कबीर पंथ-
झीनी- झीनी बीनी चदरिया
-संजीत त्रिपाठी
हिंदी के विद्वानों में इस बात को लेकर मतभिन्नता रही कि कबीर ने अपने नाम से किसी पंथ का प्रचलन किया या नहीं। डॉ के एन द्विवेदी ने अपना मत देते हुए लिखा है,"कबीरपंथ की कतिपय रचनाओं में इस बात का उल्लेख हुआ है कि कबीर ने अपने प्रधान शिष्य धनी धर्मदास को पंथ स्थापना का आदेश देकर उनके वंश को गद्दी का उत्तराधिकारी होने का आशीर्वाद दिया था"।
वहीं आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है,"कबीर ने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपंक्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया"।
लेकिन उपरोक्त कथनों के समक्ष यदि हम कबीर के अनासक्त व्यक्तित्व और जीवन चरित को देखें तो यह कहना सही नही लगता कि वे अपने नाम से स्वयं पंथ शुरु कर चलाएं हों। जो सभी पंथ एवं संप्रदाय को समाप्त कर शुद्ध मानवता का प्रकाश चाहता रहा हो वह खुद एक नया पंथ क्यों खड़ा करेगा। अत: हम यह कह सकते हैं कि कबीर के विचारों के अनुयायियों के लिए एक स्वतंत्र संप्रदाय एवं पंथ की रचना की आवश्यक्ता हुई होगी और यही कबीरपंथ के नाम से फलित हुआ।
'बीजक' कबीरपंथ का प्रामाणिक धर्मग्रंथ माना जाता है। इसमे कुछ ऐसे संकेत प्राप्त होते हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि कबीर पंथ स्थापना के कट्टर विरोधी थे, वे आचार्य या मठाधीश नही बनना चाहते थे। जैसा कि सर्वविदित है कबीर के शिष्यों की संख्या काफी थी। बताया जाता है कि इनमें से चार शिष्यों जागू साहेब,भगवान साहेब,श्रुतिगोपाल साहेब और धनी धर्मदास साहेब महत्वपूर्ण माने जाते हैं। इनके साथ ही दो और शिष्यों तत्वा और जीवा का नाम भी बड़े आदर के साथ लिया जाता है। संभवत: इन्ही शिष्यों ने मिलकर कबीर के नाम पर कबीर पंथ की स्थापना की होगी। प्रारंभ में यह संक्षिप्त स्वरूप में रहा होगा और आगे चलकर समय बीतने के साथ-साथ इस पंथ का स्वरूप अधिक बड़ा और व्यवस्था संपन्न होता चला गया।
कबीर पंथ की विविध शाखाएं-
कबीरपंथ का आविर्भाव तत्कालीन सामाजिक व धार्मिक व्यवस्था के प्रति विद्रोह का प्रतीक था। कबीरपंथ इस समय अनेक शाखाओं-उपशाखाओं में विभाजित है। इनमें से कुछ शाखाएं अपनी शुरुआत से ही स्वतंत्र हैं तो कुछ ऐसी है जो पहले स्वतंत्र शाखाओं से संबद्ध थी किन्तु बाद में संबंध विच्छेद कर लिया। कई ऐसी भी शाखाएं विद्यमान हैं जिनका संबंध कबीरपंथ से नही है लेकिन कबीरपंथी महात्मा इनका मूल स्त्रोत कबीर या कबीरपंथ से ही मानते हैं।
अभिलाष दास ने अपनी किताब 'कबीर दर्शन' में कबीरपंथ की चार शाखाओं का उल्लेख किया है। प्रथम श्री श्रुतिगोपाल साहेब,काशी कबीर चौरा। द्वितीय श्री भगवान साहेब कबीर मठ धनौती। तृतीय श्री जागू साहेब कबीरमठ विद्रुपुर और चतुर्थ श्री धर्मदास साहेब छत्तीसगढ़ी शाखा(वर्तमान में दामाखेड़ा)।
विस्तृत अध्ययन एवं निष्कर्षों के आधार पर कबीर पंथ की तीन ही प्रमुख शाखाएं मानी जाती हैं।
1- कबीर चौरा काशी
कबीर पंथ की शाखाओं में यह पहली शाखा मानी जाती है जिसकी स्थापना सूरत गोपाल (श्री श्रुतिगोपाल) ने की थी। इसकी शाखाएं पूरे भारत में फैली हैं जिसमें मुख्य रूप से लहरतारा,मगहर,बलुआ, गया,बड़ौदा,नड़ियाद,अहमदाबाद है।
2- कबीरपंथ की भगताही (धनौती) शाखा
बिहार के छपरा जिले में स्थित धनौती ग्राम में भगताही शाखा का प्रधान मठ है। इस शाखा के प्रथम आचार्य श्री भगवान साहेब थे। इसकी शाखाएं बिहार के साथ-साथ पूरे भारत में यहां-वहां फैली है जिनमें प्रमुख नौरंगा,मानसर,दामोदरपुर,चनाव(छपरा) शेखावना(बेतिया) तधवा,बड़हरवा,सवैया,बैजनाथ(मोतिहारी, लहेजी और तुर्की है।
3- कबीरपंथ की छत्तीसगढ़ी शाखा
इस शाखा के प्रवर्तक धनी धर्मदास जी थे। जिनका जन्म मध्यप्रदेश के रींवा जिले में बांधवगढ़ में हुआ था। पूर्व में मूर्तिपूजक वैष्णव मत के अनुयायी थे। प्रौढ़ावस्था में तीर्थयात्रा पर गए और वहीं मथुरा में इनकी मुलाकात कबीर से हुई। कबीर से प्रभावित होकर धर्मदास ने मूर्तिपूजा आदि छोड़ दी व उन्हें अपने घर बांधवगढ़ आमंत्रित किया, पत्नी व बच्चों सहित दीक्षा ले ली।
बताया जाता है कि जब धर्मदास साहेब ने जिनका दीक्षा से पूर्व नाम जुड़ावन प्रसाद था, बांधवगढ़ में संत समागम आयोजित किया था और वहां कबीर भी उनके आमंत्रण पर पधारे थे। इसी दौरान धर्मदास ने कबीर के कहे अनुसार अपने पूर्व गुरु रूपदास जी से इजाजत लेकर पत्नी सुलक्षणा देवी और बच्चों नारायणदास व चूरामणि समेत दीक्षा ली। दीक्षा के बाद सुलक्षणा देवी आमिन माता व चूरामनि, मुक्तामणि के नाम से जाने गए। कबीर नें धर्मदास को सारी संपत्ति दान करने के बाद ही धनी कहकर संबोधित किया तब से उन्हें धनी धर्मदास ही कहा जाने लगा।
कहते हैं कबीर ने धनी धर्मदास को पंथ की स्थापना का आशीर्वाद दिया और उनके लड़के मुक्तामणि(चूरामणि) को इस पंथ की वंशगद्दी का पहला आचार्य बताते हुए बयालिस वंश तक वंशगद्दी चलाने का आशीर्वाद दिया।
धर्मदास सुनियो चितलाई, तुम जनि शंका मानहू भाई।
हमरे पंथ चलाओ जाई, वंश बयालिस अटल अधिकाई।।
वंश बयालिस अंश हमारा, सोई समरथ वचन पुकारा।
वंश बयालिस गुरुवाई दीना, इतना वर हम तुमको दीना।।
और
मान बढ़ाई तुमको दीन्हा,जगत गुरु चूरामनि कीन्हा।
हमरो वचन चूरामनि सारा,वंश अश बयालिस अधिकारा॥
वहीं जब कबीर के समक्ष धर्मदास के मन में आने वाले बयालिस वंश के नाम जानने की जिज्ञासा हुई और उन्होने इस बारे में कबीर से पूछा तो कबीर ने उन्हें बयालिस वंश के नाम बताए।
वचन चूरामनि प्रथम कहि,बहुरि सुदर्शन नाम।
कुलपति नाम प्रमोध गुरू,नाम गुण धाम॥
नाम अमोल कहावपुनि,सूरति सनेही नाम।
हक्कनाम साहिब कहौ,पाकनाम परधाम॥
प्रकटनाम साहेब बहुरि,धीरज नाम कहुं फेर।
उग्रनाम साहिब कहूं,दयानाम कह टेर॥
गृन्धनाम साहिब तथा नाम प्रकाश कहाय।
उदित मुकुन्द बखानियो,अर्ध नार्म गुणगाय॥
ज्ञानी साहेब हंसमनि सुकृत नाम अज्रनाम।
रस अगरनाम गंगमनि पारसनाम अमीनाम॥
जागृतनाम अरू भृंगमणि अकह कंठमनि होय।
पुनि संतोषमनि कहूं,चातृक नाम गनोय।।
आदिनाम नेहनाम है,अज्रनामण महानाम।
पुनि निजनाम बखानिये,साहेब दास गुणधाम।
उधोदास करूणामय पुनि,दृगमनि हंस42।
मुक्तामणि धर्मदास के,विदित ब्यालिस वंश॥
ब्रम्हलीन मुनि, कबीर चरितम में कहते हैं कि धर्मदास साहेब के बड़े लड़के नारायण दास ने अपनी वंश गद्दी की स्थापना बांधवगढ़ में ही की जो कि नौ पीढ़ियों के बाद प्रभावशाली नही रही जबकि छोटे लड़के चूरामणि ने मुक्तामणि के नाम से अपनी वंशगद्दी की स्थापना छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के ग्राम कुदुरमाल में की जिसे वंशगद्दी परंपरा का मुख्य केंद्र माना गया है।
भारत में भिन्न-भिन्न स्थानों में स्थित इस शाखा के प्रसिद्ध मठों के नाम इस तरह हैं।
कुदुरमाल,रतनपुर,मण्डला, धमधा, कवर्धा, दामाखेड़ा,बमनी,हरदी,धनौरा,कबीर मन्दिर मऊ,सहनिया(छतरपुर),सिंघोड़ी,छोटी बड़ैनी(दतिया) कबीर मन्दिर(नानापेट पूना),गरौठा(बुन्देलखण्ड),कबीर आश्रम जामनगर,दार्गिया मुहल्ला सूरत,लाल दरवाजा (सूरत), कबीर मन्दिर सीनाबाग बड़ौदा,अहमदाबाद,खैरा(बिहार),खांपा(नागपुर),बंगलौर,जालौन व खरसिया जहां कि विक्रम संवत 1990 में नादवंश स्थापित हुआ।
कुदुरमाल से कवर्धा और फिर दामाखेड़ा का सफर
कुदुरमाल के बाद गद्दियां रतनपुर, मंडला, धमधा, सिगोढ़ी, कवर्धा आदि में स्थापित हुई। अंतत: बारहवें महंत उग्रमुनि नाम साहेब ने विक्रम संवत् १९५३ में रायपुर जिले के दामाखेड़ा में मठ स्थापित किया।
तथ्य यह भी है कि कबीरपंथ के आठवें वंशाचार्य श्री हक्कनाम साहेब ने कवर्धा में वंशगद्दी स्थापित की। कवर्धा गद्दी पर उनके बाद उनके बेटे पाकनाम साहेब ने गद्दी संभाली फिर प्रगटनाम साहेब और धीरजनाम साहेब ने संभाली। इसी दौरान कवर्धा वंशगद्दी के लिए दादी साहेब उर्फ धीरजनाम साहेब(प्रगटनाम साहेब के भतीजे) और उग्रनाम साहेब के बीच बम्बई हाई कोर्ट में मुकदमा चला जिसमें जीत धीरजनाम साहेब की हुई। अर्थात कवर्धा गद्दी के उत्तराधिकारी धीरजनाम साहेब हुए। मुकदमा हार जाने के बाद उग्रनाम साहेब ने कवर्धा छोड़ दिया और रायपुर जिले के दामाखेड़ा में धर्मगद्दी का स्थानांतरण कर दिया। उग्रनाम साहेब के समय से ही छत्तीसगढ़ मे कबीरपंथ के अनुयायियों की संख्या कवर्धा आदि गद्दी की बजाय दामाखेड़ा गद्दी की ओर झुकती गई और अब यह सबसे प्रमुख केंद्र है।
दामाखेड़ा में कबीरपंथ वंशगद्दी की स्थापना के लिए ग्राम दामाखेड़ा को तब 14000 रूपए में बेमेतरा के कुर्मी भक्तों ने खरीदा था। यहां हर साल माघ शुक्ल दशमी से पूर्णिमा तक विशाल संत समागम व मेला का आयोजन होता है जिसमें देश-विदेश से श्रद्धालु-भक्त-व कबीर प्रेमी पहुंचते हैं।
दामाखेड़ा में वंशगद्दी की स्थापना बारहवें गुरु उग्रनाम साहेब ने की जिसमें आगे चलकर चौदहवें गुरु गृन्धमुनि साहेब भी हुए जिन्होने 18 फरवरी 1992 तक गद्दी संभाली। कहते हैं कि गृन्धमुनि साहेब के समय में छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ ने जितनी प्रगति की उतनी अन्य किसी आचार्य के समय में नही हुई। वर्तमान में पंद्रहवें वंशाचार्य श्री प्रकाशमुनि साहेब हैं।
1982-85 के एक सर्वेक्षण के अनुसार विभिन्न शाखाओं के कबीरपंथ के अनुयायियों की संख्या देश भर में 96 लाख थी जिसका सबसे बड़ा हिस्सा दामाखेड़ा वंशगद्दी का 33.5 फीसदी था। अर्थात कबीरपंथ की सभी शाखाओं में छत्तीसगढ़ी शाखा दामाखेड़ा गद्दी का प्रचार क्षेत्र सबसे बड़ा है और पंथ प्रचार में इसे सर्वाधिक सफलता मिली है।
वेद पुराण सब झूठ है,हमने इसमें पोल देखा।
अनुभव की बात कहे कबीरा,घट का परदा खोल देखा॥
छत्तीसगढ़ में धनी धर्मदास द्वारा स्थापित कबीरपंथ की वंशगद्दी में अब तक चौदह गुरु हो चुके हैं तथा वर्तमान में पंद्रहवें आचार्य गद्दी पर विराजमान हैं जिनका ब्यौरा इस तरह है-
1- मुक्तामणि नाम साहेब विक्रम संवत 1538 से 1630
2- सुदर्शन नाम साहेब विक्रम संवत 1595 से 1630
3- कुलपत नाम साहेब विक्रम संवत 1652 से 1690
4- प्रमोद गुरु बालापीर साहेब विक्रम संवत 1728 से 1750
5- केवल नाम साहेब विक्रम संवत 1760 से 1775
6- अमोल नाम साहेब विक्रम संवत 1782 से 1825
7- सुरत सनेही नाम साहेब विक्रम संवत 1802 से 1853
8- हक्क नाम साहेब विक्रम संवत 1835 से 1890
9- पाक नाम साहेब विक्रम संवत 1855 से 1912
10- प्रकट नाम साहेब विक्रम संवत 1875 से 1939
11-धीरज नाम साहेब विक्रम संवत 1899 से 1937
(धीरज नाम साहेब गद्दीनशीन नही हुए क्योंकि इनका सतलोक गमन प्रकटनाम साहेब से पहले ही हो गया था)
12- उग्रनाम साहेब विक्रम संवत 1929 से संवत 1971
13- दया नाम साहेब विक्रम संवत 1956 से 1984
14- गृन्धमुनि नाम साहेब विक्रम संवत 1922( सन 1935 ) से सन 1992 तक
15- प्रकाश मुनि नाम साहेब जिनका जन्म हुआ सन 1967 में, 1990 में गद्दीनशीन हुए व वर्तमान में यही दामाखेड़ा के पंद्रहवें वंशगद्दी आचार्य हैं।
वेद पुराण सब झूठ है,हमने इसमें पोल देखा।
अनुभव की बात कहे कबीरा,घट का परदा खोल देखा॥
छत्तीसगढ़ में धनी धर्मदास द्वारा स्थापित कबीरपंथ की वंशगद्दी में अब तक चौदह गुरु हो चुके हैं तथा वर्तमान में पंद्रहवें आचार्य गद्दी पर विराजमान हैं जिनका ब्यौरा इस तरह है-
1- मुक्तामणि नाम साहेब विक्रम संवत 1538 से 1630
2- सुदर्शन नाम साहेब विक्रम संवत 1595 से 1630
3- कुलपत नाम साहेब विक्रम संवत 1652 से 1690
4- प्रमोद गुरु बालापीर साहेब विक्रम संवत 1728 से 1750
5- केवल नाम साहेब विक्रम संवत 1760 से 1775
6- अमोल नाम साहेब विक्रम संवत 1782 से 1825
7- सुरत सनेही नाम साहेब विक्रम संवत 1802 से 1853
8- हक्क नाम साहेब विक्रम संवत 1835 से 1890
9- पाक नाम साहेब विक्रम संवत 1855 से 1912
10- प्रकट नाम साहेब विक्रम संवत 1875 से 1939
11-धीरज नाम साहेब विक्रम संवत 1899 से 1937
(धीरज नाम साहेब गद्दीनशीन नही हुए क्योंकि इनका सतलोक गमन प्रकटनाम साहेब से पहले ही हो गया था)
12- उग्रनाम साहेब विक्रम संवत 1929 से संवत 1971
13- दया नाम साहेब विक्रम संवत 1956 से 1984
14- गृन्धमुनि नाम साहेब विक्रम संवत 1922( सन 1935 ) से सन 1992 तक
15- प्रकाश मुनि नाम साहेब जिनका जन्म हुआ सन 1967 में, 1990 में गद्दीनशीन हुए व वर्तमान में यही दामाखेड़ा के पंद्रहवें वंशगद्दी आचार्य हैं।
मै कहता सुरझावन हारी,तू राख्यो अरुझाई रे।
मै कहता तू जागत रहियो, तू जाता है सोई रे।।
वह बातें जो छत्तीसगढ़ के कबीरपंथ की पहचान हैं
1- छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ के अंतर्गत यहां एक विशिष्ठ प्रकार की मठ व्यवस्था प्रचलित है।
2- गुरु की संतान गद्दी की उत्तराधिकारी होती है।
3- अधिकांश कबीरपंथी श्वेत वस्त्र धारण करते हैं क्योंकि उनन्के अनुसार यह आभ्यांतरिक शुद्धि और ज्ञान का प्रतीक है।
4- कबीरपंथी धोती व अचला धारण करना त्यागी और निरक्त जीवन का चिन्ह मानते हैं। ये गले में तुलसी की माला धारण करते हैं, औरतें भी कण्ठी धारण करती हैं।
5- कबीरपंथी द्वादश तिलक लगाते हैं। यह तिलक न्यायपूर्ण जीवन का प्रतीक माना जाता है।
6- कबीरपंथी अपने महात्मा या गुरुओं को तीन बार बंदगी करते है।
7- छत्तीसगढ़ी कबीरपंथी शाखा में पूर्णिमा का विशेष महत्व है। उनका यह विश्वास है कि जो व्यक्ति पूर्णिमा के दिन यह व्रत रखते है उन्हें ॠद्धि-सिद्धि, भक्ति व मुक्ति प्राप्त होती है।
8- चौका आरती को कबीरपंथ में महत्वपूर्ण विधान माना जाता है।
9- कबीरपंथ के अनुसार शव को पृथ्वी में गाड़ देने का विधान है व इसके लिए विशेष विधि प्रचलित है।
मै कहता सुरझावन हारी,तू राख्यो अरुझाई रे।
मै कहता तू जागत रहियो, तू जाता है सोई रे।।
वह बातें जो छत्तीसगढ़ के कबीरपंथ की पहचान हैं
1- छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ के अंतर्गत यहां एक विशिष्ठ प्रकार की मठ व्यवस्था प्रचलित है।
2- गुरु की संतान गद्दी की उत्तराधिकारी होती है।
3- अधिकांश कबीरपंथी श्वेत वस्त्र धारण करते हैं क्योंकि उनन्के अनुसार यह आभ्यांतरिक शुद्धि और ज्ञान का प्रतीक है।
4- कबीरपंथी धोती व अचला धारण करना त्यागी और निरक्त जीवन का चिन्ह मानते हैं। ये गले में तुलसी की माला धारण करते हैं, औरतें भी कण्ठी धारण करती हैं।
5- कबीरपंथी द्वादश तिलक लगाते हैं। यह तिलक न्यायपूर्ण जीवन का प्रतीक माना जाता है।
6- कबीरपंथी अपने महात्मा या गुरुओं को तीन बार बंदगी करते है।
7- छत्तीसगढ़ी कबीरपंथी शाखा में पूर्णिमा का विशेष महत्व है। उनका यह विश्वास है कि जो व्यक्ति पूर्णिमा के दिन यह व्रत रखते है उन्हें ॠद्धि-सिद्धि, भक्ति व मुक्ति प्राप्त होती है।
8- चौका आरती को कबीरपंथ में महत्वपूर्ण विधान माना जाता है।
9- कबीरपंथ के अनुसार शव को पृथ्वी में गाड़ देने का विधान है व इसके लिए विशेष विधि प्रचलित है।
जात न पूछौ साधु की, जो पूछौ तो ज्ञान।
मोल करो तलवार का, परा रहन दो म्यान।।
कबीरपंथ की कुछ शाखाओं में चौका आरती का विधान है और इसे मोक्ष साधन के लिए जरुरी माना जाता है। चौका आरती को कबीरपंथ का सात्विक यज्ञ भी कहा जाता है। आम तौर पर कबीरपंथ की चौका आरती के बारे में तो बहुतों ने सुना पढ़ा होता है लेकिन इसके अलावा और भी कुछ परंपराएं या रिवाज़ हैं। आईए देखें कि दामाखेड़ा में कबीरपंथ की और क्या परंपराएं या रिवाज़ हैं।
1-दीक्षित करने की विधि
2-पूर्णिमा व्रत
3-चौका विधान- इसके अंतर्गत
-आनंदी चौका
-जन्मौती या सोलह सुत का चौका
-चलावा चौका
-एकोत्तरी चौका
4-अंत्येष्टि क्रिया
5-नित्य कर्म विधि
6-द्वादश तिलक
इसमें से हम अंत्येष्टि क्रिया और द्वादश तिलक के बारे मे थोड़ी चर्चा पहले ही कर चुके हैं अत: इनके विस्तार में न जाकर चौका आरती के के बारे में बात करते हैं।
चौका आरती की विधि केवल महंत ही संपन्न करवा सकते हैं। चौका करने के लिए जिस प्रकार किसी महंत की नियुक्ति आवश्यक है ,उसी प्रकार सर्व सामग्री को यथास्थान स्थापित करने के और चौके के कार्य में महंत को सहयोग देने के लिए दीवान का होना भी जरुरी है। चौका बनाने के सभी 'सुमिरन' दीवान को और महंत द्वारा किए जाने वाले चौका संबंधी कार्यों के समस्त सुमिरन महंत को कंठस्थ होने चाहिए । लग्नतत्व स्वरोदय और पान पहचाननें का ज्ञान भी महंत के लिए अपेक्षित है।
कबीर माला काठ की, कहि समझावे तोहि।
मन ना फिरावै आपनों, कहा फिरावै मोहि।।
आनंदी चौका- किसी नवीन व्यक्ति के कबीरपंथ में दीक्षित होने के समय य आ अन्य प्रकार के आनंदोत्सव के निमित्त यह चौका कराया जाता है।
जन्मौती या सोलह सुत का चौका- संतान प्राप्ति की कामना अथवा पुत्र जन्म के उपलक्ष्य में यह चौका संपादित होता है।
चलावा चौका- मृत व्यक्ति की आत्मा की शांति के लिए चलावा चौका की विधि की जाती है।
एकोत्तरी चौका- जो विधि एक सौ एक पूर्वजों के शांति के लिए की जाती है उसे एकोत्तरी चौका कहा जाता है।
मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठ का जाई।
कोयला होई न ऊजरो, नव मन साबुन लाई।।
लंबा मारग, दूरि घर, विकट पंथ, बहु मार।
कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार॥
कबीर और धनी धर्मदास की स्मृति में दामाखेड़ा में हर साल आयोजित होने वाला 'संत समागम समारोह' खासा महत्व रखता है। इसमें हिस्सा लेने के लिए देश विदेश से कबीरपंथ के अनुयायी पहुंचते हैं।
इस समारोह के दौरान कार्यक्रम को इस तरह बांटा गया है।
1-बसंत पंचमी (गुलाल-उत्सव)
2-संत समागम
3-भेंट बंदगी
4-सत्संग सभा
5-पंथश्री का प्रवचन
6-पूनों महात्म्य पाठ
7-आनंदी चौका आरती(सात्विक यज्ञ)
8-सामूहिक चलावा चौका
9-सामूहिक दीक्षांत समारोह व पंजा वितरण
आईए देखें दामाखेड़ा के कुछ चित्र
`कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ।
हरि बिन अपना कोउ नहीं, देखे ठोकि बजाइ॥
`कबीर' कलिजुग आइ करि, कीये बहुत जो मीत ।
जिन दिलबाँध्या एक सूं, ते सुखु सोवै निचींत ॥
कामी लज्या ना करै, मन माहें अहिलाद ।
नींद न मांगै सांथरा, भूख न मांगै स्वाद ॥
माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाइ ।
ताली पीटै सिरि धुनैं, मीठैं बोई माइ ॥
घूँघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे।
घट-घट मे वह सांई रमता, कटुक वचन मत बोल रे॥
धन जोबन का गरब न कीजै, झूठा पचरंग चोल रे।
सुन्न महल मे दियना बारिले, आसन सों मत डोल रे।।
जागू जुगुत सों रंगमहल में, पिय पायो अनमोल रे।
कह कबीर आनंद भयो है, बाजत अनहद ढोल रे॥
जाति-पांति पूछै न कोई।
हरि का भजै सो हरि का होई॥
छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ ने सर्वाधिक प्रभाव निचली या पिछड़ी जातियों पर ही डाला,लेकिन ऐसा नही है कि उच्च या सवर्णों पर कबीरपंथ का प्रभाव पड़ा ही नही। अब तक हुए वंशगद्दी आचार्यों में से एक-दो का विवाह ब्राम्हणी कन्या से होने का उल्लेख मिलता है। किसी ब्राम्हणी कन्या का विवाह किसी कबीरपंथी से होना तभी संभव प्रतीत होता है जब वह ब्राम्हण परिवार स्वयं भी कबीरपंथ का अनुयायी हो। दर-असल कबीरपंथ जब छत्तीसगढ़ में अपने पांव पसार रहा था तब की सामाजिक स्थिति ऐसी थी कि निचली जातियां सवर्णों से प्रताड़ित थीं और जाति-पांति का बंधन बहुत ज्यादा था। इसलिए कबीरपंथ के अनुयायी वही ज्यादा बने। जैसे कि सिदार,ढीमर, तेली,अहीर, लोधी, कुम्हार, रावत,पटवा, साहू,वैश्य,कुर्मी,कोष्टा और मानिकपुरी जिसे पनका या पनिका भी कहा जाता है। इनमें एक दोहा प्रचलित है।
पानी से पनिका भये,बूंदों रचा शरीर।
आगे-आगे पनका गये,पाछे दास कबीर।।
उनकी मान्यता है कि पनिका का उद्भव पानी से हुआ है - उनका शरीर पानी से बना है। पनिका मार्ग का नेतृत्व करते हैं और संत कबीर उनका अनुशरण। लगभग सभी पनिका कबीर पंथी हैं। पनिका शब्द की उत्पत्ति (पानी + का) से हुआ है। जैसा कि जाना जाता है जनमते ही मां ने कबीर को त्याग दिया था। मां ने एक पत्ते से कबीर को लपेटकर एक तालाब के पास छोड़ दिया था। बच्चे के रोने की आवाज सुनकर किसी और मां ने उठा लिया और उसने अपनी संतान की तरह उन्हें पाला -पोसा। क्योंकि वह शिशु पानी की सतह पर मिला था, जो आगे चलकर कबीर के नाम से प्रसिद्ध हुआ, इसलिए पनिका अपने को पनिका (पानी + का) कहने में गर्व का अनुभव करते हैं।
हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?
खलक सब नाम अनपे को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?
न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?
कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?
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बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार ।
दुहुं चूका रीता पड़ैं , वाकूं वार न पार ॥1॥
`कबीर' हरि के नाव सूं, प्रीति रहै इकतार ।
तो मुख तैं मोती झड़ैं, हीरे अन्त न फार ॥2॥
ऐसी बाणी बोलिये, मन का आपा खोइ ।
अपना तन सीतल करै, औरन को सुख होइ ॥3॥
कोइ एक राखै सावधां, चेतनि पहरै जागि ।
बस्तर बासन सूं खिसै, चोर न सकई लागि ॥4॥
जग में बैरी कोइ नहीं, जो मन सीतल होइ ।
या आपा को डारिदे, दया करै सब कोइ ॥5॥
आवत गारी एक है, उलटत होइ अनेक ।
कह `कबीर' नहिं उलटिए, वही एक की एक ॥6॥
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अरे दिल,
प्रेम नगर का अंत न पाया, ज्यों आया त्यों जावैगा।।
सुन मेरे साजन सुन मेरे मीता, या जीवन में क्या क्या बीता।।
सिर पाहन का बोझा लीता, आगे कौन छुड़ावैगा।।
परली पार मेरा मीता खडि़या, उस मिलने का ध्यान न धरिया।।
टूटी नाव, उपर जो बैठा, गाफिल गोता खावैगा।।
दास कबीर कहैं समझाई, अंतकाल तेरा कौन सहाई।।
चला अकेला संग न कोई, किया अपना पावैगा।
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रहना नहीं देस बिराना है।
यह संसार कागद की पुडि़या, बूँद पड़े घुल जाना है।
यह संसार कॉंट की बाड़ी, उलझ-पुलझ मरि जाना है।
यह संसार झाड़ और झॉंखर, आग लगे बरि जाना है।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, सतगुरू नाम ठिकाना है।
रचना स्त्रोत
1-छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ का ऐतिहासिक अनुशीलन-डॉ चंद्रकिशोर तिवारी
2-कबीर धर्मनगर दामाखेड़ा वंशगद्दी का इतिहास-डॉ कमलनयन पटेल
झीनी- झीनी बीनी चदरिया
-संजीत त्रिपाठी
हिंदी के विद्वानों में इस बात को लेकर मतभिन्नता रही कि कबीर ने अपने नाम से किसी पंथ का प्रचलन किया या नहीं। डॉ के एन द्विवेदी ने अपना मत देते हुए लिखा है,"कबीरपंथ की कतिपय रचनाओं में इस बात का उल्लेख हुआ है कि कबीर ने अपने प्रधान शिष्य धनी धर्मदास को पंथ स्थापना का आदेश देकर उनके वंश को गद्दी का उत्तराधिकारी होने का आशीर्वाद दिया था"।
वहीं आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है,"कबीर ने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपंक्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया"।
लेकिन उपरोक्त कथनों के समक्ष यदि हम कबीर के अनासक्त व्यक्तित्व और जीवन चरित को देखें तो यह कहना सही नही लगता कि वे अपने नाम से स्वयं पंथ शुरु कर चलाएं हों। जो सभी पंथ एवं संप्रदाय को समाप्त कर शुद्ध मानवता का प्रकाश चाहता रहा हो वह खुद एक नया पंथ क्यों खड़ा करेगा। अत: हम यह कह सकते हैं कि कबीर के विचारों के अनुयायियों के लिए एक स्वतंत्र संप्रदाय एवं पंथ की रचना की आवश्यक्ता हुई होगी और यही कबीरपंथ के नाम से फलित हुआ।
'बीजक' कबीरपंथ का प्रामाणिक धर्मग्रंथ माना जाता है। इसमे कुछ ऐसे संकेत प्राप्त होते हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि कबीर पंथ स्थापना के कट्टर विरोधी थे, वे आचार्य या मठाधीश नही बनना चाहते थे। जैसा कि सर्वविदित है कबीर के शिष्यों की संख्या काफी थी। बताया जाता है कि इनमें से चार शिष्यों जागू साहेब,भगवान साहेब,श्रुतिगोपाल साहेब और धनी धर्मदास साहेब महत्वपूर्ण माने जाते हैं। इनके साथ ही दो और शिष्यों तत्वा और जीवा का नाम भी बड़े आदर के साथ लिया जाता है। संभवत: इन्ही शिष्यों ने मिलकर कबीर के नाम पर कबीर पंथ की स्थापना की होगी। प्रारंभ में यह संक्षिप्त स्वरूप में रहा होगा और आगे चलकर समय बीतने के साथ-साथ इस पंथ का स्वरूप अधिक बड़ा और व्यवस्था संपन्न होता चला गया।
कबीर पंथ की विविध शाखाएं-
कबीरपंथ का आविर्भाव तत्कालीन सामाजिक व धार्मिक व्यवस्था के प्रति विद्रोह का प्रतीक था। कबीरपंथ इस समय अनेक शाखाओं-उपशाखाओं में विभाजित है। इनमें से कुछ शाखाएं अपनी शुरुआत से ही स्वतंत्र हैं तो कुछ ऐसी है जो पहले स्वतंत्र शाखाओं से संबद्ध थी किन्तु बाद में संबंध विच्छेद कर लिया। कई ऐसी भी शाखाएं विद्यमान हैं जिनका संबंध कबीरपंथ से नही है लेकिन कबीरपंथी महात्मा इनका मूल स्त्रोत कबीर या कबीरपंथ से ही मानते हैं।
अभिलाष दास ने अपनी किताब 'कबीर दर्शन' में कबीरपंथ की चार शाखाओं का उल्लेख किया है। प्रथम श्री श्रुतिगोपाल साहेब,काशी कबीर चौरा। द्वितीय श्री भगवान साहेब कबीर मठ धनौती। तृतीय श्री जागू साहेब कबीरमठ विद्रुपुर और चतुर्थ श्री धर्मदास साहेब छत्तीसगढ़ी शाखा(वर्तमान में दामाखेड़ा)।
विस्तृत अध्ययन एवं निष्कर्षों के आधार पर कबीर पंथ की तीन ही प्रमुख शाखाएं मानी जाती हैं।
1- कबीर चौरा काशी
कबीर पंथ की शाखाओं में यह पहली शाखा मानी जाती है जिसकी स्थापना सूरत गोपाल (श्री श्रुतिगोपाल) ने की थी। इसकी शाखाएं पूरे भारत में फैली हैं जिसमें मुख्य रूप से लहरतारा,मगहर,बलुआ, गया,बड़ौदा,नड़ियाद,अहमदाबाद है।
2- कबीरपंथ की भगताही (धनौती) शाखा
बिहार के छपरा जिले में स्थित धनौती ग्राम में भगताही शाखा का प्रधान मठ है। इस शाखा के प्रथम आचार्य श्री भगवान साहेब थे। इसकी शाखाएं बिहार के साथ-साथ पूरे भारत में यहां-वहां फैली है जिनमें प्रमुख नौरंगा,मानसर,दामोदरपुर,चनाव(छपरा) शेखावना(बेतिया) तधवा,बड़हरवा,सवैया,बैजनाथ(मोतिहारी, लहेजी और तुर्की है।
3- कबीरपंथ की छत्तीसगढ़ी शाखा
इस शाखा के प्रवर्तक धनी धर्मदास जी थे। जिनका जन्म मध्यप्रदेश के रींवा जिले में बांधवगढ़ में हुआ था। पूर्व में मूर्तिपूजक वैष्णव मत के अनुयायी थे। प्रौढ़ावस्था में तीर्थयात्रा पर गए और वहीं मथुरा में इनकी मुलाकात कबीर से हुई। कबीर से प्रभावित होकर धर्मदास ने मूर्तिपूजा आदि छोड़ दी व उन्हें अपने घर बांधवगढ़ आमंत्रित किया, पत्नी व बच्चों सहित दीक्षा ले ली।
बताया जाता है कि जब धर्मदास साहेब ने जिनका दीक्षा से पूर्व नाम जुड़ावन प्रसाद था, बांधवगढ़ में संत समागम आयोजित किया था और वहां कबीर भी उनके आमंत्रण पर पधारे थे। इसी दौरान धर्मदास ने कबीर के कहे अनुसार अपने पूर्व गुरु रूपदास जी से इजाजत लेकर पत्नी सुलक्षणा देवी और बच्चों नारायणदास व चूरामणि समेत दीक्षा ली। दीक्षा के बाद सुलक्षणा देवी आमिन माता व चूरामनि, मुक्तामणि के नाम से जाने गए। कबीर नें धर्मदास को सारी संपत्ति दान करने के बाद ही धनी कहकर संबोधित किया तब से उन्हें धनी धर्मदास ही कहा जाने लगा।
कहते हैं कबीर ने धनी धर्मदास को पंथ की स्थापना का आशीर्वाद दिया और उनके लड़के मुक्तामणि(चूरामणि) को इस पंथ की वंशगद्दी का पहला आचार्य बताते हुए बयालिस वंश तक वंशगद्दी चलाने का आशीर्वाद दिया।
धर्मदास सुनियो चितलाई, तुम जनि शंका मानहू भाई।
हमरे पंथ चलाओ जाई, वंश बयालिस अटल अधिकाई।।
वंश बयालिस अंश हमारा, सोई समरथ वचन पुकारा।
वंश बयालिस गुरुवाई दीना, इतना वर हम तुमको दीना।।
और
मान बढ़ाई तुमको दीन्हा,जगत गुरु चूरामनि कीन्हा।
हमरो वचन चूरामनि सारा,वंश अश बयालिस अधिकारा॥
वहीं जब कबीर के समक्ष धर्मदास के मन में आने वाले बयालिस वंश के नाम जानने की जिज्ञासा हुई और उन्होने इस बारे में कबीर से पूछा तो कबीर ने उन्हें बयालिस वंश के नाम बताए।
वचन चूरामनि प्रथम कहि,बहुरि सुदर्शन नाम।
कुलपति नाम प्रमोध गुरू,नाम गुण धाम॥
नाम अमोल कहावपुनि,सूरति सनेही नाम।
हक्कनाम साहिब कहौ,पाकनाम परधाम॥
प्रकटनाम साहेब बहुरि,धीरज नाम कहुं फेर।
उग्रनाम साहिब कहूं,दयानाम कह टेर॥
गृन्धनाम साहिब तथा नाम प्रकाश कहाय।
उदित मुकुन्द बखानियो,अर्ध नार्म गुणगाय॥
ज्ञानी साहेब हंसमनि सुकृत नाम अज्रनाम।
रस अगरनाम गंगमनि पारसनाम अमीनाम॥
जागृतनाम अरू भृंगमणि अकह कंठमनि होय।
पुनि संतोषमनि कहूं,चातृक नाम गनोय।।
आदिनाम नेहनाम है,अज्रनामण महानाम।
पुनि निजनाम बखानिये,साहेब दास गुणधाम।
उधोदास करूणामय पुनि,दृगमनि हंस42।
मुक्तामणि धर्मदास के,विदित ब्यालिस वंश॥
ब्रम्हलीन मुनि, कबीर चरितम में कहते हैं कि धर्मदास साहेब के बड़े लड़के नारायण दास ने अपनी वंश गद्दी की स्थापना बांधवगढ़ में ही की जो कि नौ पीढ़ियों के बाद प्रभावशाली नही रही जबकि छोटे लड़के चूरामणि ने मुक्तामणि के नाम से अपनी वंशगद्दी की स्थापना छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के ग्राम कुदुरमाल में की जिसे वंशगद्दी परंपरा का मुख्य केंद्र माना गया है।
भारत में भिन्न-भिन्न स्थानों में स्थित इस शाखा के प्रसिद्ध मठों के नाम इस तरह हैं।
कुदुरमाल,रतनपुर,मण्डला, धमधा, कवर्धा, दामाखेड़ा,बमनी,हरदी,धनौरा,कबीर मन्दिर मऊ,सहनिया(छतरपुर),सिंघोड़ी,छोटी बड़ैनी(दतिया) कबीर मन्दिर(नानापेट पूना),गरौठा(बुन्देलखण्ड),कबीर आश्रम जामनगर,दार्गिया मुहल्ला सूरत,लाल दरवाजा (सूरत), कबीर मन्दिर सीनाबाग बड़ौदा,अहमदाबाद,खैरा(बिहार),खांपा(नागपुर),बंगलौर,जालौन व खरसिया जहां कि विक्रम संवत 1990 में नादवंश स्थापित हुआ।
कुदुरमाल से कवर्धा और फिर दामाखेड़ा का सफर
कुदुरमाल के बाद गद्दियां रतनपुर, मंडला, धमधा, सिगोढ़ी, कवर्धा आदि में स्थापित हुई। अंतत: बारहवें महंत उग्रमुनि नाम साहेब ने विक्रम संवत् १९५३ में रायपुर जिले के दामाखेड़ा में मठ स्थापित किया।
तथ्य यह भी है कि कबीरपंथ के आठवें वंशाचार्य श्री हक्कनाम साहेब ने कवर्धा में वंशगद्दी स्थापित की। कवर्धा गद्दी पर उनके बाद उनके बेटे पाकनाम साहेब ने गद्दी संभाली फिर प्रगटनाम साहेब और धीरजनाम साहेब ने संभाली। इसी दौरान कवर्धा वंशगद्दी के लिए दादी साहेब उर्फ धीरजनाम साहेब(प्रगटनाम साहेब के भतीजे) और उग्रनाम साहेब के बीच बम्बई हाई कोर्ट में मुकदमा चला जिसमें जीत धीरजनाम साहेब की हुई। अर्थात कवर्धा गद्दी के उत्तराधिकारी धीरजनाम साहेब हुए। मुकदमा हार जाने के बाद उग्रनाम साहेब ने कवर्धा छोड़ दिया और रायपुर जिले के दामाखेड़ा में धर्मगद्दी का स्थानांतरण कर दिया। उग्रनाम साहेब के समय से ही छत्तीसगढ़ मे कबीरपंथ के अनुयायियों की संख्या कवर्धा आदि गद्दी की बजाय दामाखेड़ा गद्दी की ओर झुकती गई और अब यह सबसे प्रमुख केंद्र है।
दामाखेड़ा में कबीरपंथ वंशगद्दी की स्थापना के लिए ग्राम दामाखेड़ा को तब 14000 रूपए में बेमेतरा के कुर्मी भक्तों ने खरीदा था। यहां हर साल माघ शुक्ल दशमी से पूर्णिमा तक विशाल संत समागम व मेला का आयोजन होता है जिसमें देश-विदेश से श्रद्धालु-भक्त-व कबीर प्रेमी पहुंचते हैं।
दामाखेड़ा में वंशगद्दी की स्थापना बारहवें गुरु उग्रनाम साहेब ने की जिसमें आगे चलकर चौदहवें गुरु गृन्धमुनि साहेब भी हुए जिन्होने 18 फरवरी 1992 तक गद्दी संभाली। कहते हैं कि गृन्धमुनि साहेब के समय में छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ ने जितनी प्रगति की उतनी अन्य किसी आचार्य के समय में नही हुई। वर्तमान में पंद्रहवें वंशाचार्य श्री प्रकाशमुनि साहेब हैं।
1982-85 के एक सर्वेक्षण के अनुसार विभिन्न शाखाओं के कबीरपंथ के अनुयायियों की संख्या देश भर में 96 लाख थी जिसका सबसे बड़ा हिस्सा दामाखेड़ा वंशगद्दी का 33.5 फीसदी था। अर्थात कबीरपंथ की सभी शाखाओं में छत्तीसगढ़ी शाखा दामाखेड़ा गद्दी का प्रचार क्षेत्र सबसे बड़ा है और पंथ प्रचार में इसे सर्वाधिक सफलता मिली है।
वेद पुराण सब झूठ है,हमने इसमें पोल देखा।
अनुभव की बात कहे कबीरा,घट का परदा खोल देखा॥
छत्तीसगढ़ में धनी धर्मदास द्वारा स्थापित कबीरपंथ की वंशगद्दी में अब तक चौदह गुरु हो चुके हैं तथा वर्तमान में पंद्रहवें आचार्य गद्दी पर विराजमान हैं जिनका ब्यौरा इस तरह है-
1- मुक्तामणि नाम साहेब विक्रम संवत 1538 से 1630
2- सुदर्शन नाम साहेब विक्रम संवत 1595 से 1630
3- कुलपत नाम साहेब विक्रम संवत 1652 से 1690
4- प्रमोद गुरु बालापीर साहेब विक्रम संवत 1728 से 1750
5- केवल नाम साहेब विक्रम संवत 1760 से 1775
6- अमोल नाम साहेब विक्रम संवत 1782 से 1825
7- सुरत सनेही नाम साहेब विक्रम संवत 1802 से 1853
8- हक्क नाम साहेब विक्रम संवत 1835 से 1890
9- पाक नाम साहेब विक्रम संवत 1855 से 1912
10- प्रकट नाम साहेब विक्रम संवत 1875 से 1939
11-धीरज नाम साहेब विक्रम संवत 1899 से 1937
(धीरज नाम साहेब गद्दीनशीन नही हुए क्योंकि इनका सतलोक गमन प्रकटनाम साहेब से पहले ही हो गया था)
12- उग्रनाम साहेब विक्रम संवत 1929 से संवत 1971
13- दया नाम साहेब विक्रम संवत 1956 से 1984
14- गृन्धमुनि नाम साहेब विक्रम संवत 1922( सन 1935 ) से सन 1992 तक
15- प्रकाश मुनि नाम साहेब जिनका जन्म हुआ सन 1967 में, 1990 में गद्दीनशीन हुए व वर्तमान में यही दामाखेड़ा के पंद्रहवें वंशगद्दी आचार्य हैं।
वेद पुराण सब झूठ है,हमने इसमें पोल देखा।
अनुभव की बात कहे कबीरा,घट का परदा खोल देखा॥
छत्तीसगढ़ में धनी धर्मदास द्वारा स्थापित कबीरपंथ की वंशगद्दी में अब तक चौदह गुरु हो चुके हैं तथा वर्तमान में पंद्रहवें आचार्य गद्दी पर विराजमान हैं जिनका ब्यौरा इस तरह है-
1- मुक्तामणि नाम साहेब विक्रम संवत 1538 से 1630
2- सुदर्शन नाम साहेब विक्रम संवत 1595 से 1630
3- कुलपत नाम साहेब विक्रम संवत 1652 से 1690
4- प्रमोद गुरु बालापीर साहेब विक्रम संवत 1728 से 1750
5- केवल नाम साहेब विक्रम संवत 1760 से 1775
6- अमोल नाम साहेब विक्रम संवत 1782 से 1825
7- सुरत सनेही नाम साहेब विक्रम संवत 1802 से 1853
8- हक्क नाम साहेब विक्रम संवत 1835 से 1890
9- पाक नाम साहेब विक्रम संवत 1855 से 1912
10- प्रकट नाम साहेब विक्रम संवत 1875 से 1939
11-धीरज नाम साहेब विक्रम संवत 1899 से 1937
(धीरज नाम साहेब गद्दीनशीन नही हुए क्योंकि इनका सतलोक गमन प्रकटनाम साहेब से पहले ही हो गया था)
12- उग्रनाम साहेब विक्रम संवत 1929 से संवत 1971
13- दया नाम साहेब विक्रम संवत 1956 से 1984
14- गृन्धमुनि नाम साहेब विक्रम संवत 1922( सन 1935 ) से सन 1992 तक
15- प्रकाश मुनि नाम साहेब जिनका जन्म हुआ सन 1967 में, 1990 में गद्दीनशीन हुए व वर्तमान में यही दामाखेड़ा के पंद्रहवें वंशगद्दी आचार्य हैं।
मै कहता सुरझावन हारी,तू राख्यो अरुझाई रे।
मै कहता तू जागत रहियो, तू जाता है सोई रे।।
वह बातें जो छत्तीसगढ़ के कबीरपंथ की पहचान हैं
1- छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ के अंतर्गत यहां एक विशिष्ठ प्रकार की मठ व्यवस्था प्रचलित है।
2- गुरु की संतान गद्दी की उत्तराधिकारी होती है।
3- अधिकांश कबीरपंथी श्वेत वस्त्र धारण करते हैं क्योंकि उनन्के अनुसार यह आभ्यांतरिक शुद्धि और ज्ञान का प्रतीक है।
4- कबीरपंथी धोती व अचला धारण करना त्यागी और निरक्त जीवन का चिन्ह मानते हैं। ये गले में तुलसी की माला धारण करते हैं, औरतें भी कण्ठी धारण करती हैं।
5- कबीरपंथी द्वादश तिलक लगाते हैं। यह तिलक न्यायपूर्ण जीवन का प्रतीक माना जाता है।
6- कबीरपंथी अपने महात्मा या गुरुओं को तीन बार बंदगी करते है।
7- छत्तीसगढ़ी कबीरपंथी शाखा में पूर्णिमा का विशेष महत्व है। उनका यह विश्वास है कि जो व्यक्ति पूर्णिमा के दिन यह व्रत रखते है उन्हें ॠद्धि-सिद्धि, भक्ति व मुक्ति प्राप्त होती है।
8- चौका आरती को कबीरपंथ में महत्वपूर्ण विधान माना जाता है।
9- कबीरपंथ के अनुसार शव को पृथ्वी में गाड़ देने का विधान है व इसके लिए विशेष विधि प्रचलित है।
मै कहता सुरझावन हारी,तू राख्यो अरुझाई रे।
मै कहता तू जागत रहियो, तू जाता है सोई रे।।
वह बातें जो छत्तीसगढ़ के कबीरपंथ की पहचान हैं
1- छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ के अंतर्गत यहां एक विशिष्ठ प्रकार की मठ व्यवस्था प्रचलित है।
2- गुरु की संतान गद्दी की उत्तराधिकारी होती है।
3- अधिकांश कबीरपंथी श्वेत वस्त्र धारण करते हैं क्योंकि उनन्के अनुसार यह आभ्यांतरिक शुद्धि और ज्ञान का प्रतीक है।
4- कबीरपंथी धोती व अचला धारण करना त्यागी और निरक्त जीवन का चिन्ह मानते हैं। ये गले में तुलसी की माला धारण करते हैं, औरतें भी कण्ठी धारण करती हैं।
5- कबीरपंथी द्वादश तिलक लगाते हैं। यह तिलक न्यायपूर्ण जीवन का प्रतीक माना जाता है।
6- कबीरपंथी अपने महात्मा या गुरुओं को तीन बार बंदगी करते है।
7- छत्तीसगढ़ी कबीरपंथी शाखा में पूर्णिमा का विशेष महत्व है। उनका यह विश्वास है कि जो व्यक्ति पूर्णिमा के दिन यह व्रत रखते है उन्हें ॠद्धि-सिद्धि, भक्ति व मुक्ति प्राप्त होती है।
8- चौका आरती को कबीरपंथ में महत्वपूर्ण विधान माना जाता है।
9- कबीरपंथ के अनुसार शव को पृथ्वी में गाड़ देने का विधान है व इसके लिए विशेष विधि प्रचलित है।
जात न पूछौ साधु की, जो पूछौ तो ज्ञान।
मोल करो तलवार का, परा रहन दो म्यान।।
कबीरपंथ की कुछ शाखाओं में चौका आरती का विधान है और इसे मोक्ष साधन के लिए जरुरी माना जाता है। चौका आरती को कबीरपंथ का सात्विक यज्ञ भी कहा जाता है। आम तौर पर कबीरपंथ की चौका आरती के बारे में तो बहुतों ने सुना पढ़ा होता है लेकिन इसके अलावा और भी कुछ परंपराएं या रिवाज़ हैं। आईए देखें कि दामाखेड़ा में कबीरपंथ की और क्या परंपराएं या रिवाज़ हैं।
1-दीक्षित करने की विधि
2-पूर्णिमा व्रत
3-चौका विधान- इसके अंतर्गत
-आनंदी चौका
-जन्मौती या सोलह सुत का चौका
-चलावा चौका
-एकोत्तरी चौका
4-अंत्येष्टि क्रिया
5-नित्य कर्म विधि
6-द्वादश तिलक
इसमें से हम अंत्येष्टि क्रिया और द्वादश तिलक के बारे मे थोड़ी चर्चा पहले ही कर चुके हैं अत: इनके विस्तार में न जाकर चौका आरती के के बारे में बात करते हैं।
चौका आरती की विधि केवल महंत ही संपन्न करवा सकते हैं। चौका करने के लिए जिस प्रकार किसी महंत की नियुक्ति आवश्यक है ,उसी प्रकार सर्व सामग्री को यथास्थान स्थापित करने के और चौके के कार्य में महंत को सहयोग देने के लिए दीवान का होना भी जरुरी है। चौका बनाने के सभी 'सुमिरन' दीवान को और महंत द्वारा किए जाने वाले चौका संबंधी कार्यों के समस्त सुमिरन महंत को कंठस्थ होने चाहिए । लग्नतत्व स्वरोदय और पान पहचाननें का ज्ञान भी महंत के लिए अपेक्षित है।
कबीर माला काठ की, कहि समझावे तोहि।
मन ना फिरावै आपनों, कहा फिरावै मोहि।।
आनंदी चौका- किसी नवीन व्यक्ति के कबीरपंथ में दीक्षित होने के समय य आ अन्य प्रकार के आनंदोत्सव के निमित्त यह चौका कराया जाता है।
जन्मौती या सोलह सुत का चौका- संतान प्राप्ति की कामना अथवा पुत्र जन्म के उपलक्ष्य में यह चौका संपादित होता है।
चलावा चौका- मृत व्यक्ति की आत्मा की शांति के लिए चलावा चौका की विधि की जाती है।
एकोत्तरी चौका- जो विधि एक सौ एक पूर्वजों के शांति के लिए की जाती है उसे एकोत्तरी चौका कहा जाता है।
मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठ का जाई।
कोयला होई न ऊजरो, नव मन साबुन लाई।।
लंबा मारग, दूरि घर, विकट पंथ, बहु मार।
कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार॥
कबीर और धनी धर्मदास की स्मृति में दामाखेड़ा में हर साल आयोजित होने वाला 'संत समागम समारोह' खासा महत्व रखता है। इसमें हिस्सा लेने के लिए देश विदेश से कबीरपंथ के अनुयायी पहुंचते हैं।
इस समारोह के दौरान कार्यक्रम को इस तरह बांटा गया है।
1-बसंत पंचमी (गुलाल-उत्सव)
2-संत समागम
3-भेंट बंदगी
4-सत्संग सभा
5-पंथश्री का प्रवचन
6-पूनों महात्म्य पाठ
7-आनंदी चौका आरती(सात्विक यज्ञ)
8-सामूहिक चलावा चौका
9-सामूहिक दीक्षांत समारोह व पंजा वितरण
आईए देखें दामाखेड़ा के कुछ चित्र
`कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ।
हरि बिन अपना कोउ नहीं, देखे ठोकि बजाइ॥
`कबीर' कलिजुग आइ करि, कीये बहुत जो मीत ।
जिन दिलबाँध्या एक सूं, ते सुखु सोवै निचींत ॥
कामी लज्या ना करै, मन माहें अहिलाद ।
नींद न मांगै सांथरा, भूख न मांगै स्वाद ॥
माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाइ ।
ताली पीटै सिरि धुनैं, मीठैं बोई माइ ॥
घूँघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे।
घट-घट मे वह सांई रमता, कटुक वचन मत बोल रे॥
धन जोबन का गरब न कीजै, झूठा पचरंग चोल रे।
सुन्न महल मे दियना बारिले, आसन सों मत डोल रे।।
जागू जुगुत सों रंगमहल में, पिय पायो अनमोल रे।
कह कबीर आनंद भयो है, बाजत अनहद ढोल रे॥
जाति-पांति पूछै न कोई।
हरि का भजै सो हरि का होई॥
छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ ने सर्वाधिक प्रभाव निचली या पिछड़ी जातियों पर ही डाला,लेकिन ऐसा नही है कि उच्च या सवर्णों पर कबीरपंथ का प्रभाव पड़ा ही नही। अब तक हुए वंशगद्दी आचार्यों में से एक-दो का विवाह ब्राम्हणी कन्या से होने का उल्लेख मिलता है। किसी ब्राम्हणी कन्या का विवाह किसी कबीरपंथी से होना तभी संभव प्रतीत होता है जब वह ब्राम्हण परिवार स्वयं भी कबीरपंथ का अनुयायी हो। दर-असल कबीरपंथ जब छत्तीसगढ़ में अपने पांव पसार रहा था तब की सामाजिक स्थिति ऐसी थी कि निचली जातियां सवर्णों से प्रताड़ित थीं और जाति-पांति का बंधन बहुत ज्यादा था। इसलिए कबीरपंथ के अनुयायी वही ज्यादा बने। जैसे कि सिदार,ढीमर, तेली,अहीर, लोधी, कुम्हार, रावत,पटवा, साहू,वैश्य,कुर्मी,कोष्टा और मानिकपुरी जिसे पनका या पनिका भी कहा जाता है। इनमें एक दोहा प्रचलित है।
पानी से पनिका भये,बूंदों रचा शरीर।
आगे-आगे पनका गये,पाछे दास कबीर।।
उनकी मान्यता है कि पनिका का उद्भव पानी से हुआ है - उनका शरीर पानी से बना है। पनिका मार्ग का नेतृत्व करते हैं और संत कबीर उनका अनुशरण। लगभग सभी पनिका कबीर पंथी हैं। पनिका शब्द की उत्पत्ति (पानी + का) से हुआ है। जैसा कि जाना जाता है जनमते ही मां ने कबीर को त्याग दिया था। मां ने एक पत्ते से कबीर को लपेटकर एक तालाब के पास छोड़ दिया था। बच्चे के रोने की आवाज सुनकर किसी और मां ने उठा लिया और उसने अपनी संतान की तरह उन्हें पाला -पोसा। क्योंकि वह शिशु पानी की सतह पर मिला था, जो आगे चलकर कबीर के नाम से प्रसिद्ध हुआ, इसलिए पनिका अपने को पनिका (पानी + का) कहने में गर्व का अनुभव करते हैं।
हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?
खलक सब नाम अनपे को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?
न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?
कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?
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बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार ।
दुहुं चूका रीता पड़ैं , वाकूं वार न पार ॥1॥
`कबीर' हरि के नाव सूं, प्रीति रहै इकतार ।
तो मुख तैं मोती झड़ैं, हीरे अन्त न फार ॥2॥
ऐसी बाणी बोलिये, मन का आपा खोइ ।
अपना तन सीतल करै, औरन को सुख होइ ॥3॥
कोइ एक राखै सावधां, चेतनि पहरै जागि ।
बस्तर बासन सूं खिसै, चोर न सकई लागि ॥4॥
जग में बैरी कोइ नहीं, जो मन सीतल होइ ।
या आपा को डारिदे, दया करै सब कोइ ॥5॥
आवत गारी एक है, उलटत होइ अनेक ।
कह `कबीर' नहिं उलटिए, वही एक की एक ॥6॥
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अरे दिल,
प्रेम नगर का अंत न पाया, ज्यों आया त्यों जावैगा।।
सुन मेरे साजन सुन मेरे मीता, या जीवन में क्या क्या बीता।।
सिर पाहन का बोझा लीता, आगे कौन छुड़ावैगा।।
परली पार मेरा मीता खडि़या, उस मिलने का ध्यान न धरिया।।
टूटी नाव, उपर जो बैठा, गाफिल गोता खावैगा।।
दास कबीर कहैं समझाई, अंतकाल तेरा कौन सहाई।।
चला अकेला संग न कोई, किया अपना पावैगा।
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रहना नहीं देस बिराना है।
यह संसार कागद की पुडि़या, बूँद पड़े घुल जाना है।
यह संसार कॉंट की बाड़ी, उलझ-पुलझ मरि जाना है।
यह संसार झाड़ और झॉंखर, आग लगे बरि जाना है।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, सतगुरू नाम ठिकाना है।
रचना स्त्रोत
1-छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ का ऐतिहासिक अनुशीलन-डॉ चंद्रकिशोर तिवारी
2-कबीर धर्मनगर दामाखेड़ा वंशगद्दी का इतिहास-डॉ कमलनयन पटेल
4 comments:
दीक्षित करने की विधि
Bahut achi jankari h
Bahut achi jankari h
सप्रेम साहेब बंदगी साहेब
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