छत्तीसगढ़ के अनूठे कल्याणी क्लब
-स्वप्ना मजूमदार
कल्याणी ‘क्लब’ बनाने के चार साल बाद सन् 2006 तक कुनरा गांव में पेचिश के मामलों में उल्लेखनीय कमी आ चुकी थी। कुनरा गांव ही नहीं पूरे राज्य में पेचिश बच्चों में फैलने वाली सबसे बड़ी बीमारी है। गांव में मलेरिया के मामले भी कम हो चुके हैं। अब यहां के ज्यादा से ज्यादा बच्चे पोलियो और अन्य टीकाकरण कार्यक्रमों के लिए नियमित रूप से स्वास्थ्य केंद्रों में लाए जाते हैं।
पैंतीस साल की सुनीति साहू गर्व से कहती हैं कि हमने यह सब इसलिए किया क्योंकि हम चाहते थे कि हमारे बच्चे स्वस्थ वातावरण में विकसित हों। वे कुनरा 'कल्याणी ‘क्लब’’ की अध्यक्ष हैं। वे कहती हैं कि पिछले दो सालों में गांव में मलेरिया का एक भी मामला सामने नहीं आया है।-स्वप्ना मजूमदार
छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले का एक छोटा सा गांव है कुनरा। यहां की कुछ महिलाओं को दूरदर्शन का कार्यक्रम 'कल्याणी’ इतना पसंद आया कि इससे प्रेरणा लेकर उन्होंने तय किया कि वे अपने गांव में फैली बीमारियों से लडऩे के लिए संगठित हो जाएंगी। स्वास्थ्य विषय पर आधारित दूरदर्शन का यह कार्यक्रम सप्ताह में दो बार प्रसारित होता है।
लेकिन इन महिलाओं को नहीं मालूम था कि वे किस तरह संगठित हो सकती हैं। इसीलिए उन्होंने कार्यक्रम के निर्माता से मुलाकात की। निर्माता ने उन्हें 'कल्याणी ‘क्लब’ बनाने का सुझाव दिया जिसके जरिए वे कल्याणी का संदेश लोगों तक पहुंचा सकती थीं। साथ ही वे 'कल्याणी’ में बताई जाने वाली स्वास्थ्य संबंधी जानकारियों को अमल में भी ला सकती थीं।कल्याणी ‘क्लब’ बनाने के चार साल बाद सन् 2006 तक कुनरा गांव में पेचिश के मामलों में उल्लेखनीय कमी आ चुकी थी। कुनरा गांव ही नहीं पूरे राज्य में पेचिश बच्चों में फैलने वाली सबसे बड़ी बीमारी है। गांव में मलेरिया के मामले भी कम हो चुके हैं। अब यहां के ज्यादा से ज्यादा बच्चे पोलियो और अन्य टीकाकरण कार्यक्रमों के लिए नियमित रूप से स्वास्थ्य केंद्रों में लाए जाते हैं।
हमारे इलाके के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के अधिकारी भी मानते हैं कि कल्याणी ‘क्लब’ के बिना यह संभव नहीं था। इतना ही नहीं पड़ोसी गांव की महिलाओं ने यह सुना कि किस तरह 'कल्याणी ‘क्लब’’ गांव में विकास और लोगों के स्वास्थ्य में सुधार ला रहा है तब वे भी ऐसे ही ‘क्लब’ बनाने के लिए उठ खड़ी हुईं। अब तक छत्तीसगढ़ के 16 जिलों में 300 'कल्याणी ‘क्लब’’ बनाए जा चुके हैं। प्रत्येक ‘क्लब’ में सदस्यों की संख्या कम से कम 25 है।
उषा भसीन कहती हैं कि ये ‘क्लब’ इन महिलाओं के जीवन का हिस्सा बन गए हैं। यह देखना सचमुच रोमांचक लगता है कि किस तरह ये महिलाएं परिवर्तन की प्रेरक बन गई हैं। 'कल्याणी’ कार्यक्रम की संकल्पना (कॉन्सेप्ट) उषा भसीन का है और वे इस श्रृंखला की निर्देशक (सीरिज डायरेक्टर) भी हैं।
'कल्याणी’ का मतलब है सभी का भला करने वाली देवी। यह कार्यक्रम देश के नौ राज्यों में प्रसारित होता है। इस कार्यक्रम के जरिए मलेरिया, टी. बी., तंबाकू सेवन के नुकसान, प्रसव समस्याएं, शारीरिक स्वच्छता तथा एचआईवी और एड्स जैसे स्वास्थ्य संबंधी विषयों के प्रति जागरूकता फैलाई जाती है। इस कार्यक्रम का निर्माण स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय तथा राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संस्था नेशन एड्स कंट्रोल आर्गनाइजेशन (एनएसीओ) द्वारा संयुक्त रूप से किया जाता है।उषा भसीन दूरदर्शन के डेवपमेंट कम्युनिकेशन डिवीजन (विकास संचार विभाग) की प्रमुख भी हैं। वे कहती हैं कि 'कल्याणी ‘क्लब’’ का उद्देश्य महिलाओं को एक मंच प्रदान करना था। खासतौर पर ऐसी महिलाओं को विकास प्रकिया में भागीदार बनाने के लिए जो कभी अपने घरों से बाहर नहीं निकली। ‘क्लब’ बनाने का विचार 'कल्याणी’ कार्यक्रम को जन- जन तक पहुंचाने की नीति का एक हिस्सा था। यह कार्यक्रम सन् 2002 में शुरू हुआ था। वे आगे कहती हैं कि दूरदर्शन एक माध्यम है। हम जानते थे कि इस माध्यम के जरिए हम लोगों के घरों तक पहुंच सकते हैं। लेकिन इस कार्यक्रम के संदेशों को अमलीजामा पहनाने के लिए हमें सहयोग की जरूरत थी। स्वास्थ्य संदेशों को लगातार दोहराते रहने के लिए ऐसे सहयोगी मिलना बहुत महत्वपूर्ण था जो लोगों के बीच रहकर काम करें। 'कल्याणी ‘क्लब’’ की महिलाओं ने नए.नए तरीकों से यह काम बखूबी कर दिखाया।
अट्ठाइस वर्षीय सुनीता विश्वकर्मा ने एक अनूठा तरीका अपनाया। वे दुर्ग जिले के रवेली गांव के 'कल्याणी ‘क्लब’’ की अध्यक्ष हैं। उन्होंने इन स्वास्थ्य संदेशों को राशन कार्डों के मुखपृष्ठों पर छपवा दिया। वे कहती हैं कि हमारे सभी सदस्य मेरी तरह घरेलू महिलांए हैं जो राशन कार्डों का उपयोग करती हैं। इसीलिए घर के हर सदस्य तक इन संदेशों को पहुंचाने का यह सबसे आसान और प्रभावी तरीका था ताकि घर का हर सदस्य इन संदेशों को पढ़ सके।
लेकिन वे सिर्फ राशन कार्डों पर ही नहीं रूकीं। सुनीता ने इस कार्यक्रम में सुना कि राज्य में उनके जिले में एचआईवी के मामले सबसे ज्यादा हैं। तभी उनके ‘क्लब’ के सदस्यों को समझ में आ गया कि उन्हें लोगों को पारंपरिक गोदना गुदवाने (टैटू बनवाने) से रोकना होगा। उन्हें पता था कि यह काम मुश्किल होगा। लेकिन उन्होंने घर-घर जाकर लोगों को समझाया कि गोदना गुदवाने में उपयोग की जाने वाली सुईयों से वे एचआईवी से संक्रमित हो सकते हैं क्योंकि इन्हें जीवाणुरहित नहीं किया जाता है। लोगों को समझाने और इस प्रथा को बंद करवाने में उन्हें महीनों लगे। इसके लिए वे बार-बार लोगों के घरों में गईं। वे बताती हैं कि हमारे लिए यह एक बड़ी उपब्धि थी। बिना कोई भ्रम पैदा किए हम उन्हें एचआईवी और एड्स के बारे में जानकारी देने में कामयाब हो गए।
'कल्याणी ‘क्लब’’ ने एचआईवी और एड्स जैसे विषयों को संवेदनशीलता के साथ लोगों तक पहुंचाया है। साथ ही वे गर्भवती महिलाओं और शिशुओं को स्तनपान कराने वाली महिलाओं की विशेष देखभाल सुनिश्चित करने में भी प्रभावी रहे हैं। उनके प्रयासों के कारण पूरे राज्य में शिशु तथा प्रसव के दौरान होने वाली महिलाओं की मृत्यु दर में कमी आई है। ‘क्लब’ के सदस्यों ने प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों की नर्सों को प्रेरित किया है कि वे महिलाओं को अस्पताल में प्रसव कराने पर जोर दें तथा उनकी विशेष देखभाल करें।
डॉ. मीरा बघेल के अनुसार बहुत ही कम महिलांए अस्पताल में प्रसव कराने का विकल्प अपनाती थीं। पहले यहां की महिलांए प्रसव पीड़ा कम करने के लिए गोबर पानी का उपयोग करती थीं। 'कल्याणी ‘क्लब’’ की महिलाओं की कोशिशों से अब गर्भवती महिलांए स्वास्थ्य केंद्रों में या फिर अस्पतालों में जाती हैं। इनके प्रयासों से शिशु मृत्यु दर में भी कमी आई है। जबकि अस्पताल में प्रसव कराने के मामलों में 20 से 30 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। डॉ. मीना हथबंध गांव के सामुदायिक विकास केंद्र में महिला रोग विशेषज्ञ हैं।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण- 3 (नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वेक्षण) के अनुसार छत्तीसगढ़ में ऐसी महिलाओं की संख्या 33.2 प्रतिशत (नेशन फैमिली हेल्थ सर्वेक्षण) से बढक़र 54.7 हो गई है जो अपनी अंतिम गर्भावस्था के दौरान तीन बार अस्पताल में जांच कराने आईं। जबकि अस्पताल में प्रसव कराने के मामले 13.8 (नेशन फैमिली हेल्थ सर्वेक्षण) से बढक़र 15.7 प्रतिशत हो गए हैं। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि छत्तीसगढ़ में प्रसव के दौरान महिलाओं की मृत्यु दर 379 है। जबकि राष्ट्री य स्तर पर यह दर 301 है। इसी तरह यहां (जीवित पैदा होने वो) प्रति 1000 शिशुओं में शिशु मृत्यु दर 61 है। जबकि (स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्राय 2007 के आंकड़ों के अनुसार) राष्ट्री य स्तर पर यह दर 57 है।
हालांकि इन आंकड़ों का पूरा श्रेय 'कल्याणी क्लबों’ को नहीं दिया जा सकता है। लेकिन इसके कुछ भाग का श्रेय उन्हें निश्चित रूप से दिया जा सकता है। यह कहना है प्रदीप पाठक का। वे रायपुर दूरदर्शन केंद्र में कल्याणी कार्यक्रम के निर्माता हैं। वे कहते हैं ऐसा इसलिए क्योंकि सभी 'कल्याणी क्लबों’ का कम से कम एक सदस्य 'मितानिन’ यानी सामुदायिक स्वास्थ्य कर्मचारी (कम्युनिटी हेल्थ वर्कर) है। हमने ‘क्लब’ के सदस्यों से कहा था कि वे ‘क्लब’ में एक मितानिन को शामि करें। यह हमारी रणनीति का एक हिस्सा था ताकि ये ‘क्लब’ लोगों तक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचा सकें। ऐसे गांवों में जहां 'मितानिन’ नहीं हैं, ‘क्लब’ अपने एक सदस्य को इसका प्रशिक्षण देने के लिए चुनते हैं। इस तरह उनकी विश्वसनीयता और योग्यता दोनों बढ़ती है।
कंदारका गांव के निवासी, 'कल्याणी ‘क्लब’’ के सदस्यों को डॉक्टरों के बराबर मानने लगे हैं। चौबीस वर्षीय दीपमाला दुविधा में थी कि वह बेटे की चाह में फिर मां बने या नहीं। उसने 'कल्याणी ‘क्लब’’ के सदस्यों से सलाह मांगी। 'कल्याणी ‘क्लब’’ के प्रति उसका विश्वास और बढ़ गया जब दूसरी बेटी के जन्म के बाद उसकी दादी सास ने उससे कहा कि वह ऑपरेशन करा ले। उसकी दादी सास भानुमती विश्वकर्मा सत्तर साल की हैं। उन्होंने 'कल्याणी ‘क्लब’’ के सदस्यों से सुन रखा था कि बेटी, बेटे से कम नहीं होती। इसीलिए उन्होंने दीपमाला से कहा कि बेटे की चाह में अपने स्वास्थ्य के प्रति खतरा मोल लेने की कोई जरूरत नहीं।
धनेश्वरी ठाकुर गांव में खेतिहर मजदूर का काम करती हैं। वह कहती है कि कल्याणी ‘क्लब’ के सदस्यों के बिना वह एक स्वस्थ बच्चे को जन्म नहीं दे पाती। इन सदस्यों ने दूसरी बार गर्भधारण के दौरान यह सुनिश्चित किया कि वह समय-समय पर सभी जरूरी टीके गवाए।
राष्ट्री य परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण- 3 के अनुसार पिछले पांच सालों में ऐसे बच्चों की संख्या दुगुनी हो गई है जिन्हें सभी प्रतिरोधक टीके गवाए गए हैं। पहले यह संख्या (राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण.2 के अनुसार) 21.8 प्रतिशत थी जो अब बढक़र 48.7 हो गई है। जन्म के एक घंटे के अंदर स्तनपान शुरु करने वाले तीन साल से कम उम्र के बच्चों की संख्या भी 21.6 प्रतिशत से बढक़र 24.5 प्रतिशत हो गई है।
दंतेवाड़ा जैसे नक्सल समस्या से प्रभावित इलाकों के गांव हों या बस्तर जैसे अविकसित क्षेत्र के गांव 'कल्याणी ‘क्लब’’ सभी गांव वासियों के जीवन में बदाव ला रहे हैं। वर्तमान में 10,000 से ज्यादा महिलांए 'कल्याणी क्लबों’ का उपयोग ऐसे मंचों के रूप में कर रही हैं जिसके जरिए वे राज्य में आ रहे परिवर्तन को स्थायित्व दे सकें। (वूमेन्स फीचर सर्विस)
1 comment:
ऐसे सराहनीय प्रयास को अपनी पत्रिका मे जगह देकर आपने निश्चीत ही एक उम्दा कार्य किया है!!आभार
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