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Apr 27, 2009

सापेक्ष में 58 रचनाकार एक साथ

सापेक्ष में 58 रचनाकार एक साथ
हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं में समकालीन सृजन और समाज की वैज्ञानिक चेतना के लिए प्रतिबद्ध दुर्ग छत्तीसगढ़ से निकलने वाले सापेक्ष ने एक लंबा सफर तय किया है। सापेक्ष के संपादक महावीर अग्रवाल ने हाल ही में इसका 50 वां विशेष अंक प्रकाशित किया है। यह 50वां अंक पूर्व के अंकों से इसलिए भिन्न है क्योंकि इसमें हिन्दी साहित्य आलोचकों एवं साहित्यिकारों पर केंद्रित विशिष्ट सामग्री संकलित की गई है।
इस अंक में वरिष्ठतम आलोचक रामविलास शर्मा से लेकर नवोदित आलोचक व्योमेश शुक्ल तक कुल 58 रचनाकारों के विचारों को शामिल किया गया है। अन्य आलोचक हैं त्रिलोचन, कमलेश्वर, रामस्वरुप चतुर्वेदी, विष्णुकांत शास्त्री, बच्चन सिंह, नामवर सिंह, राममूर्ति त्रिपाठी, रमेश कुंतल मेघ, शिव कुमार मिश्र, कुंवर नारायण, डॉ. निर्मला जैन, भवदेव पाण्डेय, विश्वनाथ त्रिपाठी, मैनेजर पाण्डेय, अशोक बाजपेई, परमानंद श्रीवास्तव, घनंजय वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु खरे, वीरेन्द्र सिंह, विजेन्द्र नारायण सिंह, नंदकिशोर नवल, राजेश्वर सक्सेना मधुरेश, विजय बहादुर सिंह, प्रभाकर श्रोत्रिय,, खगेन्द्र ठाकुर, कमला प्रसाद, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, रमेश दवे, कुंवरपाल सिंह, प्रदीप सक्सेना, शंभुनाथ, विजय कुमार, मंगलेश डबलाल, राजेश जोशी, अरुण कमल, अनामिका, सुधीश पचौरी, अजय तिवारी, मदन सोनी, अरविन्द त्रिपाठी, वीरेन्द्र यादव, एकांत श्रीवास्तव, कृष्ण मोहन, सियाराम शर्मा, प्रणय कृष्ण, सूरज पालीवाल, साधना अग्रवाल, देवेन्द्र चौबे, रघुवंश मणी, बजरंग बिहारी तिवारी, बसंत त्रिपाठी, प्रियम अंकित तथा पंकज पराशर।
सापेक्ष में उल्लेखनीय बात यह है कि इसके पूर्व महावीर जी ने सापेक्ष में अनेक नामी व्यक्तित्व एवं विषयों पर केंद्रित कई विशेषांक प्रकाशित किए हैं जिसमें लोक संस्कृति, गजल, उत्तर आधुनिक सौंदर्यशास्त्र और द्वंदवाद, उत्तर आधुनिकता और द्वंदवाद, व्यंग्य सप्तक, विज्ञान का दर्शन, नाटक, मुकुटधर पाण्डेय, बाबा नागार्जुन, त्रिलोचन, देवेन्द्र सत्यार्थी, कबीर, शमशेर तथा हबीब तनवीर का रंग संसार शामिल है।
हिन्दी आलोचना पर केन्द्रित 'सापेक्ष 50' जिसमें 850 पृष्ठ हैं का मूल्य मात्र 150 रूपये है ।
जंगल एक गीत है
श्री प्रकाशन दुर्ग से प्रकाशित अजय पाठक की किताब जंगल एक गीत है पर्यावरण के रक्षक अनाम शहीदों को समर्पित है ... आरंभ में अजय पाठक ने अपनी बात भी जंगल के गीतों से माध्यम से की है- इस पाती में इस अनुभव का पल- पल सौंप रहा हूं, कर- कमलों में , गीत सुनाता जंगल सौंप रहा हूं। संकलन के सभी गीत जंगल के जीवन को केन्द्र में रख कर रचे गए हैं जैसे- सरगुजा के साल वन में, वनवासी, घोटूल, सल्फी, हाट भरा था, धूप सेंकते बंदर, चिडिय़ा, कुहरा और झरते फूल पलाश के आदि। जंगल की व्यथा को वे कुछ इन शब्दों में व्यक्त करते हैं- जंगल रोता है पतझर में, मैंने उसकी पीड़ा देखी, आंसू देखे हैं तरुवर में, जंगल रोता है पतझर में। और यह भी कि काट कर इन्हें क्या पायेगा, तेरे हिस्से बस संताप आयेगा। कुल मिलाकर जंगल और बिखरते पर्यावरण को उन्होंने अपनी भावनाओं के साथ मिलाकर बखूबी पिरोया है। पुस्तक का आवरण पृष्ठ नाम के अनुरुप आकर्षक है। कीमत जरुर कुछ अधिक है 100 रुपए। कागज एवं छपाई साफ सुथरी है।
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ऐसा क्यों
आप देर से दफ्तर पहुंचते हैं तो हर कोई देखता है, पर आप जब देर तक काम करते हैं तो कोई ध्यान नहीं देता।
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