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Oct 15, 2008

हंसी का पिटारा बनते हमारे न्यूज चैनल को चाहिए सिर्फ सनसनी

हंसी का पिटारा बनते हमारे न्यूज चैनल को चाहिए 
सिर्फ सनसनी
- विकल्प ब्यौहार

हमारे देश में एक कामेडियन है राजू श्रीवास्तव । राजू ने एक टीवी शो में इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर जोक सुनाया था कि मुंबई में बाढ़ के हालत थे और एक आदमी डूब रहा था। एक टीवी रिपोर्टर ने उससे सवाल किया कि डूबते हुए आप कैसा महसूस कर रहे हैं? राजू ने मजाक में जो बात कह दी आज मैं इस लतीफे की गंभीरता पर आना चाहता हूँ । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कभी कभी ऐसे कारनामें कर बैठता है कि उसका वर्णन कर पाना भी मुश्किल हो जाता है। अखबार कि तुलना में ख़ुद को ज्यादा तेज दिखने के चक्कर में वह हस्यास्पद बन जाता है।

अभी हाल ही में एक सबसे तेज न्यूज़ चैनल ने जिनेवा में हो रहे महाप्रयोग पर सनसनीखेज रिपोर्ट दी कि इस प्रयोग के शुरू होते ही संसार खत्म हो जाएगा हालांकि अब वह प्रयोग ही तकनीकी खराबी के कारण बंद हो गया है, लेकिन बेचारी इंदौर कि एक गरीब छात्रा इतना डर गई कि उसने प्रलय नहीं देखने का मन बनाया और ज़हर खा कर आत्महत्या कर ली। उस चैनल को इससे कोई फर्क नही पड़ा उसे तो चाहिए सनसनी जो उसने फैला दी।

इसी तरह उसी चैनल में एक और प्रोग्राम आता है जिसमें एक बुजुर्ग पत्रकार सामने बैठी किसी हस्ती की बखिया उधेडऩे में लग जाता है। दर्शकों को बताया जाता है कि इस कार्यक्रम में सवाल पूछे जायेंगे लेकिन उस कार्यक्रम को देखने से तो यही लगता है कि यह वाद विवाद का कार्यक्रम है।

हर गंदे सवाल पर बुजुर्ग पत्रकार ख़ुद को और भी बड़ा महसूस करने लगता है। सामने बैठा व्यक्ति ज्यादा उग्र नहीं हो सकता क्योंकि मीडिया से मुंह लड़ाने का अधिकार उसे नही मिला है। मैं साफ़ करना चाहूँगा कि मै कभी नहीं चाहता कि किसी न्यूज़ चैनल के खिलाफ़ प्रचार करूं लेकिन एक पत्रकार होते हुए खऱाब पत्रकारिता देखी भी तो नही जाती है।

आरुषि हत्याकांड के मामले में भी हमने समाचार चैनलों में एक मृत बच्ची कि बेइज्जती होते देखी है। नकली आवाज़ से एक ड्रामा दिखाया गया कि पापा ऐसा मत करो, ये पाप है, पापा.... एक बाप की वीभत्स तस्वीर उकेर दी गई थी, आखिर ऐसा ड्रामा क्रिएट करके चैनल क्या साबित करना चाहता है।
उस किशोरी का मोबाइल फोन, कम्प्यूटर, लेपटाप और डिजिटल कैमरे के अंदर के भेद उजागर होने लगे। एक जघन्य, अपराध को नौटंकी बना दिया गया और इसे न सिर्फ नित्य बल्कि एक ही दिन में छ:छ: बार दिखाने लगे। हद हो गई।

हमारी संवेदनाएं भी क्या उस लडक़ी की मौत के साथ मर गईं । हम किसी की मौत को भी भुनाने में पीछे नहीं रहते। बाद में कोर्ट ने तो आरुषि के पापा को बरी कर दिया लेकिन उस न्यूज़ चैनल ने उस टूट चुके परिवार से माफ़ी मांगने की जरूरत तक महसूस नहीं की।

मोनिका बेदी जेल से छुटी नहीं कि चैनल वालों ने उसे हाथो हाथ ले लिया, यही नहीं एक चैनल ने तो बाकायदा उसे अपने एक रीयलटी शो में भी शामिल कर लिया। अब अबू सलेम कैसे चुप बैठता, लो बन गया बैठे बिठाए एक मसालेदार कार्यक्रम, अबू सलेम अपनी प्रेमिका की एक झलक पाने, जेल के कमरे में केबल कनेक्शन चाहता है। अपराध से जुड़े लोग आज सेलीब्रिटी बनते जा रहे हैं। मोनिका बेदी का साक्षात्कार प्रसारित किया जा रहा है, ऐसे सवाल पूछे जा रहे हैं जिससे जनता यह अनुमान लगाए कि मात्र तीन बार की मुलाकात में उन्होंने क्या- क्या किया होगा? अबू से कितनी बार कहां- कहां किस रूप में मिली.....

इसी तरह भारत में लोग अन्धविश्वास कि चपेट में न जाने कब तक रहेंगे। कई संस्थाएं इसे खत्म करने कि कोशिश में हैं। दूसरी ओर समाचार चैनलों में रात बारह बजे से सुबह सात आठ बजे तक ज्योतिषियों का कब्जा होता है। तरह तरह के तांत्रिक नुमा कपड़े पहने बाबा बैरागी एंकर बने होते हैं। इनके माध्यम से लोगों का तांत्रिक समाधान समाचार चैनल वाले कर रहे हैं। प्रिंट मीडिया का एक अच्छा संपादक जिस तरह की ख़बरों को कचरे के डिब्बे में फेंक देता है उस तरह कि ख़बरों पर मसाला पोत कर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दिखा रहा है।

भारत एक संवेदनशील देश है खासकर धर्म के मामले में। लेकिन कभी कभी धार्मिक भावनाओं को भडक़ाने वाले समाचार बेधडक़ दिखाए जाते हैं। इस पर भी रोक लगनी चाहिए।

एक साल पहले अभिषेक और ऐश्वर्या कि शादी सभी समाचार चैनलों में खूब चली थी। जब भी बिग बी के घर का दरवाजा हिलता अचानक बाकी समाचार बंद हो जाते और भारत के नागरिकों को जबरिया फिल्मी हस्तियों को देखना पड़ता। मैं यहां इस बात का जिक़्र इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि मैं वह तारिख नहीं भूल सकता क्योंकि उसी दिन छत्तीसगढ़ में एक बड़ी नक्सली घटना हुई थी जिसका समाचार मुझे उस शादी के कारण देखने को नहीं मिला था। ऐसे ही एक बिना ड्राईवर कि चलती कार पर टीवी चैनलों ने अपने 5 घंटे झोंक दिए जिसमे बाद में बताया गया कि एक आदमी उसे ट्रिक से चला रहा था। और सबसे ज्यादा बधाई की पात्र हमारी देश की वह जनता है जो बड़ी ही इमानदारी से ऐसे चैनलों को देखने कि ड्यूटी निभा रही है।

पत्रकारिता में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एक क्रांति है जिसका अच्छा उपयोग सामाजिक चेतना फैलाने में किया जा सकता है। लेकिन दुर्भाग्य से वे दिशाहीन हो रहे हैं। अफसोस की बात है कि अब यह बीमारी प्रिंट मीडिया में भी देखने को मिल रही है। कई बड़े अखबार अपने कई पन्ने रंगीन अर्धनग्न तस्वीरों को समर्पित कर रहे हैं। वे शब्दों कि ताकत को शायद नही जानते है। ईश्वर इन्हें माफ़ करे। ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।

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