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Apr 27, 2009

आपके पत्र

 विवधताओं से पूर्ण
उदंती में गजब का सम्मोहन है। पत्रिका इतनी विविधताओं से भरी और चित्रमय है कि पढऩे और देखने दोनों में बराबर का आनंद है। पत्रिका का फलक व्यापक होते हुए भी यह मुख्यत: छत्तीसगढ़ को ही फोकस करती है। छत्तीसगढ़ में इतनी मोहक पत्रिका अब तक देखने में नहीं आई। हां इसमें साहित्य का हिस्सा थोड़ा कम है। इसे बढ़ाया जाना चाहिए।
-लोकबाबू, लक्ष्मीनगर, रिसाली, भिलाई नगर (छ.ग.)
लोक कला का लुप्त होना चिंतनीय
बांस गीत इस सुरीली तान को सहेजना होगा में लेखक राजेश अग्रवाल ने लुप्त होने की कगार पर एक लोकसंगीत से हमें परिचित कराया है। बांस गीतों का सिमटते जाना वास्तव में चिंता का विषय है। आज जब देश के अन्य राज्यों जैसे गुजरात, राजस्थान, उत्तरप्रदेश में अपनी लोक कला के संरक्षण की दिशा में विशेष प्रयास किए जा रहे हैं वहीं छत्तीसगढ़ की एक खास पहचान बना कर रखने वाली कला बांस गीत का खत्म होते जाना दुखद है। राज्य में दूसरी बार जीत कर आई भाजपा सरकार से इतनी तो उम्मीद की ही जा सकती है कि वह छत्तीसगढ़ की लोककलाओं व यहां के लोक कलाकारों की ओर ध्यान दे।
- अनूप सक्सेना, लखनऊ (उ.प्र.)
श्रम के संकेत
छत्तीसगढ़ की राजधानी में भव्यता एवं दिव्यता के साथ पत्रिका निकालने में देश की राजधानी के लोग फेल हो गए हैं वही सुरुचिपूर्ण और चित्राकर्षण पत्रिका आपने परोसा है। बिना किसी बड़े व्यावसायकि प्रतिष्ठान, सरकारी तंत्र से जुड़े इतना बड़ा प्रयास, साहस और आयोजन अपूर्व है। उदंती के हर पन्ने पर अभिरूचि और श्रम के संकेत हैं। बहुत बहुत बधाई
- बालेन्दु शेखर तिवारी, प्रोफेसर, मोराबादी, रांची
सधी कलम
जनवरी और फरवरी अंक देखने को मिला। संपूर्ण और आकर्षक पत्रिका के लिए ढेर सारी बधाईया। पत्रिका की सामग्री स्तरीय है। फरवरी अंक की तीनों कविताएं समकालीन कविता से स्पर्धा रखती हैं। भाई परदेशी और पांडेजी की कलम सधी हुई है।
- डॉ. बलदेव, श्रीराम कालोनी, रायगढ़
सास गारी देवे ...
हम छत्तीसगढ़ वासियों के लिए यह खुशी की बात है कि हमारा लोक गीत पूरे देश में लोगों की जुबान पर है .... आपने यह भी सच ही कहा है कि फिल्म दिल्ली 6 के इस गीत सास गारी देवे.... को सुनने के बाद महसूस हुआ कि फिल्म के निर्माता, निर्देशक, गीतकार और संगीतकार यदि इस बात की पुष्टि कर लेते कि इस गीत के वास्तविक बोल क्या हैं, तो गीत को और भी अधिक सुंदर और मधुर बनाया जा सकता था। फिर भी जितना है उतना भी मधुर और कर्णप्रिय है।
-अंजना शुक्ला, रायपुर
कड़वी सच्चाई
फरवरी अंक सुरुचिपूर्ण है। मीडिया पर आधारित उमेश चतुर्वेदी का लेख हम कितने जिम्मेदार हैं... में लेखक ने एक कड़वी सच्चाई से अवगत कराया है। आज मीडिया नाटकीय और सनसनीखेज रिपोर्टिंग के जरिए हमें न जाने क्या-क्या परोस रहा है। मीडिया का यह दृश्य माध्यम गंभीर समस्याओं में भी सनसनी फैला कर अपने दर्शकों को गुमराह कर रहा है, साथ ही एक खास दर्शक वर्ग को अपने से दूर भी।
- मुक्ता शर्मा, सतना (म.प्र.)

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