पारसी थियेटर से प्रभावित छत्तीसगढ़ के लोक नाट्य
-प्रो. अश्विनी केशरवानी
-प्रो. अश्विनी केशरवानी
छत्तीसगढ़ में लोकनाट्य दो रूपों में विकसित हुआ। एक तो निम्न वर्ग के देवार, नट, भट ने आल्हा उदल, ढोला मारू जैसी परंपरा तथा पंडु, कंवर और संवरा जाति ने पंडवानी और पंथी को विकसित किया। छत्तीसगढ़ में इसका प्रचार-प्रसार लगभग 16 वीं और 17 वीं शताब्दी के मध्य हुआ।
अभिनय मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है। हर्ष, उल्लास और खुशी से झूमते, नाचते-गाते मनुष्य की सहज अभिव्यक्ति है अभिनय। छत्तीसगढ़ के लोक जीवन की झांकी गांवों के खेतों, खलिहानों, गली, चौराहों और घरों में स्पष्ट देखी जा सकती है। इस ग्रामीण अभिव्यक्ति को 'लोक नाट्यÓ कहा जाता है। छत्तीसगढ़ में लोक नाट्य की प्राचीन परंपरा रही है। यही आगे चलकर नाटक के रूप में विकसित हुआ। 'नाट्य शास्त्रÓ जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथ का प्रणयन दूसरी सदी में हुआ। भरत मुनि ने ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गान, यजुर्वेद से अभिनय, और अथर्वेद से रस लेकर इसकी रचना की। भरत मुनि के समक्ष लोकधर्म का आदर्श सर्वोपरि था। कदाचित् इसी कारण उन्होंने लोकधर्म के प्रति अपना अनुराग दर्शाया है।
छत्तीसगढ़ में लोकनाट्य दो रूपों में विकसित हुआ। एक तो निम्न वर्ग के देवार, नट, भट ने आल्हा उदल, ढोला मारू जैसी परंपरा को तथा पंडु, कंवर और संवरा जाति ने पंडवानी और पंथी को विकसित किया। छत्तीसगढ़ में इसका प्रचार-प्रसार लगभग 16 वीं और 17 वीं शताब्दी के मध्य हुआ। उत्तर भारत के रासलीला और रामलीला मथुरा, वृंदावन, काशी और इलाहाबाद से सतना, रीवा, अमरकंटक होते हुए पेंड्रा, रतनपुर, शिवरीनारायण, अकलतरा, सारंगढ़, किकिरदा, मल्दा, नरियरा, बलौदा, कवर्धा, कोसा और राजिम आदि में फैल गया। इसलिए छत्तीसगढ़ी भाषा में ब्रज और अवधी का पुट मिलता है। दूसरी ओर बंगाल की जात्रा, उड़ीसा की पाल्हा, जगन्नाथपुरी से सुंदरगढ़, संबलपुर, सारंगढ़, चंद्रपुर, पुसौर, रायगढ़, और तमनार आदि जगहों मेंं फैल गया। यहां की नाट्य परंपराओं में इसका स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। पं. हीराराम के गीत गाये प्रचलित थे -
कृष्ण कृपा नहिं जापर होई दुई लोक सुख ताहिं न होई।
देव नदी तट प्यास मरै सो अमृत असन विष सम पलटोई।।
धनद होहि पै न पावै कौड़ी कल्पद्रुम तर छुधित सो होई।
ताको चन्द्र किरन अगनी सम रवि-कर ताको ठंढ करोई।।
द्विज हीरा हरि चरण शरण रहु तोकू त्रास देइ नहिं कोई।।
डॉ. बल्देव से मिली जानकारी के अनुसार रायगढ़ के राजा भूपदेवसिंह के शासनकाल में नगर दरोगा ठाकुर रामचरण सिंह जात्रा से प्रभावित रास के निष्णात कलाकार थे। उन्होंने इस क्षेत्र में रामलीला और रासलीला के विकास के लिए अविस्मरणीय प्रयास किया। गौद, मल्दा, नरियरा और अकलतरा रासलीला के लिए और शिवरीनारायण, किकिरदा, रतनपुर, सारंगढ़ और कवर्धा रामलीला के लिए प्रसिद्घ थे। नरियरा के रासलीला को इतनी प्रसिद्घि मिली कि उसे 'छत्तीसगढ़ का वृंदावनÓ कहा जाने लगा। ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर, उनके बहनोई कोसिरसिंह और भांजा विश्वेश्वर सिंह ने नरियरा और अकलतरा के रासलीला और रामलीला के लिए अथक प्रयास किया। उस काल में जांजगीर क्षेत्रान्तर्गत अनेक गम्मतहार सुरमिनदास, धरमलाल, लक्ष्मणदास चिकरहा का नाचा पार्टी में रास का यथेष्ट प्रभाव देखने को मिलता था। उस समय दादूसिंह गौद और ननका रहस मंडली, रानीगांव रासलीला के लिए प्रसिद्घ था। वे पं. हीराराम त्रिपाठी के श्री कृष्णचंद्र का पचरंग श्रृंगार गीत गाते थे-
पंच रंग पर मान कसें घनश्याम लाल यसुदा के।
वाके वह सींगार बीच सब रंग भरा बसुधा के।।
है लाल रंग सिर पेंच पाव सोहै,
अंखियों में लाल ज्यौं कंज निरखि द्रिग मोहै।
है लाल हृदै उर माल कसे जरदा के।।1।।
पीले रंग तन पीत पिछौरा पीले।
पीले केचन कड़ा कसीले पीले।।
पीले बाजूबन्द कनक बसुदा के ।। पांच रंग ।।2।।
है हरे रंग द्रुम बेलि हरे मणि छज्जे।
हरि येरे वेणु मणि जडि़त अधर पर बज्जे।।
है हरित हृदय के हार भार प्रभुता के।। पांच रंग।। 3।।
है नील निरज सम कोर श्याम मनहर के।
नीरज नील विसाल छटा जलधर के।।
है नील झलक मणि ललक वपुष वरता के।। पांच रंग।।4।।
यह श्वेत स्वच्छ वर विसद वेद जस गावे।
कन स्वेत सर्वदा लहत हृदय तब आवे।।
द्विज हीरा पचरंग साज स्याम सुखदा के।। पांच रंग।।5।।
इसी प्रकार छत्तीसगढ़ में नाट्य लेखन की परंपरा रही है। भारतेन्दु युग में हिन्दी रंगमंच का निर्माण हुआ और अधिक से अधिक अभिनय, नाटक और प्रहसन आदि लिखे और प्रस्तुत किये गये। हालांकि यह रंगमंच सामाजिक परिस्थितियों के कारण चिरस्थायी न रह सका और उसका स्थान पारसी थियेट्रिकल कम्पनियों ने ले लिया। इसके अवसान काल में सिनेमा का प्रादुर्भाव हुआ। इसके बावजूद लोग सजीव व्यक्ति को अपने सम्मुख उनके और उनकी समस्याओं का अभिनय करते देखना चाहते थे। इस युग में अंग्रेजी और संस्कृत नाटकों के अनुवाद का प्रचलन था।
सुप्रसिद्घ साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चंद्र के बाल सखा, कवि और सुप्रसिद्घ आलोचक ठाकुर जगमोहन सिंह के प्रिय शिष्य और शिवरीनारायण के मालगुजार पंडित यदुनाथ भोगहा के सुपुत्र पं. मालिकराम भोगहा ने रामराज्यवियोग, प्रबोध चंद्रोदय, और सती सुलोचना नाटक लिखा। इन नाटकों का शिवरीनारायण के अलावा कई स्थानों में सफलता पूर्वक मंचन किया गया। भोगहा जी ने शिवरीनारायण में एक नाटक मंडली बनायी थी।
छत्तीसगढ़ के अनेक साहित्यकारों ने नाटक लिखा है। इनमें साहित्य वाचस्पति जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' के पिता श्री बक्षीराम ने 'हनुमान' नाटक लिखा था। रायगढ़ के पं. अनंतराम पांडेय ने सन 1903 में 'कपटि मुनि' नाटक लिखा था जिसे मंचित भी किया गया। द्विवेदी युगीन साहित्यकार पंडित शुकलाल पांडेय ने 1930 में मातृमिलन नाटक लिखा था। पंडित लोचन प्रसाद पांडेय ने सन 1994 में 'साहित्य सेवा' प्रहसन लिखा था। डॉ. बल्देव प्रसाद मिश्र ने शंकर दिग्विजय, वासना वैभव, समाज सेवक, दानी सेठ, असत्य संकल्प और क्रांति आदि नाटक लिखा है। उनके नाटकों के कथोपकथन काव्यमय और चमत्कारपूर्ण हैं। उनके कुछ नाटकों की शैली पारसी नाट्य परंपरा पर आधारित है।
छत्तीसगढ़ी में व्यवस्थित नाट्य लेखन की शुरूवात डॉ. खूबचंद बघेल से होती है। उन्होंने सन 1930 से 1950 के बीच अनेक नाटक लिखा जिसमें ऊंच नीच, करम छटहा, जनरैल सिंह, बेटवा बिहाव, किसान के करलई और काली भाटो आदि प्रमुख हैं। वे अपने इन नाटकों का उपयोग छत्तीसगढ़ में जनजागरण के लिए करते थे। पंडित शुकलाल पांडेय ने छत्तीसगढ़ी में भूल भुलईया, गींया, छत्तीसगढ़ी ग्राम गीत, कलिकाल, उपसहा दामाद, सीख देवैया, केकरा धरैया आदि लिखा है। डॉ. प्यारेलाल गुप्त ने छत्तीसगढ़ी नाटक 'दू सौत' लिखा है। इसी प्रकार श्रीरामगोपाल कश्यप ने 'माटी के मोल', डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने सोनहा बिहान, गुरू चेला, भोला बनाइले, महेत्तर साहू ने 'राजा बेटा', नारायणलाल परमार ने 'भुल सुधार' और भुवनलाल मिश्र ने 'रतिहा मदरसा' नामक छत्तीसगढ़ी नाटक लिखकर नाट्य परंपरा को पुष्ट किया है।
छत्तीसगढ़ी नाटकों को लोकनाट्य के बजाय हिन्दी और एकांकी से प्रभावित समस्या मूलक नाटक कहा जाना अधिक उपयुक्त होगा। क्योंकि इनमें समसामयिक चेतना तो है लेकिन गांव की अल्हड़ता नहीं है। इनमें समसामयिक लोक भाषाओं का उद्दाम आवेग, लोकधर्मी प्रस्तुतियां नहीं होती और न ही इन्हें खुले मंच पर खेला जा सकता है। रंगकर्मी चाहे तो इन्हें आधार बनाकर लोकनाट्य के रूप में प्रस्तुत कर सकता है। जैसे डॉ. खूबचंद बघेल ने काली माटी, रामचंद्र देशमुख ने सरग अऊ नरक, जनम अऊ मरन, हबीब तनवीर ने चरनदास चोर, मोर गांव के नाम ससुराल मोर नाम दामद और महासिंह चंद्राकर ने सोनहा बिहान को सफलता पूर्वक प्रस्तुत किया है।
लोकनाट्य की स्वाभाविक भावधारा को श्री रामचंद्र देशमुख द्वारा निर्देशित 'चंदैनी गोंदा' ने आज के सिनेमाई युग में संबल प्रदान किया है। इनसे प्रभावित होकर अनेक कला मंडलियों, नाट्य संस्थाओं और कला पथकों का निर्माण हुआ मगर सिनेमाई युग की मार, उसमें प्रदर्शित पश्चिमी अंग प्रदर्शन के दृश्य ने कुछ ही समय में उसे धराशायी कर दिया। यह अत्यंत चिंता का विषय है कि हमारी सांस्कृतिक परंपराएं धीरे-धीरे लुप्त होने लगी हैं। इसके संरक्षण की दिशा में प्रयास किया जाना उचित होगा।
बहुत कम लोगों को मालूम है कि शिवरीनारायण का अभिनय संसार केवल छत्तीसगढ़ में ही नहीं वरन् देश के कोने-कोने में प्रसिद्घ था। हालांकि हर गांव में नाचा, गम्मत, रामलीला और रासलीला पार्टी होती थी लेकिन यहां की रामलीला और नाटक मंडली की बात ही कुछ और थी। 'छत्तीसगढ़ गौरव' में पंडित शुकलाल पांडेय ने लिखा है-
ब्रज की सी यदि रास देखना हो तो प्यारों
ले नरियर नरियरा ग्राम को शीघ्र सिधारों
यदि लखना हो सुहृद ! आपको राघव लीला
अकलतरा को चलो, करो मत मन को ढीला
शिवरीनारायण को जाइये लखना हो नाटक सुघ्घर
बस यहीं कहीं मिल जायेंगे जग नाटक के सूत्रधार।
प्राचीन साहित्य में उल्लेख मिलता है कि पंडित मालिकराम भोगहा ने एक नाटक मंडली यहां बनायी थी। इस नाटक मंडली द्वारा अनेक धार्मिक और सामाजिक नाटकों का सफलता पूर्वक मंचन किया जाता था। भोगहा जी भी छत्तीसगढ़ के एक उत्कृष्ट नाटककार थे। उन्होंने अनेक नाटक लिखे जिसमें राम राज्य वियोग, प्रबोध चंद्रोदय और सती सुलोचना प्रमुख हैं। इन नाटकों का यहां सफलता पूर्वक मंचन भी किया गया था।
इस सदी के दूसरे दशक में महंत गौतमदास के संरक्षण में पंडित विश्वेश्वर तिवारी के कुशल निर्देशन में एक नाटक मंडली संचालित होती थी जिसे उनके पुत्र कौशलप्रसाद तिवारी ने 'महानद थियेट्रिकल कम्पनी' नाम से कुशलता पूर्वक संचालित और निर्देशित किया। इसी प्रकार श्री भुवनलाल शर्मा 'भोगहा' के निर्देशन में नवयुवक नाटक मंडली और विद्याधर साव के निर्देशन में केशरवानी नाटक मंडली संचालित थी। कौशलप्रसाद तिवारी ने भी एक बाल महानद थियेट्रिकल कम्पनी का गठन किया था। आगे चलकर इस नाटक मंडली को उन्होंने महानद थियेट्रिकल कंपनी में मिला दिया। पंडित कौशलप्रसाद तिवारी पारसी थियेटर के अच्छे जानकार थे। उनको नाटकों का बहुत अच्छा ज्ञान था। वे नाटक मंडली के केवल निर्देशक ही नहीं बल्कि एक अच्छे कलाकार भी थे। कलकत्ता के नाट्य मंडलियों और निर्देशकों से उनका सतत् संपर्क था।
नाटकों का मंचन पहले केशवनारायण मंदिर प्रांगण में होता था। फिर मठ के गांधी चौरा प्रांगण में और बाद में बाजार में, कुआं के बगल में होता था। महानद थियेट्रिकल कम्पनी के कलाकारों को कलकत्ता के डॉ. अब्दुल शकूर और खुदीराम बोस रिहर्सल कराने आते थे। तब उन्हें 'बाजा मास्टर' कहा जाता था।
कौशलप्रसाद तिवारी, रथांग पांडेय और गुलजारीलाल शर्मा के द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार सन् 1944-45 में अंग्रेज सरकार के सहायतार्थ नाटकों का मंचन मेला के मैदान में किया गया था। इसे देखने के लिये सारंगढ़ के राजा, भटगांव, बिलाईगढ़, अकलतरा, पिथौरा के जमींदार और अनेक गांव के मालगुजार, अंग्रेज अधिकारी और बिलासपुर जिले के कलेक्टर सहित बहुत लोग आये थे। तब सिनेमा और सर्कस खाली रहते थे और पूरी भीड़ नाटक देखने के लिये उमड़ पड़ी थी। नाटक के एक ट्रिक सीन को देखकर अंग्रेज अधिकारी बहुत उत्तेजित हो गये थे जिन्हें बड़ी मुश्किल से शांत किया जा सका था। सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार महानद थियेट्रिकल कंपनी का निर्माण और नाटकों का पहला मंचन सन् 1925 में हुआ और अंतिम नाटक सन् 1952 में खेला गया था।
महानद थियेट्रिकल कम्पनी के द्वारा मंचित नाटकों में प्रमुख रूप ये धार्मिक और सामाजिक नाटक होते थे। धार्मिक नाटकों में सीता वनवास, सती सुलोचना, राजा हरिश्चंद्र, वीर अभिमन्यु, दानवीर कर्ण, सम्राट परीक्षित, कृष्ण और सुदामा, भक्त प्रहलाद, भक्त अम्बरीश आदि सामाजिक नाटकों में आदर्श नारी, दिल की प्यास, आंखों का नशा, नई जिंदगी, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, आदि प्रमुख थे।
इस थियेट्रिकल कम्पनी के प्रमुख पात्रों में श्री कौशलप्रसाद तिवारी, पंडित श्यामलाल, पंडित गयाराम, पंडित ओंकारप्रसाद, विशेशर चौबे, बनमाली भ_, प्यार पठान, गुलजारीलाल शर्मा, लक्ष्मण चौबे, रामगुलाम साव, जवाहर जायसवाल, भीम साव, बोधी पांडेय, दीनबंधु पोद्दार, मोहन भट्ट, रथांग पांडेय, भूषण तिवारी, मातादीन सेठ, हरि महाराज, सीताराम हलवाई, याकूब पठान, भालचंद्र तिवारी, तिजाऊ प्रसाद केशरवानी, केदार मुकिम, लादूराम पुजारी आदि प्रमुख थे। इनमेें गयाराम पांडेय अर्जुन और कंस, गुलजारीलाल शर्मा हिरण्य कश्यप, मातादीन केडिया दुर्योधन, लादूराम पुजारी द्रोणाचार्य और शंकर, तिजाऊ प्रसाद केशरवानी राणाप्रताप और भालचंद्र तिवारी प्रमुख नायक के रूप में तथा विशेशर चौबे, लक्ष्मण शर्मा, केदार मुकिम प्रमुख नायिका के अभिनय के लिये बहुत चर्चित थे। श्यामलाल शर्मा, बनमाली भट्ट और विश्वेश्वर चौबे हास्य कलाकार थे।
इन नाटक मंडलियों के कलाकार प्रतिष्ठित परिवारों के बच्चे थे और केवल मनोरंजन के लिये नाटक मंडलियों से जुड़े थे। क्योंकि उस समय मनोरंजन का कोई दूसरा साधन नहीं था। महंत लालदास के जीते जी महानद थियेट्रिकल कम्पनी के कलाकारों को आर्थिक सहयोग मठ से मिलता रहा उसके बाद पूरी नाटक मंडली बिखर गयी। यहां के नाटकों में अल्फे्रड, कोरियन्थर और पारसी थियेटर का स्पष्ट प्रभाव था। यह यहां के साहित्यिक पृष्ठभूमि का मजबूत अभिनय पक्ष है। केशरवानी नाटक मंडली तो कालकवलित बहुत पहले हो चुकी थी, भोगहा नाटक तो काफी दिनों तक नाटकों का मंचन करती रही है बाद में वह भी बंद हो गया।
पंडित शुकलाल पांडेय ने छत्तीसगढ़ की गौरवशाली नाट्य परंपरा के बारे में लिखा है-
हैं शिवलाल समान यहीं पर उत्तम गायक।
क्षिति गंधर्व सुरेश तुल्य रहते हैं वादक।
विविध नृत्य में कुशल यहीं हैं माधव नर्तक।
राममनोहर तुल्य यहीं हैं निपुण विदूषक।
हैं गयाराम पांडेय से अभिनेता विश्रुत यहीं।
भारत में तू छत्तीसगढ़ ! किसी प्रान्त से कम नहीं।।
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