशक पहले चामोली के ग्वालदम से फैला यह आंदोलन कुमाऊं में घर-घर होते हुए अब गढ़वाल के हर घर में भी दस्तक देने लगा है। शुरुआती दौर में पर्यावरण संरक्षण के वास्ते चलाए गए इस अभियान में महिलाओं और बेटियों ने इसमें सर्वाधिक भागीदारी निभाई।
मैती का अर्थ होता है लडक़ी का मायका। गांव की हर अविवाहित लडक़ी इस संगठन से जुड़ती हैं। इसमें स्कूल जाने वाली लड़कियों के साथ, घर में रहने वाली लड़कियां भी शामिल होती हैं। इस संगठन को लड़कियों के घर परिवार के साथ गांव की महिला मंगल दल का भी समर्थन-सहयोग प्राप्त होती है। बड़ी-बूढ़ी महिलाएं भी मैती की गतिविधियों में शामिल होने से नहीं चूकती।
मैती वाली दीदी
मैती संगठन की कार्यविधि बिल्कुल साफ औऱ एकदम सरल है। संगठन को मजबूत और रचनात्मक बनाने के लिए सभी लड़कियां अपने बीच की सबसे बड़ी और योग्य लडक़ी को अपना अध्यक्ष चुनती है, अध्यक्ष पद को बड़ी दीदी का नाम दिया गया है। बड़ी दीदी का सम्मान उनके गांव में उतना ही होता है जितना एक बड़े परिवार में सबसे बड़ी बेटी का होता है।
गांव के मैती संगठन की देखरेख और इसको आगे बढ़ाने का नेतृत्व चुनी गई बड़ी दीदी ही करती है। बाकी सभी लड़कियां इस संगठन की सदस्य होती है। जब बड़ी दीदी की शादी हो जाती है तो किसी दूसरी योग्य लडक़ी को बहुत सहजता के साथ संगठन की जिम्मेदारी सौंप दी जाती है और यह क्रम लगातार चलता रहता है।
गांव की हरेक लडक़ी मायके में अपने घर के आसपास किसी सुरक्षित जगह पर अपने प्रयास से किसी वृक्ष की एक पौध तैयार करती है। यह पौध जलवायु के अनुकूल किसी भी प्रजाति की हो सकती है। कुछ लड़कियां जमीन पर पॉलिथीन की थैली पर केवल एक पौधा तैयार करती है। गांव में जितनी लड़कियां होती हैं, उतने ही पौधे तैयार किये जाते हैं।
हरेक लडक़ी अपने पौधे को देवता मान कर या अपने जीवन साथी को शादी के समय देने वाला एक उपहार मान कर बड़ी सहजता, तत्परता और सुरक्षा से पालती-पोसती रहती है। इस तरह अगर गांव में सौ लड़कियां हैं तो सौ पौध तैयार हो रहे होते हैं।
किसी भी गांव की लडक़ी की शादी तय हो जाने पर बड़ी दीदी के मां-बाप से बातचीत करके उनके घर के ही आंगन में या खेत आदि में शादी के समय अपने दूल्हे के साथ पौधारोपण कर देती हैं। शादी के दिन अन्य औपचारिकताएं पूरी हो जाने पर बड़ी दीदी के नेतृत्व में गांव की सभी लड़कियां मिल कर दूल्हा-दुल्हन को पौधारोपण वाले स्थान पर ले जाती हैं। दुल्हन द्वारा तैयार पौधे को मैती बहनें दुल्हे को यह कह कर सौंपती हैं कि यह पौधा वह निशानी है या सौगात है जिसे दुल्हन ने बड़े प्रेम से तैयार किया है।
मैती कोष भी
दूल्हा मैती बहनों के नेतृत्व में पौधा रोपता है और दुल्हन उसमें पानी देती है। मंत्रोच्चार के बीच रोपित पौधा दूल्हा दुल्हन के विवाह की मधुर स्मृति के साथ एक धरोहर में तब्दील हो जाता है। पौधा रोपने के बाद बड़ी दीदी दूल्हे से कुछ पुरस्कार मांगती है। दूल्हा अपनी हैसियत के अनुसार कुछ पैसे देता है, जो मैती संगठन के कोष में जाता है। मैती बहनों दूल्हों से प्राप्त पैसों को बैंक य़ा पोस्ट ऑफिस में या गांव की ही किसी बहू के पास जमा करती रहती हैं।
इन पैसों का सदुपयोग गांव की गरीब बहनों की मदद के लिए किया जाता है। गरीब बहनों के विवाह के अलावा इन पैसों से उन बहनों के लिए चप्पल खरीदी जाती है, जो नंगे पांव जंगल में आती-जाती हैं या इन पैसों से गरीब बच्चियों के लिए किताब या बैग आदि खरीदे जाते हैं। हरेक गांव में मैती बहनों को साल भर में होने वाली दस पंद्रह शादियों से करीब तीन चार हजार से अधिक पैसे जमा हो जाते हैं। ये पैसे मैती बहनें अपने गांव में पर्यावरण संवर्धन के कार्यक्रमों पर भी खर्च करती है।
0 मैती आंदोलन के इस तरह व्यापक होने की उम्मीद पहले से थी ?
00 इस आंदोलन की जो अवधारणा थी और जो ताना-बाना बुना गया था, उससे ही यह उम्मीद की गई थी कि लोग जरूर इस आंदोलन को अपनाएंगे और इसमें अपनी भावनात्मक दिलचस्पी दिखाएंगे। उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल में, जहां भी लोगों ने इसके बारे में सुना, वहां यह आंदोलन अपने आप फैलता चला गया।
0 आंदोलन को बहुआयामी बनाने के लिए और क्या-क्या प्रयोग किए गए ?
00 लोग भावनात्मक रूप से वृक्षारोपण से जुड़ेंगे तो पेड़ लगाने के बाद उसके चारों ओर दीवार या बाड़ लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। लोग खुद ही उसकी सुरक्षा करेंगे।
इस आंदोलन को केवल वृक्षारोपण तक सीमित नहीं रखा गया, बल्कि हमारी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय घटनाएं हैं, इनमें कुछ अहम तिथियां हैं, उनसे जोडक़र इस आंदोलन को भावनात्मक रूप देने का प्रयास किया गया ताकि उन चीजों के प्रति भी लोगों की भावनाएं जाग सकें। जैसे कि कोई राष्ट्रीय धरोहर है, राष्ट्रीय पर्व है। इसके अलावा कुछ वैसी चीजों जो हमारे यहां दूसरे देशों से आई हैं, उनको भी अपनी राष्ट्रीयता के ताने बाने में बुनकर पेश करने की कोशिश की गई। वैलेंटाइन डे मनाने का प्रचलन दूसरे देशों से अपने यहां आया, जिसका काफी विरोध हुआ, पर इसके बावजूद युवा पीढ़ी उसकी ओर काफी आकर्षित हुई। मैती आंदोलन ने इसका विरोध नहीं किया बल्कि इसे एक नया रूप देने की कोशिश की गई। हम लोगों ने युवाओं से आग्रह किया कि इस मौके पर फूल नहीं देकर एक पेड़ लगाइए। पेड़ को ही कहीं जाकर प्रेम से झुक कर लगाइए। फिर देखिए अगले पांच सालों में वह पेड़ इतना ऊंचा हो जाएगा कि आपको उसे सिर उठा कर देखने के लिए विवश होना पड़ेगा।
0 मैती संगठन को एक एनजीओ का रूप क्यों नहीं दिया गया ?
00 पहले मैं भी इस मुद्दे पर पूरी तरह स्पष्ट नहीं था। अगर मैती आंदोलन को एनजीओ का रूप देगें तो हो सकता है कि इसका आज के जैसा आकर्षण खत्म हो जाएगा। देश में कई एनजीओ हैं अपवाद के रूप में, जो केवल कागजों पर चल रहे हैं। काम नहीं करते हैं और सभी सरकारी, गैर सरकारी फंड लूट कर ले जाते हैं। इस कारण लोगों की नजर में एनजीओ का सकारात्मक रूप नहीं रह गया है। इसलिए हमने कहा कि मैती को एक स्वयंस्फूर्त आंदोलन ही रहने दिया जाए ताकि लोग इससे भावनात्मक रूप से जुड़ सकें। इस आंदोलन में जहां पैसे को जोड़ेंगे, वहीं इसकी आत्मा मर जाएगी।
0 मैती आंदोलन का जन्म कैसे हुआ और इसकी प्रेरणा आपको कैसे मिली ?
00 इस आंदोलन के जन्म की कहानी तो वास्तव में प्रकृति प्रेरणा से शुरु हुई है। मैं खुद प्रकृति प्रेमी हूं। मेरे पिता भी वन विभाग में रहे। दादा भी उसमें ही रहे। मेरा बचपन भी जंगलों के बीच बीता। जब मैं गोपेश्वर में पढऩे गया तो वहां जंगल को बचाने के लिए चिपको आंदोलन शुरु हुआ। उसमें मैंने छात्र होते हुए भी सक्रिय भागीदारी निभाई। गांधावादी संगठनों के संपर्क में रहा और मैं छात्र भी वनस्पति विज्ञान का रहा। प्रकृति के करीब रहने में मेरी दिलचस्पी रही। पूरे हिमालय का दौरा किया गढ़वाल-कुमाऊं का चप्पा चप्पा घूम गया हूं। इन यात्राओं के दौरान गावों में वहां के जन-जीवन को महिलाओं की परिस्थितियों को समझने का मौका मिला।
मैंने देखा कि सरकारी वृक्षारोपण अभियान विफल हो रहे थे। एक ही जगह पर पांच पांच बार पेड़ लगाए जाते पर उसका नतीजा शून्य होता। इतनी बार पेड़ लगाने के बावजूद पेड़ दिखाई नहीं पड़ रहे थे। इन हालात को देखते हुए मन में यह बात आई कि जब तक हम लोगों को भावनात्मक रूप से सक्रिय नहीं करेंगे, तब तक वृक्षारोपण जैसे कार्यक्रम सफल नहीं हो सकते। लोग भावनात्मक रूप से वृक्षारोपण से जुडेंग़े तो पेड़ लगाने के बाद उसके चारों ओर दीवार या बाड़ लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। लोग खुद ही उसकी सुरक्षा करेंगे। शुरु में अंधविश्वासों के कारण मुझे कुछ दिक्कतों का सामना करना पड़ा पर हमारी सही नीयत ने कमाल कर दिखाया। मैती बहनें तो सक्रिय हैं ही, गांव के आम लोग भी मैती से जुड़ते चले गए हैं।
एक युगल एक पेड़
मैती आंदोलन अब केवल विवाह के मौके पर दूल्हा-दुल्हन से वृक्ष लगाने तक सीमित नहीं रह गया है। इस आंदोलन के प्रणेता कल्याण सिंह रावत ने इस भावनात्मक आंदोलन को बहुमुखी बनाने में भी कामयाबी पाई है। अपने अनेक अभिनव प्रयोगों और गरीबों, विकलांगो, महिलाओं और छात्रों के बीच सामाजिक कार्यों के कारण मैती संगठन की पहचान सभी वर्गों के बीच बन गई है। इस संगठन ने वैलेंटाइन डे जैसे आयातित मौके को भी गुलाब फूल लेने-देने के प्रचलन से बाहर निकाल कर 'एक युगल एक पेड़Ó के कार्यक्रम से जोड़ दिया है। अब उत्तराखंड़ के गांव-गांव में वेलेंटाइन डे पर भी प्रेमी जोड़े अपने प्रेम की याद में पेड़ लगाते हैं।
मैती बहनों ने एक और भावनात्मक कार्यक्रम को अंजाम दिया। जब टॉस वन प्रभाग उत्तरकाशी में स्थित एशिया का सबसे बड़ा देवदार वृक्ष गिर गया तो उसकी याद में मैती बहनों ने इस पेड़ के महाप्रयाण पर एक भव्य औऱ शिक्षाप्रद क्रार्यक्रम का आयोजन किया। इस मौके पर जहां हजारों लोगों की मौजूदगी में महाप्रयाण किए देवदार वृक्ष को भावभीनी विदाई दी गई, वहीं उसकी जगह इसी जाति का एक नया पेड़ भी लगाया गया।
मैती बहनों ने पर्यावरण संरक्षण और वन्यप्राणियों की रक्षा के लिए कई नए मेलों का भी शुभारंभ किया जो आज भी हर वर्ष अपने समय पर आयोजित होते आ रहे हैं।
मैती बहनों ने पूरे उत्तराखंड में पर्यावरण संरक्षण के लिए वृक्षारोपण के अलावा वन्यजीवों की रक्षा के साथ अंधविश्वास के खिलाफ न सिर्फ चेतना जगाई बल्कि लंबा संघर्ष भी किया। चौरींखाल पौड़ी गढ़वाल में बूंखाल मेले के दौरान पशुवध के खिलाफ संघर्ष किया। संघर्ष का परिणाम यह हुआ है कि जहां हर वर्ष इस मेले में चार सौ भैंसों की बलि दी जाती थी, वहीं उनकी संख्या अब चालीस से भी कम हो गई है। इसी तरह विनसर और सरनौल क्षेत्रों में भी वन्य प्राणियों की रक्षा के अभियान चलाए गए। सरनौल में सौ से अधिक वन्यप्राणियों की रक्षा की गई। मैती संगठन ने पूरे उत्तराखंड में वन्य़प्राणियों के प्रति प्रेम पैदा करने के लिए आठ सौ किलोमीटर की महायात्रा का आयोजन किया और वन्य प्राणियों की रक्षा के लिए लोगों को जागरुक किया।
मैती बहनों ने रूद्रनाथ बुग्याल में जड़ी-बूटी दोहन के खिलाफ भी संघर्ष किया। चामोली गांवल में पाटला गांव को गोद लेकर उसे पूरी साक्षर बनाने में कामयाबी पाई। बांधों के कारण डूब गए टिहरी शहर की स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए डूबते समय तैंतीस ऐतिहासिक स्थलों की मिट्टी को लाकर स्वामी रामतीर्थ कॉलेज के हाल में उसे अलग-अलग गढ़ों में स्थापित किया गया और उस पर वृक्ष लगाए गए।
इसी तरह मैती बहनों ने राज्य सरकार की मदद से पंद्रह दिसंबर 2006 में सौ साल पूरा करने वाले एफआरआई देहरादून का शताब्दी समारोह मनाया। इस समारोह में राज्य भर के बारह लाख बच्चों के हस्ताक्षर युक्त दो किलोमीटर लंबे कपड़े से एफआरआई भवन को लपेटा गया। तत्कालीन राज्यपाल सुदर्शन अग्रवाल ने मुख्य अतिथि के रूप में कपड़े की गांठ बांधी और दो ऐतिहासिक वृक्षों का जलाभिषेक किया।
मैती बहनों ने पर्यावरण संरक्षण और वन्यप्राणियों की रक्षा के लिए कई नए मेलों का भी शुभारंभ किया जो आज भी हर वर्ष अपने समय पर आयोजित होते आ रहे हैं। ग्रामीणों के बीच स्वास्थ्य चेतना अभियान युवाओं के लिए खेलकूद और बेसहारों को सहारा देने के लिए भी अनेक कर्यक्रम संचालित होते रहे हैं। (www.रविवार.com)
1 comment:
Bahut badiya
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