बस्तर का सच
यह केवल स्वप्न नहीं था
-राजीव रंजन प्रसाद
आई प्रबीर-द आदिवासी गॉड देर रात तक इस पुस्तक पर आँखें गड़ाये रहा, कब नींद आ गयी पता ही नहीं लगा। सीने पर पड़ी किताब से एक सपना आँखों के भीतर चू गया। मेरे सम्मुख देवताओं की तरह दिखने वाला व्यक्तित्व खड़ा था - चौड़ा ललाट, बोलती हुई आँखें और कंधे तक बिखरे हुए बाल। एक दिव्य मुस्कुराहट उनके व्यक्तित्व की शोभा थी और ललाट पर तिलक उनके आकर्षण को विस्तार दे रहा था। मुझे पहचानते देर न लगी कि मैं बस्तर अंचल के अंतिम शासक और माँ दंतेश्वरी के अनन्यतम पुजारी के सम्मुख खड़ा हूँ। स्वपन में भी यह चेतना रही कि स्वप्न देख रहा हूँ। सपने में भी निश्चित ही मुस्कुराहट खिल उठी होगी कि मुन्नाभाई की गाँधीगिरि का सिनेमा, हाल ही में देखा था और स्मृतियों में ताजा था। लेकिन अवचेतन में यह खयाल कहाँ था?
महाराज के स्वाभाविक सम्मान में मेरा मस्तक स्वयं नत हो गया। चालीस साल से भी अधिक हो गये महाराज प्रबीरचंद भंजदेव 'काकतीय की नृशंस हत्या को।... अब क्या है जिसकी तलाश में यह महान आत्मा मेरे स्वप्न को कुरेदती है? सवाल बहुत थे और उत्तर पाना भी चाहता था, कि एक आत्मीय सा हाथ मेरे कंधे पर रख कर उन्होंने कहा - कहाँ जा सकता हूँ, इस मिट्टी के कण कण में मैं ही तो हूँ। मिट्टी में मिल कर भी कहाँ मिटा मैं?।
मैं इस सच से वाकिफ था। बात आज-कल की ही है, मैं बिलकुल वटवृक्ष हो चुके उस आदिम से मिला और पूछ बैठा महाराज साहब के बारे में,.... फिर मेरी आँखे फटी रह गयीं। बाबा नें मुझे खा जाने वाली नजरों से देखा, जैसे महाराज प्रबीर का नाम ले कर मैंने कोई गुनाह कर दिया हो और अनन्य श्रद्धा से वह भूमि पर इतनी बार नतमस्तक हुआ कि मुझे मेरा उत्तर मिल गया। आज के दौर का है कोई राजनीतिज्ञ ऐसा, जो जनमानस की आत्मा में बसता हो? जो अपनी मौत के बाद भी सहित-आत्मा जीवित हो कोटि-कोटि हृदय में?
.... बचपन की मेरी धुंधली सी स्मृति में आज भी है कि एक साधुवेशी पाखंडी नें स्वयं को महाराज का पुनर्जन्म घोषित कर दिया था और आदिम जनता जैसे भावावेश में अंधी हो गयी थी। उस पाखंडी के मुर्गा न खाने के तुगलकी फरमान पर अंचल में मुर्गे, बाजारों से उठ गये थे... यह मुझे आज के दौर की राजनीति में असाधारण घटना जान पड़ती है। (राजतंत्र और लोकतंत्र पर बहस मेरे आलेख का मकसद नहीं है अपितु सत्ता के सम्मान की विवेचना भर प्रस्तुत करना चाहता हूँ)।
स्वप्न गहरा था और महाराज मुझसे मित्रवत गहरी गहरी बातें करने लगे। बात रात की तरह लम्बी हुई और हम इतिहास की परत उधेडऩे लगे।
आप भारत में बस्तर राज्य का विलय नहीं चाहते थे, अपितु इसे स्वाधीन राष्ट्र बनाना चाहते थे क्या यह सच नहीं? मैंने बड़ा प्रश्नवाचक लगा कर पूछा।
इस पर महाराज मुस्कुरा दिये और मुझ पर ही प्रश्नसूचक दृष्टि डाल कर उन्होंने पूछा क्या बस्तर आज भारत का हिस्सा है? मैं इस प्रश्न के लिये प्रस्तुत नहीं था इसलिये सकपका गया।
समुचित सडक़ व्यवस्था का आज भी अभाव, रेल केवल लोहा ढोने भर के लिये, पानी के लिये त्राहि, बिजली तो आधा अंचल जानता ही नहीं कि क्या बला है, इस पर दिल्ली की जगमग में शेष देश मौन, कौन जानता है कि बस्तर है कहाँ और आदिवासी कैसे हैं, और हैं कौन? महाराज की ये बाते तार्किक थीं और व्यवस्था पर गंभीर प्रहार करती थीं। फिर वे स्वत: ही गंभीर हो गये और बोले- यह भारत कि आजादी का ही वर्ष था यानी कि 1947, मेरा राज्याभिषेक अनुबंधों और प्रतिबंधों की कड़ी में हुआ और फिर समाप्त... सर्वेसर्वा का एकदम से अधिकारविहीन हो जाना एक प्रकार की मन: स्थिति है और राजनीतिक फैसले अपने समय का सच होते हैं जिन्हें आज के समय से जोड़ कर सही और गलत की कसौटी में नहीं कसा जा सकता। फिर भी यह प्रश्न मैं अवश्य करना चाहूँगा कि जिस लोकशाही की परिकल्पना हमारा संविधान करता है क्या आज इस अंचल में कहीं भी दृष्टिगोचर होती है? दारू पिलाओ वोट लो, कपड़ा बाँटो और वोट लो, क्या इसी सच पर आज इस अंचल का जनप्रतिनिधित्व नहीं टिका? मैं मौन ही रहा, चूँकि इस आक्षेप का उत्तर संभव है किसी के पास न हो बस्तर में नक्सलवादिता की भविष्यवाणी मैंने अपनी पुस्तक में भी की है। मेरी पुस्तक आई प्रबीर द आदिवासी गॉड में मैंने स्वयं को अपने ही लोगों से काटे जाने की सरकारी साजिश का विरोध करते हुए लिखा था कॉंग्रेस नें कभी भी यह अनुभव नहीं किया कि वे प्रचीन संवैधानिक शिक्षा की पाठशालायें, साम्यवाद के कुप्रभाव के लिये एक कारगर रोक बन सकती थीं। बस्तर भारत के अन्य प्रांतो की तरह न तो सुगम है न ही सहज। गहरी समझ चाहिये किसी प्रशासक को। मैंने सहमति में सिर हिलाया। क्या आज जैसी तबाही और इस शांत अंचल में आतंकवाद के इस स्वरूप की किसी नें परिकल्पना की थी? क्यों ऐसी समस्याओं का निदान नहीं हो पाता जिसे कर पाना सरकारी इच्छाशक्ति पर ही निर्भर है? सच यह है कि इस अंचल की तबाही की कहानी लिखने वाली कलमें तो बहुत रही हैं इसके निर्माण को किसी नें दृष्टिकोण प्रदान नहीं किया।
तो क्या नक्सलवादी समस्या के बस्तर में पनपने का कारण सरकारी नीतियों की विफलता है और यह एक क्रांति है व्यवस्था के खिलाफ? मैने प्रश्न किया।
महाराज प्रबीर ठहाका लगा कर हँस पड़े फिर गंभीर हो गये। क्रंाति वह होती है जो भीतर से पनपती है, क्रांति प्रायोजित नहीं अपितु स्वत:स्फूर्त होती है। क्रांति विदेशी नहीं होती या कि विचारधारा का इश्तेहार ले कर नहीं जनमती। क्रांति एक घटना है जिसकी चिंगारी भीतर ही सुलगती है और फिर ऐसा दावानल हो जाती है जो बदल देती है एक पूरी की पूरी व्यवस्था। क्रांति नारों से नहीं आती, बल्कि क्रांति के दौरान नारे पैदा होते हैं। क्रांति किसी लाल-पीले झंडे की छाया में नहीं होती,..., क्रांति गुजरती है तब उसपर गीत बनते है, रंग भरे जाते हैं और पहचान दी जाती है।
आप सत्य कह रहे हैं राजा साहब किंतु यह आदिम समाज ऐसे ही तो नक्सलियों के प्रभाव में नहीं आया होगा? मैंने चर्चा को विस्तार दिया।
निश्चित ही प्रशासनिक विफलताएं भी कारण हैं। एक कारण यह भी है कि इतने बड़े भौगोलोक क्षेत्र को बिलकुल नजरंदाज किया गया। फिर भी आतंकवाद को कैसे क्रांति का मुलम्मा चढ़ा कर महिमामंडित किया जा सकता है? आज क्या हालात है? जो पिस रहा है वह यह गरीब अंचल और यहाँ के निरीह मुरिया-माडिया ही तो हैं? महाराज नें गंभीर स्वर में अपनी बात समाप्त की।
आप क्या यह नहीं मानते कि इन आदिमों को अपनी आवाज उठानी नहीं आती और एक तरह से नक्सली इनकी सहायता ही कर रहे हैं, शोषण के खिलाफ उनके संघर्ष में? मैंने जिज्ञासावश पूछा। मैं जानता था कि बस्तर की आत्मा से इस गंभीर प्रश्न का उत्तर मिलने वाला है। एक पल रुक कर उन्होंने दीर्घ नि:श्वास ली और फिर बोल पड़े -
इन आदिवासियों को किसी आयातित सिद्धांतों या कि संघर्षकर्ताओं की आवश्यकता नहीं है, इनके ही भीतर ऐसी आग है जो प्रलयंकारी है किंतु ये आदिम ऐसे ही हैं जैसे इन्हें हनूमान वाला शाप मिला हुआ हो, इनकी ताकत का इन्हें अहसास कराया जाये तो बस कयामत ही है। बहुत से उदाहरण इस अंचल का स्वर्णिम इतिहास हैं जो यह बताते हैं कि यदि नक्सलवाद स्वाभाविक होता तो किसी बंगाली, किसी तेलुगु लाल-आतंकी के कंधे पर चढ़ कर नहीं बल्कि किसी गुण्डाधुर के बाणों की नोंक से आरंभ होता।
यह गुँडाधुर कौन? मैंने सहज जिज्ञासावश पूछा। महाराज अतीत में डूब गये फिर एक कहानी उन्होंने आरंभ की जिस पर बहुत धूल जम गयी है।
यह घटना लगभग 1910 की है तब राजा रुद्र प्रताप देव का शासन था।.... आदिवासी अपनी परंपरओं को सहेज कर जीते हैं, और बस्तर अंचल पर अंगेजों के शासन के साथ ही ऐसे बदलाव का यह क्षेत्र गवाह होने लगा जिससे उनकी परंपरायें आहत हुईं। एक या दो नहीं लगभग दस बार संगठित या गैर संगठित विद्रोह अंग्रेजों, उनके नियुक्त दीवानों या कि राजा के विरुद्ध हुए। दरअसल इन विद्रोहों को ही क्रांति का नाम दिया जाना चाहिये। ये विद्रोह बताते हैं कि क्रांति परिस्थितिजन्य होती हंै तथा उन कारकों से पनपती है जो आंतरिक हैं।
..... भूमि पुत्र यदि अपने ही जंगलों, वनोत्पादों और भूमि पर कर-बोझ से लदे होंगे तो विद्रोह की चिनगारी पैदा होगी ही। तत्कालीन दीवान, पंडा बैजनाथ का बस्तर के प्रशासक होने के नाते भूमि से जुड़ा होना एवं उसकी सांस्कृतिक आवश्यकताओं को समझना आवश्यक था। तुगलकी फरमान जिनमें अनिवार्य शिक्षा और शराब बंदी जैसे आदेश भी सम्मिलित हंै दर-असल जबरन थोपे जाने के कारण गलत संदर्भ में देखे गये तथा आदिवासियों ने इसे अपनी परंपराओं के साथ खिलवाड़ माना और फिर संपूर्ण अंचल में उसी तरह की प्रतिक्रिया होने लगी जैसे कि गाय-सूअर की चरबी वाले कारतूस नें 1857 के पहले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सूत्रपात किया था।
... अंग्रेजों का अप्रत्यक्ष शासन होने के कारण बाहर से आने वाले लोगों की तादाद और उनके बढ़ते प्रभाव नें भी आग में घी डालने का काम किया।... यह भी सच है कि कुछ सुलगती हुई आग में घी डालने का काम राजपरिवार की आंतरिक राजनीति ने भी किया था। यह आंदोलन उग्र हो गया। ऐसी क्रांति घट गयी जिसकी कल्पना न राजा नें की थी, न ही राय बहादुर पंडा बैजनाथ नें और न ही इन कठपुतलियों के पीछे बैठी अंग्रेज हुकूमत ने। गुंडाधुर इस क्रांति का अगुआ था और उसके क्रांति का प्रतीक डारा मिरि (आम की डाल पर लाल मिर्च बाँध कर इस प्रतीक को बनाया गया था) का गाँव-गाँव में स्वागत हुआ, ज्योत से ज्योत जलने लगी। एकाएक बस्तर जाग गया। राजा, दीवान और अंग्रेजी हुकूमत की नींद हराम हो गयी कि ऐसे असाधारण आंदोलन परिवर्तन की ताकत रखते हैं।... फिर वह सब कुछ हुआ जिसके लिये अंग्रेज जाने जाते हैं। राजा ने तार से अंग्रेज आकाओं को सूचित किया और आनन फानन में मदद पहुँची भी। क्रांतिकारी, दीवान पंडा बैजनाथ की तलाश में आकाश पाताल एक किये हुए थे और साथ ही साथ उनके निशाने पर थे सरकारी संस्थान, संचार के साधन, मुनाफाखोर व्यापारी और अंग्रेजी सरकार के प्रतिनिधि। गोलियाँ चलती रहीं, लाशें बिछती रहीं और यह आंदोलन उग्र से उग्रतर होता रहा। और तब तक सफलता पूर्वक इस आन्दोलन ने अंग्रेजों को यह पाठ पढ़ाया कि आदिम होना नासमझ होना नहीं है या कि वे शोषित रहने के लिये कत्तई तैयार नहीं हैं जब तक अपनी प्रचलित फूट डालो और शासन करो की नीति के तहत अंग्रेजो नें इस अंचल में जयचंद नहीं तलाश लिया। आन्दोलनकारियों में से एक सोनू माँझी को अंग्रेजो नें अपनी ओर मिला लिया जिसकी मुखबिरी पर एक बड़ा नर-संहार हुआ। कुचल दिया गया आन्दोलन, क्रांति की निर्मम हत्या कर दी गयी।
मैं इस कहानी में खो गया था। यह स्पष्ट था कि अदिवासी मोम के पुतले नहीं हैं अपितु स्वाभिमानी और जीवट हैं। मैं सोच में पड़ गया कि फिर नक्सलवादिता यहाँ के जंगलों का आज अभिशाप कैसे बन गयी। कैसे इन आदिमों का स्वाभिमान कुचल कर आतंकवादी समानांतर सरकार चला पाने में सफल हुए? माओवादी खाओवादी बन कर दीमक से चट कर रहे हैं- बस्तर का सब कुछ, सुख भी, शाँति भी और संपदा भी।
मेरी निगाहों से यह प्रश्न स्वत: महाराज प्रबीर के पास पहुँच गया था। वे अब और भी गंभीर हो गये थे। महाराज नें इतिहास को कुरेदना जारी रखा। व्यवस्था कोई भी हो उसका जनता से सीधा संवाद होना चाहिये। लोकतंत्र वहाँ तक तो ठीक है जहाँ जनता इतनी जागरुक है कि अपने अधिकार जानती हो। अधिकार समझ सकने और उपभोग करने वाली जनता ही कर्तव्यों के प्रति भी जागरूक रहेगी। अन्यथा तो हम किसी क्षेत्र की बदहाली के दोषारोपण के लिये चेहरों और कारणों की तलाश करते रहेंगे, हासिल होगा शून्य। मैं आश्चर्य करता हूँ कि जो रिआया इतनी जागरुक थी कि उसमें अपने राजा का घेराव करने या उसकी लोक हित में अवहेलना तक करने का साहस था वह भेड़ कैसे हो गयी या बना दी गयी? मैं 1876 में राजा भैरमदेव के शासनकाल की ओर ले कर चलता हूँ। घटना रोचक है। राजा भैरमदेव प्रिंस ऑफ वेल्स से मुलाकात करने मुम्बई जा रहे थे। रियासत को मंत्रियों के हाँथो छोड़ देने के विरोध में जनता का उग्र हो जाना क्या यह प्रमाणित नहीं करता कि आदिम जनता की तत्कालीन राजनीति पर कितनी गहरी पकड़ थी?...... लेकिन अधिकार का नशा दीवानों से अधिक उनके चमचों और नौकरों को हुआ करता था। फैल रहे असंतोष की आपाधापी में दीवान के नौकरों/ चमचों के हाँथो कुछ मुरिया आदिवासियों की हत्या हो गयी।
....। जागरूक समाज उखड़ गया और प्रशासन कंदराएं तलाशने लगा। राजा के दीवान गोपीनाथ कपडदार, मुंशी अदित प्रसाद तथा राज्य के अन्य कुछ कर्मचारियों के अत्याचारों के विरुद्ध इस संग्राम में लगभग दस हजार से अधिक मुरिया और भतरा आदिवासियों की भीड़ नें बिना किसी हिंसा या रक्तपात के राजा भैरमदेव को जगदलपुर में हफ्तों घेरे रखा। सच कहूँ तो यह होता है आन्दोलन, जिसकी पृष्ठभूमि होती है, जो समाज पर गुजर रही पीड़ा की स्वाभाविक परिणति होते हैं। आन्दोलन, हत्या-कत्लेआम और बलात्कार के लिये नहीं होते, जैसा कि वर्तमान नक्सलवाद का स्वरूप है। आंदोलन का मकसद बलपूर्वक अपनी बात मनवा कर अपनी मर्जी की व्यवस्था पाना नहीं होता। व्यवस्था में क्या और कैसे परिवर्तन होनें चाहिये, वस्तुत: एक स्वत: स्फूर्त आँदोलन इसकी दिशा निर्धारित करता है।
.... आदिमों का यह आन्दोलन वार्ताओं और हस्तक्षेपों के कई दौर से गुजरा। पहले बिजगापट्टनम से साढ़े पाँच सौ सैनिकों की एक टुकड़ी आयी, उनसे वार्ता-विफलता के पश्चात बस्तर जिले के अंग्रेज सरकार नियुक्त पॉलिटिकल एजेंट तथा डिप्टी कमिश्नर को वार्ताकार होना पड़ा। आदिमों की राजनीतिक समझ की बानगी यह थी कि डिप्टी कमिश्नर को बिना किसी जाँच के उन मंत्रियों को बर्खास्त करने का हुक्म जारी करना पड़ा जो रिआया की राय में प्रशासन-निहित भ्रष्टाचार के जिम्मेदार थे। इसके पश्चात ही इस विद्रोह अथवा क्रांति की शांति संभव हो सकी।
मैं आवाक था। बस्तर का यह दूसरा ही चेहरा था। क्या बस्तर उस दौर के बाद तो नहीं पिछड़ा जब हम अपने लोकतांत्रिक गणतंत्र होने का दंभ दिल्ली में भर रहे थे? जिस बस्तर की रिआया इतनी जागरुक थी कि अपने राजा और दीवान का दंभ भी बर्दाश्त नहीं कर पाती थी, अंग्रेजी हुक्मरानों को भी मनमानी करने से रोक पाने की जिस जनता में ताकत थी, आज उसकी आवाज कहाँ है? आज तो जनता का, जनता के लिये, जनता के द्वारा शासन है? सारा भारत वर्ष तो यही जानता है कि बस्तर में पिछड़े, नंगे, भूखे लोग रहते हैं और सारी सभ्यता का ठेका इस प्रांत की परिधि के बाहर ही है। शायद सच यह है कि इस क्षेत्र की आवाज अब शासन तंत्र तक रही ही नहीं, ये जीते हैं तो इनकी किस्मत, मरते हैं तो माँ दंतेश्वरी की माया.... कौन है इनका सुध लेवा?
महाराज प्रबीर जैसे मेरी सारी मन:स्थिति समझ रहे थे। उन्होंने अपनी बात जारी रखी- मेरी मौत जागरुक बस्तर की मौत थी। मुझे गोलियों से भून दिया गया और यह सब केवल इस लिये कि मैं अपने राज्य के भारत गणराज्य में विलय के बाद भी मान्य जनप्रतिनिधि था। मुझे तत्कालीन सरकार ने पागल करार दिया, गिरफ्तार किया, मेरे अधिकार सीमित किये और फिर वह सब कुछ हुआ जिसके लिये यह अंचल जाना जाता है एक जागरूक जनता द्वारा क्रांति का स्वर बुलंद किया जाना। मेरी मौत क्यों हुई यह दास्तां फिर कभी, आज तुमसे चर्चा इस संदर्भ तक ही कि क्या बस्तर को अपनी आवाज उठाने के लिये नस्कली आतंकवादियों की आवश्यकता है?
... क्षेत्र की जनता आदिम है किंतु निरीह नहीं। बुस्शर्ट और पैंट नहीं पहनती लेकिन सभ्य समाज को आईना दिखा पाने की क्षमता इनमें है। लौहंडीगुड़ा का गोलीकांड जलियावाला बाग कांड की तरह ही नृशंस था क्या शेष भारत यह तथ्य जानता है? बात भी तब की जब भारत को आजाद हुए चौदह वर्ष होने को थे यानी कि वर्ष 1961। मेरी गिरफ्तारी का विरोध कर रही आम जनता उग्र नहीं थी, हत्यारी नहीं थी, आतंकवादी नहीं थी। उसे फिक्र केवल अपने उस जनप्रतिनिधि की थी जो नयी सरकार द्वारा इस अंचल की, की जा रही उपेक्षा के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद किया करता था और उसे अकारण गिरफ्तार कर लिया गया था। क्या अभिव्यति की सचमुच स्वतंत्रता इस राष्ट्र में है? मैं राजा नहीं था, अपितु पूर्व विधायक होने के साथ साथ जनता का ऐसा प्रतिनिधि था जिसे पूरा बस्तर अपना मानता था, स्नेह देता था और जिसके लिये कुरबान हो जाने को तत्पर था।.... हाँ यही मेरा दोष था। नक्सल समर्थक ध्यान पूर्वक अपनी स्मृति पैनी करें जिन्हें ये लगता है कि वे मानसिक कोढ़ी कोई बड़ी लड़ाई लड़ रहे हैं, यह बस्तर उनके मुख पर थूकना ही चाहता है।....। जब जब लडऩा चाहता था बस्तर, एक साथ उठ खड़ा हुआ और जब लडऩा चाहेगा बस्तर तो बन्दूक नहीं अपने तीखे बाण ले कर ही उतरेगा। ......महाराज कुछ पल रुके अब जब वे बोले तो उनके स्वर से वेदना गहरी प्रतीत होती थी -यह दास्तान 1965 की है, बस्तर अकाल की चपेट में था और सरकारी तंत्र चरमरा गया था। बस्तर भी कालाहाण्डी हो जाता अगर मैं मंहगाई और अकाल की दोहरी मार झेल रही जनता के बीच नहीं जाता। आपसी सामंजस्य और एकता प्रदर्शित कर इन आदिमों नें चमत्कार कर दिया। जमाखोरों से अवमुक्त हो कर ये आदिम साप्ताहिक बाजार की परिकल्पना के साथ और दुर्भिक्ष से बिना सरकारी मदद लिये लडऩे के संकल्प के साथ उतरे और सरकारी मूल्य से आधे दाम में अपने सामान, उपज और उत्पाद बाजार को उपलब्ध कराने लगे। यह एक सरकार की हार और उस जनता की जीत थी जिसका विकास कराये जाने का दावा यह विकासशील, आर्थिक प्रगतिशील राष्ट्र करता है।..... मेरे नेतृत्व में हजारों आदिम महिलायें नीली साड़ी में और युवक नीली पगड़ी में बस्तर की अस्मिता के लिये और उस सरकार के खिलाफ एकत्रित हुए जिसे बस्तर नक्शे पर देखते ही मोतियाबिन्द हो जाता था। आदिमों का एकत्र होना एक स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी क्यों नहीं माना गया और इनकी माँगे और उद्देश्य जानने के बाद भी ये बागी क्यों करार दिये गये इसका जबाब इस कृतघ्न राष्ट्र नें कभी नहीं दिया। इसका जवाब उन कम्बख्तों के पास भी नहीं है जो नक्सलियों के महिमामंडन में मानवाधिकार की मनगढंत कहानियाँ गढ़ते हैं। कहाँ गया था उन आदिमों का मानवाधिकार जो सरकार से सवाली थे। उनके सिर, सीने और आँखों को निशाना बना बना कर उस दिन गोलियाँ चलायी गयी जब इन्होंने समझौते की पेशकश की थी। ये आदिम किसी उद्देश्य के लिये अथवा व्यक्ति के समर्थन में एकत्रित भी हो जाते और अपना विरोध बुलंद भी कर लेते तो क्या भारत की सत्ता पर काबिज हो जाते या व्यवस्था बदल देते? यह केवल क्षेत्र विशेष का संघर्ष था क्षेत्रीय प्रशासन के ही विरुद्ध अपनी अस्मिता और उन अधिकारों के लिये जिससे वे वंचित होने या किये जाने लगे थे।.... 25 मार्च 1966 को सुरक्षा बलो ने आदिमों पर निर्मम होना प्रारंभ किया जो राजमहल परिसर में एकत्रित थे। लाठीचार्ज, अश्रुगैस और गोलीबारी... यह आजाद भारत की घटना है। जिन आदिमों नें आत्मसमर्पण भी किया उन्हें भी इस कदर पीटा गया जैसे ये आदम जानवर ही हों जैसा कि तथाकथित सभ्य समाज समझता है। मंैने स्वयं कई आदिम साथियों को महल से बाहर निकलने में मदद की जिनमें महिलाएँ और बच्चे भी थे। मैं निहत्थों पर होने वाले लाठीचार्ज से विचलित हो गया था और आक्रोशित भी। अपने कक्ष की ओर बढ़ते हुए पोर्च की सीढिय़ों पर मैऩे कदम रखा ही था कि मुझे निशाना कर दागी गयी एक गोली..... आह!! मैं गोली लगने की पीड़ा से छटपता हुआ किसी तरह अपने कक्ष तक पहुँचा और बिस्तर पर लेट गया। अपने अर्दली को म़ैने चाय लाने का इशारा किया... कमरे में अश्रुगैस भरने लगी थी। गोली का दर्द और अश्रु गैस की जलन... मेरी चेतना मेरा साथ छोड़ रही थी को मैं अपने आसपास होने वाली हलचल से सावधान हुआ। मुझे चारो ओर से सशस्त्र सिपाहियों नें घेर रखा था... मैं निहत्था था, अकेला भी उस वक्त, लेकिन मैं उन आदिमों के साथ था जो आदमी नहीं कहाते तो मेरे पास ही मानवाधिकार क्या होते... एक या दो नहीं....मुझे गोलियों से छलनी कर दिया गया था।....। अलविदा मेरे बस्तर... मैं आखिरी साँस तक तेरा ही था, तेरे लिये लड़ा, तेरे लिये मरा... अलविदा बस्तर कि अब तेरी भी आखिरी साँसे ही हैं- महाराज की आँखे नम हो रहीं थी और मुँदने लगी थीं और मेरी आँखे खुल गयीं। यह केवल स्वप्न नहीं था।
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मैंने उठ कर अपनी मातृभूमि बस्तर की माटी का नमन किया जहाँ के शासक महाराज प्रबीर जैसे क्रांतिकारी रहे हैं। प्रबीर हमेशा जिन्दा रहेंगे, पूजे जाते रहेंगे... मन बोझिल हो गया था कि तभी अखबार वाले नें खिडक़ी को निशाना लगा कर जो अखबार फेंका था वह बिलकुल मेरे सामने आ गिरा। एक समाचार पर निगाह ठहर गयी सलवा जुडुम एक विफल प्रयोग। मैंने बहुत गहरी स्वांस ली और एक सवाल खुद से ही पूछा- नक्सलवाद से आधा भारत प्रभावित है लेकिन क्या बस्तर के आदिमों को छोड़ कर किसी और प्रांत के लोग इन आतंकवादियों के खिलाफ कहीं भी और किसी भी तरह लामबंद हुए?- उत्तर था - नहीं। यह साहस केवल बस्तर में ही संभव है, मेरे बस्तर के जाँबाज आदिम अपनी लड़ाई खुद लड़ सकते हैं। नक्सलवादियों तुम्हें ये आदिम निरीह लगते होंगे कि अभी कोई गुंडाधुर उठ खड़ा नहीं हुआ वरना बिल में दुबके चूहे भगाने के लिये धनुष की टंकार की काफी है। सावधान!! अब बहुत हो चुका, माओ...जाओ...
यह केवल स्वप्न नहीं था
-राजीव रंजन प्रसाद
आई प्रबीर-द आदिवासी गॉड देर रात तक इस पुस्तक पर आँखें गड़ाये रहा, कब नींद आ गयी पता ही नहीं लगा। सीने पर पड़ी किताब से एक सपना आँखों के भीतर चू गया। मेरे सम्मुख देवताओं की तरह दिखने वाला व्यक्तित्व खड़ा था - चौड़ा ललाट, बोलती हुई आँखें और कंधे तक बिखरे हुए बाल। एक दिव्य मुस्कुराहट उनके व्यक्तित्व की शोभा थी और ललाट पर तिलक उनके आकर्षण को विस्तार दे रहा था। मुझे पहचानते देर न लगी कि मैं बस्तर अंचल के अंतिम शासक और माँ दंतेश्वरी के अनन्यतम पुजारी के सम्मुख खड़ा हूँ। स्वपन में भी यह चेतना रही कि स्वप्न देख रहा हूँ। सपने में भी निश्चित ही मुस्कुराहट खिल उठी होगी कि मुन्नाभाई की गाँधीगिरि का सिनेमा, हाल ही में देखा था और स्मृतियों में ताजा था। लेकिन अवचेतन में यह खयाल कहाँ था?
महाराज के स्वाभाविक सम्मान में मेरा मस्तक स्वयं नत हो गया। चालीस साल से भी अधिक हो गये महाराज प्रबीरचंद भंजदेव 'काकतीय की नृशंस हत्या को।... अब क्या है जिसकी तलाश में यह महान आत्मा मेरे स्वप्न को कुरेदती है? सवाल बहुत थे और उत्तर पाना भी चाहता था, कि एक आत्मीय सा हाथ मेरे कंधे पर रख कर उन्होंने कहा - कहाँ जा सकता हूँ, इस मिट्टी के कण कण में मैं ही तो हूँ। मिट्टी में मिल कर भी कहाँ मिटा मैं?।
मैं इस सच से वाकिफ था। बात आज-कल की ही है, मैं बिलकुल वटवृक्ष हो चुके उस आदिम से मिला और पूछ बैठा महाराज साहब के बारे में,.... फिर मेरी आँखे फटी रह गयीं। बाबा नें मुझे खा जाने वाली नजरों से देखा, जैसे महाराज प्रबीर का नाम ले कर मैंने कोई गुनाह कर दिया हो और अनन्य श्रद्धा से वह भूमि पर इतनी बार नतमस्तक हुआ कि मुझे मेरा उत्तर मिल गया। आज के दौर का है कोई राजनीतिज्ञ ऐसा, जो जनमानस की आत्मा में बसता हो? जो अपनी मौत के बाद भी सहित-आत्मा जीवित हो कोटि-कोटि हृदय में?
.... बचपन की मेरी धुंधली सी स्मृति में आज भी है कि एक साधुवेशी पाखंडी नें स्वयं को महाराज का पुनर्जन्म घोषित कर दिया था और आदिम जनता जैसे भावावेश में अंधी हो गयी थी। उस पाखंडी के मुर्गा न खाने के तुगलकी फरमान पर अंचल में मुर्गे, बाजारों से उठ गये थे... यह मुझे आज के दौर की राजनीति में असाधारण घटना जान पड़ती है। (राजतंत्र और लोकतंत्र पर बहस मेरे आलेख का मकसद नहीं है अपितु सत्ता के सम्मान की विवेचना भर प्रस्तुत करना चाहता हूँ)।
स्वप्न गहरा था और महाराज मुझसे मित्रवत गहरी गहरी बातें करने लगे। बात रात की तरह लम्बी हुई और हम इतिहास की परत उधेडऩे लगे।
आप भारत में बस्तर राज्य का विलय नहीं चाहते थे, अपितु इसे स्वाधीन राष्ट्र बनाना चाहते थे क्या यह सच नहीं? मैंने बड़ा प्रश्नवाचक लगा कर पूछा।
इस पर महाराज मुस्कुरा दिये और मुझ पर ही प्रश्नसूचक दृष्टि डाल कर उन्होंने पूछा क्या बस्तर आज भारत का हिस्सा है? मैं इस प्रश्न के लिये प्रस्तुत नहीं था इसलिये सकपका गया।
समुचित सडक़ व्यवस्था का आज भी अभाव, रेल केवल लोहा ढोने भर के लिये, पानी के लिये त्राहि, बिजली तो आधा अंचल जानता ही नहीं कि क्या बला है, इस पर दिल्ली की जगमग में शेष देश मौन, कौन जानता है कि बस्तर है कहाँ और आदिवासी कैसे हैं, और हैं कौन? महाराज की ये बाते तार्किक थीं और व्यवस्था पर गंभीर प्रहार करती थीं। फिर वे स्वत: ही गंभीर हो गये और बोले- यह भारत कि आजादी का ही वर्ष था यानी कि 1947, मेरा राज्याभिषेक अनुबंधों और प्रतिबंधों की कड़ी में हुआ और फिर समाप्त... सर्वेसर्वा का एकदम से अधिकारविहीन हो जाना एक प्रकार की मन: स्थिति है और राजनीतिक फैसले अपने समय का सच होते हैं जिन्हें आज के समय से जोड़ कर सही और गलत की कसौटी में नहीं कसा जा सकता। फिर भी यह प्रश्न मैं अवश्य करना चाहूँगा कि जिस लोकशाही की परिकल्पना हमारा संविधान करता है क्या आज इस अंचल में कहीं भी दृष्टिगोचर होती है? दारू पिलाओ वोट लो, कपड़ा बाँटो और वोट लो, क्या इसी सच पर आज इस अंचल का जनप्रतिनिधित्व नहीं टिका? मैं मौन ही रहा, चूँकि इस आक्षेप का उत्तर संभव है किसी के पास न हो बस्तर में नक्सलवादिता की भविष्यवाणी मैंने अपनी पुस्तक में भी की है। मेरी पुस्तक आई प्रबीर द आदिवासी गॉड में मैंने स्वयं को अपने ही लोगों से काटे जाने की सरकारी साजिश का विरोध करते हुए लिखा था कॉंग्रेस नें कभी भी यह अनुभव नहीं किया कि वे प्रचीन संवैधानिक शिक्षा की पाठशालायें, साम्यवाद के कुप्रभाव के लिये एक कारगर रोक बन सकती थीं। बस्तर भारत के अन्य प्रांतो की तरह न तो सुगम है न ही सहज। गहरी समझ चाहिये किसी प्रशासक को। मैंने सहमति में सिर हिलाया। क्या आज जैसी तबाही और इस शांत अंचल में आतंकवाद के इस स्वरूप की किसी नें परिकल्पना की थी? क्यों ऐसी समस्याओं का निदान नहीं हो पाता जिसे कर पाना सरकारी इच्छाशक्ति पर ही निर्भर है? सच यह है कि इस अंचल की तबाही की कहानी लिखने वाली कलमें तो बहुत रही हैं इसके निर्माण को किसी नें दृष्टिकोण प्रदान नहीं किया।
तो क्या नक्सलवादी समस्या के बस्तर में पनपने का कारण सरकारी नीतियों की विफलता है और यह एक क्रांति है व्यवस्था के खिलाफ? मैने प्रश्न किया।
महाराज प्रबीर ठहाका लगा कर हँस पड़े फिर गंभीर हो गये। क्रंाति वह होती है जो भीतर से पनपती है, क्रांति प्रायोजित नहीं अपितु स्वत:स्फूर्त होती है। क्रांति विदेशी नहीं होती या कि विचारधारा का इश्तेहार ले कर नहीं जनमती। क्रांति एक घटना है जिसकी चिंगारी भीतर ही सुलगती है और फिर ऐसा दावानल हो जाती है जो बदल देती है एक पूरी की पूरी व्यवस्था। क्रांति नारों से नहीं आती, बल्कि क्रांति के दौरान नारे पैदा होते हैं। क्रांति किसी लाल-पीले झंडे की छाया में नहीं होती,..., क्रांति गुजरती है तब उसपर गीत बनते है, रंग भरे जाते हैं और पहचान दी जाती है।
आप सत्य कह रहे हैं राजा साहब किंतु यह आदिम समाज ऐसे ही तो नक्सलियों के प्रभाव में नहीं आया होगा? मैंने चर्चा को विस्तार दिया।
निश्चित ही प्रशासनिक विफलताएं भी कारण हैं। एक कारण यह भी है कि इतने बड़े भौगोलोक क्षेत्र को बिलकुल नजरंदाज किया गया। फिर भी आतंकवाद को कैसे क्रांति का मुलम्मा चढ़ा कर महिमामंडित किया जा सकता है? आज क्या हालात है? जो पिस रहा है वह यह गरीब अंचल और यहाँ के निरीह मुरिया-माडिया ही तो हैं? महाराज नें गंभीर स्वर में अपनी बात समाप्त की।
आप क्या यह नहीं मानते कि इन आदिमों को अपनी आवाज उठानी नहीं आती और एक तरह से नक्सली इनकी सहायता ही कर रहे हैं, शोषण के खिलाफ उनके संघर्ष में? मैंने जिज्ञासावश पूछा। मैं जानता था कि बस्तर की आत्मा से इस गंभीर प्रश्न का उत्तर मिलने वाला है। एक पल रुक कर उन्होंने दीर्घ नि:श्वास ली और फिर बोल पड़े -
इन आदिवासियों को किसी आयातित सिद्धांतों या कि संघर्षकर्ताओं की आवश्यकता नहीं है, इनके ही भीतर ऐसी आग है जो प्रलयंकारी है किंतु ये आदिम ऐसे ही हैं जैसे इन्हें हनूमान वाला शाप मिला हुआ हो, इनकी ताकत का इन्हें अहसास कराया जाये तो बस कयामत ही है। बहुत से उदाहरण इस अंचल का स्वर्णिम इतिहास हैं जो यह बताते हैं कि यदि नक्सलवाद स्वाभाविक होता तो किसी बंगाली, किसी तेलुगु लाल-आतंकी के कंधे पर चढ़ कर नहीं बल्कि किसी गुण्डाधुर के बाणों की नोंक से आरंभ होता।
यह गुँडाधुर कौन? मैंने सहज जिज्ञासावश पूछा। महाराज अतीत में डूब गये फिर एक कहानी उन्होंने आरंभ की जिस पर बहुत धूल जम गयी है।
यह घटना लगभग 1910 की है तब राजा रुद्र प्रताप देव का शासन था।.... आदिवासी अपनी परंपरओं को सहेज कर जीते हैं, और बस्तर अंचल पर अंगेजों के शासन के साथ ही ऐसे बदलाव का यह क्षेत्र गवाह होने लगा जिससे उनकी परंपरायें आहत हुईं। एक या दो नहीं लगभग दस बार संगठित या गैर संगठित विद्रोह अंग्रेजों, उनके नियुक्त दीवानों या कि राजा के विरुद्ध हुए। दरअसल इन विद्रोहों को ही क्रांति का नाम दिया जाना चाहिये। ये विद्रोह बताते हैं कि क्रांति परिस्थितिजन्य होती हंै तथा उन कारकों से पनपती है जो आंतरिक हैं।
..... भूमि पुत्र यदि अपने ही जंगलों, वनोत्पादों और भूमि पर कर-बोझ से लदे होंगे तो विद्रोह की चिनगारी पैदा होगी ही। तत्कालीन दीवान, पंडा बैजनाथ का बस्तर के प्रशासक होने के नाते भूमि से जुड़ा होना एवं उसकी सांस्कृतिक आवश्यकताओं को समझना आवश्यक था। तुगलकी फरमान जिनमें अनिवार्य शिक्षा और शराब बंदी जैसे आदेश भी सम्मिलित हंै दर-असल जबरन थोपे जाने के कारण गलत संदर्भ में देखे गये तथा आदिवासियों ने इसे अपनी परंपराओं के साथ खिलवाड़ माना और फिर संपूर्ण अंचल में उसी तरह की प्रतिक्रिया होने लगी जैसे कि गाय-सूअर की चरबी वाले कारतूस नें 1857 के पहले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सूत्रपात किया था।
... अंग्रेजों का अप्रत्यक्ष शासन होने के कारण बाहर से आने वाले लोगों की तादाद और उनके बढ़ते प्रभाव नें भी आग में घी डालने का काम किया।... यह भी सच है कि कुछ सुलगती हुई आग में घी डालने का काम राजपरिवार की आंतरिक राजनीति ने भी किया था। यह आंदोलन उग्र हो गया। ऐसी क्रांति घट गयी जिसकी कल्पना न राजा नें की थी, न ही राय बहादुर पंडा बैजनाथ नें और न ही इन कठपुतलियों के पीछे बैठी अंग्रेज हुकूमत ने। गुंडाधुर इस क्रांति का अगुआ था और उसके क्रांति का प्रतीक डारा मिरि (आम की डाल पर लाल मिर्च बाँध कर इस प्रतीक को बनाया गया था) का गाँव-गाँव में स्वागत हुआ, ज्योत से ज्योत जलने लगी। एकाएक बस्तर जाग गया। राजा, दीवान और अंग्रेजी हुकूमत की नींद हराम हो गयी कि ऐसे असाधारण आंदोलन परिवर्तन की ताकत रखते हैं।... फिर वह सब कुछ हुआ जिसके लिये अंग्रेज जाने जाते हैं। राजा ने तार से अंग्रेज आकाओं को सूचित किया और आनन फानन में मदद पहुँची भी। क्रांतिकारी, दीवान पंडा बैजनाथ की तलाश में आकाश पाताल एक किये हुए थे और साथ ही साथ उनके निशाने पर थे सरकारी संस्थान, संचार के साधन, मुनाफाखोर व्यापारी और अंग्रेजी सरकार के प्रतिनिधि। गोलियाँ चलती रहीं, लाशें बिछती रहीं और यह आंदोलन उग्र से उग्रतर होता रहा। और तब तक सफलता पूर्वक इस आन्दोलन ने अंग्रेजों को यह पाठ पढ़ाया कि आदिम होना नासमझ होना नहीं है या कि वे शोषित रहने के लिये कत्तई तैयार नहीं हैं जब तक अपनी प्रचलित फूट डालो और शासन करो की नीति के तहत अंग्रेजो नें इस अंचल में जयचंद नहीं तलाश लिया। आन्दोलनकारियों में से एक सोनू माँझी को अंग्रेजो नें अपनी ओर मिला लिया जिसकी मुखबिरी पर एक बड़ा नर-संहार हुआ। कुचल दिया गया आन्दोलन, क्रांति की निर्मम हत्या कर दी गयी।
मैं इस कहानी में खो गया था। यह स्पष्ट था कि अदिवासी मोम के पुतले नहीं हैं अपितु स्वाभिमानी और जीवट हैं। मैं सोच में पड़ गया कि फिर नक्सलवादिता यहाँ के जंगलों का आज अभिशाप कैसे बन गयी। कैसे इन आदिमों का स्वाभिमान कुचल कर आतंकवादी समानांतर सरकार चला पाने में सफल हुए? माओवादी खाओवादी बन कर दीमक से चट कर रहे हैं- बस्तर का सब कुछ, सुख भी, शाँति भी और संपदा भी।
मेरी निगाहों से यह प्रश्न स्वत: महाराज प्रबीर के पास पहुँच गया था। वे अब और भी गंभीर हो गये थे। महाराज नें इतिहास को कुरेदना जारी रखा। व्यवस्था कोई भी हो उसका जनता से सीधा संवाद होना चाहिये। लोकतंत्र वहाँ तक तो ठीक है जहाँ जनता इतनी जागरुक है कि अपने अधिकार जानती हो। अधिकार समझ सकने और उपभोग करने वाली जनता ही कर्तव्यों के प्रति भी जागरूक रहेगी। अन्यथा तो हम किसी क्षेत्र की बदहाली के दोषारोपण के लिये चेहरों और कारणों की तलाश करते रहेंगे, हासिल होगा शून्य। मैं आश्चर्य करता हूँ कि जो रिआया इतनी जागरुक थी कि उसमें अपने राजा का घेराव करने या उसकी लोक हित में अवहेलना तक करने का साहस था वह भेड़ कैसे हो गयी या बना दी गयी? मैं 1876 में राजा भैरमदेव के शासनकाल की ओर ले कर चलता हूँ। घटना रोचक है। राजा भैरमदेव प्रिंस ऑफ वेल्स से मुलाकात करने मुम्बई जा रहे थे। रियासत को मंत्रियों के हाँथो छोड़ देने के विरोध में जनता का उग्र हो जाना क्या यह प्रमाणित नहीं करता कि आदिम जनता की तत्कालीन राजनीति पर कितनी गहरी पकड़ थी?...... लेकिन अधिकार का नशा दीवानों से अधिक उनके चमचों और नौकरों को हुआ करता था। फैल रहे असंतोष की आपाधापी में दीवान के नौकरों/ चमचों के हाँथो कुछ मुरिया आदिवासियों की हत्या हो गयी।
....। जागरूक समाज उखड़ गया और प्रशासन कंदराएं तलाशने लगा। राजा के दीवान गोपीनाथ कपडदार, मुंशी अदित प्रसाद तथा राज्य के अन्य कुछ कर्मचारियों के अत्याचारों के विरुद्ध इस संग्राम में लगभग दस हजार से अधिक मुरिया और भतरा आदिवासियों की भीड़ नें बिना किसी हिंसा या रक्तपात के राजा भैरमदेव को जगदलपुर में हफ्तों घेरे रखा। सच कहूँ तो यह होता है आन्दोलन, जिसकी पृष्ठभूमि होती है, जो समाज पर गुजर रही पीड़ा की स्वाभाविक परिणति होते हैं। आन्दोलन, हत्या-कत्लेआम और बलात्कार के लिये नहीं होते, जैसा कि वर्तमान नक्सलवाद का स्वरूप है। आंदोलन का मकसद बलपूर्वक अपनी बात मनवा कर अपनी मर्जी की व्यवस्था पाना नहीं होता। व्यवस्था में क्या और कैसे परिवर्तन होनें चाहिये, वस्तुत: एक स्वत: स्फूर्त आँदोलन इसकी दिशा निर्धारित करता है।
.... आदिमों का यह आन्दोलन वार्ताओं और हस्तक्षेपों के कई दौर से गुजरा। पहले बिजगापट्टनम से साढ़े पाँच सौ सैनिकों की एक टुकड़ी आयी, उनसे वार्ता-विफलता के पश्चात बस्तर जिले के अंग्रेज सरकार नियुक्त पॉलिटिकल एजेंट तथा डिप्टी कमिश्नर को वार्ताकार होना पड़ा। आदिमों की राजनीतिक समझ की बानगी यह थी कि डिप्टी कमिश्नर को बिना किसी जाँच के उन मंत्रियों को बर्खास्त करने का हुक्म जारी करना पड़ा जो रिआया की राय में प्रशासन-निहित भ्रष्टाचार के जिम्मेदार थे। इसके पश्चात ही इस विद्रोह अथवा क्रांति की शांति संभव हो सकी।
मैं आवाक था। बस्तर का यह दूसरा ही चेहरा था। क्या बस्तर उस दौर के बाद तो नहीं पिछड़ा जब हम अपने लोकतांत्रिक गणतंत्र होने का दंभ दिल्ली में भर रहे थे? जिस बस्तर की रिआया इतनी जागरुक थी कि अपने राजा और दीवान का दंभ भी बर्दाश्त नहीं कर पाती थी, अंग्रेजी हुक्मरानों को भी मनमानी करने से रोक पाने की जिस जनता में ताकत थी, आज उसकी आवाज कहाँ है? आज तो जनता का, जनता के लिये, जनता के द्वारा शासन है? सारा भारत वर्ष तो यही जानता है कि बस्तर में पिछड़े, नंगे, भूखे लोग रहते हैं और सारी सभ्यता का ठेका इस प्रांत की परिधि के बाहर ही है। शायद सच यह है कि इस क्षेत्र की आवाज अब शासन तंत्र तक रही ही नहीं, ये जीते हैं तो इनकी किस्मत, मरते हैं तो माँ दंतेश्वरी की माया.... कौन है इनका सुध लेवा?
महाराज प्रबीर जैसे मेरी सारी मन:स्थिति समझ रहे थे। उन्होंने अपनी बात जारी रखी- मेरी मौत जागरुक बस्तर की मौत थी। मुझे गोलियों से भून दिया गया और यह सब केवल इस लिये कि मैं अपने राज्य के भारत गणराज्य में विलय के बाद भी मान्य जनप्रतिनिधि था। मुझे तत्कालीन सरकार ने पागल करार दिया, गिरफ्तार किया, मेरे अधिकार सीमित किये और फिर वह सब कुछ हुआ जिसके लिये यह अंचल जाना जाता है एक जागरूक जनता द्वारा क्रांति का स्वर बुलंद किया जाना। मेरी मौत क्यों हुई यह दास्तां फिर कभी, आज तुमसे चर्चा इस संदर्भ तक ही कि क्या बस्तर को अपनी आवाज उठाने के लिये नस्कली आतंकवादियों की आवश्यकता है?
... क्षेत्र की जनता आदिम है किंतु निरीह नहीं। बुस्शर्ट और पैंट नहीं पहनती लेकिन सभ्य समाज को आईना दिखा पाने की क्षमता इनमें है। लौहंडीगुड़ा का गोलीकांड जलियावाला बाग कांड की तरह ही नृशंस था क्या शेष भारत यह तथ्य जानता है? बात भी तब की जब भारत को आजाद हुए चौदह वर्ष होने को थे यानी कि वर्ष 1961। मेरी गिरफ्तारी का विरोध कर रही आम जनता उग्र नहीं थी, हत्यारी नहीं थी, आतंकवादी नहीं थी। उसे फिक्र केवल अपने उस जनप्रतिनिधि की थी जो नयी सरकार द्वारा इस अंचल की, की जा रही उपेक्षा के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद किया करता था और उसे अकारण गिरफ्तार कर लिया गया था। क्या अभिव्यति की सचमुच स्वतंत्रता इस राष्ट्र में है? मैं राजा नहीं था, अपितु पूर्व विधायक होने के साथ साथ जनता का ऐसा प्रतिनिधि था जिसे पूरा बस्तर अपना मानता था, स्नेह देता था और जिसके लिये कुरबान हो जाने को तत्पर था।.... हाँ यही मेरा दोष था। नक्सल समर्थक ध्यान पूर्वक अपनी स्मृति पैनी करें जिन्हें ये लगता है कि वे मानसिक कोढ़ी कोई बड़ी लड़ाई लड़ रहे हैं, यह बस्तर उनके मुख पर थूकना ही चाहता है।....। जब जब लडऩा चाहता था बस्तर, एक साथ उठ खड़ा हुआ और जब लडऩा चाहेगा बस्तर तो बन्दूक नहीं अपने तीखे बाण ले कर ही उतरेगा। ......महाराज कुछ पल रुके अब जब वे बोले तो उनके स्वर से वेदना गहरी प्रतीत होती थी -यह दास्तान 1965 की है, बस्तर अकाल की चपेट में था और सरकारी तंत्र चरमरा गया था। बस्तर भी कालाहाण्डी हो जाता अगर मैं मंहगाई और अकाल की दोहरी मार झेल रही जनता के बीच नहीं जाता। आपसी सामंजस्य और एकता प्रदर्शित कर इन आदिमों नें चमत्कार कर दिया। जमाखोरों से अवमुक्त हो कर ये आदिम साप्ताहिक बाजार की परिकल्पना के साथ और दुर्भिक्ष से बिना सरकारी मदद लिये लडऩे के संकल्प के साथ उतरे और सरकारी मूल्य से आधे दाम में अपने सामान, उपज और उत्पाद बाजार को उपलब्ध कराने लगे। यह एक सरकार की हार और उस जनता की जीत थी जिसका विकास कराये जाने का दावा यह विकासशील, आर्थिक प्रगतिशील राष्ट्र करता है।..... मेरे नेतृत्व में हजारों आदिम महिलायें नीली साड़ी में और युवक नीली पगड़ी में बस्तर की अस्मिता के लिये और उस सरकार के खिलाफ एकत्रित हुए जिसे बस्तर नक्शे पर देखते ही मोतियाबिन्द हो जाता था। आदिमों का एकत्र होना एक स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी क्यों नहीं माना गया और इनकी माँगे और उद्देश्य जानने के बाद भी ये बागी क्यों करार दिये गये इसका जबाब इस कृतघ्न राष्ट्र नें कभी नहीं दिया। इसका जवाब उन कम्बख्तों के पास भी नहीं है जो नक्सलियों के महिमामंडन में मानवाधिकार की मनगढंत कहानियाँ गढ़ते हैं। कहाँ गया था उन आदिमों का मानवाधिकार जो सरकार से सवाली थे। उनके सिर, सीने और आँखों को निशाना बना बना कर उस दिन गोलियाँ चलायी गयी जब इन्होंने समझौते की पेशकश की थी। ये आदिम किसी उद्देश्य के लिये अथवा व्यक्ति के समर्थन में एकत्रित भी हो जाते और अपना विरोध बुलंद भी कर लेते तो क्या भारत की सत्ता पर काबिज हो जाते या व्यवस्था बदल देते? यह केवल क्षेत्र विशेष का संघर्ष था क्षेत्रीय प्रशासन के ही विरुद्ध अपनी अस्मिता और उन अधिकारों के लिये जिससे वे वंचित होने या किये जाने लगे थे।.... 25 मार्च 1966 को सुरक्षा बलो ने आदिमों पर निर्मम होना प्रारंभ किया जो राजमहल परिसर में एकत्रित थे। लाठीचार्ज, अश्रुगैस और गोलीबारी... यह आजाद भारत की घटना है। जिन आदिमों नें आत्मसमर्पण भी किया उन्हें भी इस कदर पीटा गया जैसे ये आदम जानवर ही हों जैसा कि तथाकथित सभ्य समाज समझता है। मंैने स्वयं कई आदिम साथियों को महल से बाहर निकलने में मदद की जिनमें महिलाएँ और बच्चे भी थे। मैं निहत्थों पर होने वाले लाठीचार्ज से विचलित हो गया था और आक्रोशित भी। अपने कक्ष की ओर बढ़ते हुए पोर्च की सीढिय़ों पर मैऩे कदम रखा ही था कि मुझे निशाना कर दागी गयी एक गोली..... आह!! मैं गोली लगने की पीड़ा से छटपता हुआ किसी तरह अपने कक्ष तक पहुँचा और बिस्तर पर लेट गया। अपने अर्दली को म़ैने चाय लाने का इशारा किया... कमरे में अश्रुगैस भरने लगी थी। गोली का दर्द और अश्रु गैस की जलन... मेरी चेतना मेरा साथ छोड़ रही थी को मैं अपने आसपास होने वाली हलचल से सावधान हुआ। मुझे चारो ओर से सशस्त्र सिपाहियों नें घेर रखा था... मैं निहत्था था, अकेला भी उस वक्त, लेकिन मैं उन आदिमों के साथ था जो आदमी नहीं कहाते तो मेरे पास ही मानवाधिकार क्या होते... एक या दो नहीं....मुझे गोलियों से छलनी कर दिया गया था।....। अलविदा मेरे बस्तर... मैं आखिरी साँस तक तेरा ही था, तेरे लिये लड़ा, तेरे लिये मरा... अलविदा बस्तर कि अब तेरी भी आखिरी साँसे ही हैं- महाराज की आँखे नम हो रहीं थी और मुँदने लगी थीं और मेरी आँखे खुल गयीं। यह केवल स्वप्न नहीं था।
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मैंने उठ कर अपनी मातृभूमि बस्तर की माटी का नमन किया जहाँ के शासक महाराज प्रबीर जैसे क्रांतिकारी रहे हैं। प्रबीर हमेशा जिन्दा रहेंगे, पूजे जाते रहेंगे... मन बोझिल हो गया था कि तभी अखबार वाले नें खिडक़ी को निशाना लगा कर जो अखबार फेंका था वह बिलकुल मेरे सामने आ गिरा। एक समाचार पर निगाह ठहर गयी सलवा जुडुम एक विफल प्रयोग। मैंने बहुत गहरी स्वांस ली और एक सवाल खुद से ही पूछा- नक्सलवाद से आधा भारत प्रभावित है लेकिन क्या बस्तर के आदिमों को छोड़ कर किसी और प्रांत के लोग इन आतंकवादियों के खिलाफ कहीं भी और किसी भी तरह लामबंद हुए?- उत्तर था - नहीं। यह साहस केवल बस्तर में ही संभव है, मेरे बस्तर के जाँबाज आदिम अपनी लड़ाई खुद लड़ सकते हैं। नक्सलवादियों तुम्हें ये आदिम निरीह लगते होंगे कि अभी कोई गुंडाधुर उठ खड़ा नहीं हुआ वरना बिल में दुबके चूहे भगाने के लिये धनुष की टंकार की काफी है। सावधान!! अब बहुत हो चुका, माओ...जाओ...
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