परिंदे जब गुनगुनाते हैं जीवन का गीत
- सत्यनारायण भटनागर
- सत्यनारायण भटनागर

हिन्दी में एक सन्त कवि हो गए हैं मलूकदास। उनकी ये पंक्तिया बहुत सुनाई जाती है, दोहराई जाती है।
अजगर करें न चाकरी, पंछी करे न काज।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।
व्यवहारिक अनुभव में मलूकदास के इन विचारों से सहमत होने का कोई कारण दिखाई नहीं देता। दुनिया में कर्मवाद का सिद्धांत प्राणी मात्र पर दिखाई देता है। पंछी पर तो विशेष रूप से कर्म का सिद्धांत प्रभावी दिखाई देता है। पंछी बिना काम किए दाना पानी प्राप्त कर ही नहीं सकता। हम अक्सर देखते है कि पंछी प्रात: काल की पहली किरण के साथ पंख फडफ़ड़ाकर आकाश में उड़ान भरते है। वे खोजते है दाना-पानी। कैसी ही आंधी चले, वर्षा हो, तूफान आए, आसमान से सूरज अंगारे बरसाए या बर्फ गिरे पंछी समस्त परिस्थियों में संघर्षरत रहता है। वह बिना काम के एक क्षण भी नहीं रहता। पंछी कर्मयोगी होता है। वह अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक कर्मयोगी बना रहता है। सन्त कवि मलूकदास ने अध्यात्म की दृष्टि से जो कुछ कहा, वह वास्तविक जीवन का सच नहीं है। इस दोहे ने आलसियों को भले ही सन्तोष दिया हो किन्तु यह व्यवहारिक जीवन का सच नहीं है। पंछी अनेक जातियों के है। अधिकतर पक्षियों के पंख होते है और ये हवा में उड़ते हैं। ये अत्यंत सुंदर होते हैं, भोले होते हैं और स्वतंत्र होते हैं। कोई पक्षी गुलाम मानसिकता का हो ही नहीं सकता। जो पींजरे में बंद हैं, वे मजबूर है। पींजरे में रहना उनका आनन्द नहीं है। सब सुख सुविधा पाने के बाद भी उर्दू के प्रसिद्ध शायर इकबाल ने लिखा है-
ए तायरे-लाहूती उस रिज्क से मौत अच्छी
जिस रिज्क से आती हो परवाज में कोताही ..

पक्षी निहारने का आनन्द- पक्षी निहारने के क्षण जहां हमें आनन्द देते हैं, वहां वे हमारे लिए शिक्षालय का काम भी करते है। उनकी प्रत्येक गतिविधि का अर्थ होता है, उनका बोलना, चहचहाना, गाना अपने आप में मगन रहना आदि हमें जीवन में प्रेरणा देता है। स्मरण रहे पक्षी कभी अवसाद में नहीं जाते। कितने ही तूफान हो, वर्षा हो, वे संघर्ष करते है। संघर्ष करते हुए मृत्यु को भले ही प्राप्त हो पर वे तनावग्रस्त हो आत्म हत्या नहीं करते। अब पक्षी निहारने के कार्य में लगे वैज्ञानिक भी मानने लगे है कि पक्षी भी अनुभव से हमारी तरह ही सीखते है उनमें तर्क की समझ होती है। वे समय के साथ अपने आप में परिवर्तन कर लेते है। पक्षी निहारना जहां हमें शिक्षा देता है, वहीं तनाव से मुक्त भी करता है। परिंदे निहारते समय उनकी प्रत्येक गतिविधि पर ध्यान दिया जाता है। वे कैसे रहते है? उनका आकार और रंग कैसा है। वे क्या खाते है वे प्रवास करते है तो किस मौसम में करते है। प्रजनन के लिए घोंसला कहां बनाते हैं आदि। पक्षी के प्रति प्रेम-प्रकृति के प्रति प्रेम है।
हमारी प्राचीन कथाओं में इसलिए पक्षियों का वर्णन है। लोक कलाओं में भी विभिन्न पक्षियों को कलाकृति के रूप में उकेरा गया है। भारतीय ऋषियों को हजारों वर्ष पूर्व यह ज्ञान हो गया था कि मानव इस प्रकृति श्रंृखला की एक कड़ी है। मानव में योग्यता, क्षमता है कि वे इस वर्ग की रक्षा कर सके। मानव परिन्दों को सहजीवी बनाए। अध्यात्म में पक्षी- भारतीय ऋषियों ने आत्मा को अणु के रूप में माना है और प्रतीक रूप में आत्मा व परमात्मा को दो मित्र पक्षियों की उपमा दी है। मुण्डक और श्वेताश्वसर उपनिषदों में इन्हें दो ऐसे मित्र पक्षी बताए है जो एक ही वृक्ष पर बैठे है। इसमें एक पक्षी संसार रूपी वृक्ष के फलों को खा रहा है और दूसरा परमात्मा रूपी पक्षी अपने मित्र को देख रहा है। परमात्मा की ही अंश रूप आत्मा है। इनमें समान गुण है किन्तु हम संसार रूपी वृक्ष के भौतिक फलों पर मोहित हो परमात्मा को विस्मृत कर देते है। परमात्मा साक्षी रूप हमें निहारता रहता है। इन उपनिषदों में कहा गया है-
सामने वृक्षे परूषों निमगोन्डनीशया शोचति मुहयमान।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यभीशमस्य महिमानमिति वीत शोक:।।

संकट में है पक्षी - आज पक्षी जगत संकट में है। हम पक्षियों की ओर ध्यान नहीं दे रहे। अपने स्वार्थो की पूर्ति के लिए अंधाधुंद रसायनिक खाद और कीटनाशकों का प्रयोग कर रहे है। प्रकृतिविदों के अनुमान के अनुसार भारत में पाई जाने वाली 1700 प्रजातियों में से अनेक खतरे के बिन्दु पर पहुंच रही है। अस्सी प्रजातियां तो विलोपित हो गई है। घटते जंगल और बढ़ती आबादी प्रतिदिन परिन्दों के जीवन को दुश्वार बना रहे है। पक्षीविद् विश्वमोहन तिवारी कहते है- इसमें किसी को सन्देह नहीं होना चाहिए कि पंछी नहीं तो मनुष्य भी नहीं बचेगा। भारतीय ऋषियों की हजारों वर्ष पूर्व की इस समझ का हमें ध्यान रखना चाहिए कि प्रकृति के सन्तुलन को बचाए रखने में हमारा भी सक्रिय योगदान होना चाहिए।
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