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Apr 27, 2009

परिंदे जब गुनगुनाते हैं जीवन का गीत

परिंदे जब गुनगुनाते हैं जीवन का गीत
- सत्यनारायण भटनागर
भारत में पाई जाने वाली 1700 प्रजातियों में से अनेक खतरे के बिन्दु पर पहुंच रही है। अस्सी प्रजातियां तो विलोपित हो गई है। घटते जंगल और बढ़ती आबादी प्रतिदिन परिन्दों के जीवन को दुश्वार बना रहे है।
हिन्दी में एक सन्त कवि हो गए हैं मलूकदास। उनकी ये पंक्तिया बहुत सुनाई जाती है, दोहराई जाती है।
अजगर करें न चाकरी, पंछी करे न काज।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।
व्यवहारिक अनुभव में मलूकदास के इन विचारों से सहमत होने का कोई कारण दिखाई नहीं देता। दुनिया में कर्मवाद का सिद्धांत प्राणी मात्र पर दिखाई देता है। पंछी पर तो विशेष रूप से कर्म का सिद्धांत प्रभावी दिखाई देता है। पंछी बिना काम किए दाना पानी प्राप्त कर ही नहीं सकता। हम अक्सर देखते है कि पंछी प्रात: काल की पहली किरण के साथ पंख फडफ़ड़ाकर आकाश में उड़ान भरते है। वे खोजते है दाना-पानी। कैसी ही आंधी चले, वर्षा हो, तूफान आए, आसमान से सूरज अंगारे बरसाए या बर्फ गिरे पंछी समस्त परिस्थियों में संघर्षरत रहता है। वह बिना काम के एक क्षण भी नहीं रहता। पंछी कर्मयोगी होता है। वह अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक कर्मयोगी बना रहता है। सन्त कवि मलूकदास ने अध्यात्म की दृष्टि से जो कुछ कहा, वह वास्तविक जीवन का सच नहीं है। इस दोहे ने आलसियों को भले ही सन्तोष दिया हो किन्तु यह व्यवहारिक जीवन का सच नहीं है। पंछी अनेक जातियों के है। अधिकतर पक्षियों के पंख होते है और ये हवा में उड़ते हैं। ये अत्यंत सुंदर होते हैं, भोले होते हैं और स्वतंत्र होते हैं। कोई पक्षी गुलाम मानसिकता का हो ही नहीं सकता। जो पींजरे में बंद हैं, वे मजबूर है। पींजरे में रहना उनका आनन्द नहीं है। सब सुख सुविधा पाने के बाद भी उर्दू के प्रसिद्ध शायर इकबाल ने लिखा है-
ए तायरे-लाहूती उस रिज्क से मौत अच्छी
जिस रिज्क से आती हो परवाज में कोताही ..
अर्थात ओ आसमान में उडऩे वाले पंछी उस जीविका से मौत अच्छी जिस जीविका में उडऩे में बाधा पड़ती हो। कोई पंछी घोसला बना कर भी नहीं रहना चाहता, सब खुले आसमान के नीचे किसी वृक्ष की छाया में अपना बसेरा रखते है। पक्षी प्रकृति की सन्तान है, वे प्रकृति के साथ जीवन प्रारम्भ करते है और प्रकृति के साथ खेलते कुदते अठखेलिया करते अन्तिम सांस लेते है। प्रकृति कर्मयोग सीखती है। प्रकृति के साथ आलस्य रह नहीं सकता। पक्षी केवल प्रसव काल में अपने बच्चें पर आत्मनिर्भर होने तक घोसलों में रहते है। अपनी सन्तान के पंखों की ताकत आते ही वे खुले आकाश में उड़ कर गाना गाते है, नाचते है। गाते-खाते है इठलाते है। दुनिया भर के बवण्डरों के बाद भी पंछी अपने पंखों पर ही विश्वास करते है। चिडिय़ा पंछी आसमान में उड़ते हुए गाना गाती है। उसका गाना बिना साज के आनन्द देता है। वातावरण को मनोरम बनाता है। आसमान में उड़ते हुए क्या आपने किसी चिडिय़ा का बिना कारण चहचहाना सुना है। यह क्षण आनन्द का क्षण है, प्रसिद्ध विद्वान जोअन एग्लाड कहते है- चिडिय़ा इसलिए नहीं गाती कि उसके पास गाने के कारण है, वह गाती है क्योंकि उसके पास गीत है ..। प्रकृतिविद् कहते हैै कि चिडिय़ा अपने साथी को आकर्षित करने के लिए गाती है। चिडिय़ा न केवल गाती है, वह नाचती भी है। क्या आपने मयूर का नृत्य नहीं देखा। उस नृत्य को देखकर तो हमारा भी मनमयूर नाचने लगता है। नृत्य करना सामान्य क्रिया नहीं है। जब तक हमारा मन आनन्द से परिपूर्ण न हो हम नाच ही नहीं सकते। हम तो अपनी पद-प्रतिष्ठा और वातावरण के कारण संकोच धारण कर लेते है। सार्वजनिक रूप से नाचना ही नहीं चाहते किन्तु वास्तव में जब आनन्द के क्षण हमारे अन्दर हिलोरे लेने लगते है, तब हम बिना नाचे रह ही नहीं सकते। हमारे पैर तब अनायास थिरकने लगते है। इसलिए पक्षी हमें नृत्य का भरपूर आनन्द लेने का सन्देश देते है। अंग्रेजी के लेखक मार्क ट्वेन लिखते है- नृत्य का आरम्भ किया जाए, आनन्द को बेशुमार बनने दिया जाये.. पक्षी हमें सन्देश देते है आनन्द से नृत्य करने के लिए, मुक्त रूप से गीत गाने के लिए, निरन्तर कर्मरत रहने के लिए। पक्षी वर्ग हमारे पर्यावरण को स्वच्छ रखने में भी हमारे सहयोगी होते है। वे कीट, पतंगों का भक्षण कर अनायास ही हमारे वातावरण को शुद्ध करते है। आज हमारे प्राकृतिक परिवेश में गिद्ध अत्यन्त कम पड़ गए है अत: मृत पशु, पक्षियों की लाश दुर्गन्ध छोड़ती है एक विकराल समस्या खड़ी कर रहीं है। ये प्रकृति का सन्तुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। जलचर पक्षी जल में किल्लोल करते जहां आनन्द मनाते है, वहां जल की शुद्धि भी करते है। पक्षी पर्यावरण की शुद्धता-स्वच्छता बनाए रखने के लिए अनथक प्रयत्नशील अधिकारी है।
पक्षी निहारने का आनन्द- पक्षी निहारने के क्षण जहां हमें आनन्द देते हैं, वहां वे हमारे लिए शिक्षालय का काम भी करते है। उनकी प्रत्येक गतिविधि का अर्थ होता है, उनका बोलना, चहचहाना, गाना अपने आप में मगन रहना आदि हमें जीवन में प्रेरणा देता है। स्मरण रहे पक्षी कभी अवसाद में नहीं जाते। कितने ही तूफान हो, वर्षा हो, वे संघर्ष करते है। संघर्ष करते हुए मृत्यु को भले ही प्राप्त हो पर वे तनावग्रस्त हो आत्म हत्या नहीं करते। अब पक्षी निहारने के कार्य में लगे वैज्ञानिक भी मानने लगे है कि पक्षी भी अनुभव से हमारी तरह ही सीखते है उनमें तर्क की समझ होती है। वे समय के साथ अपने आप में परिवर्तन कर लेते है। पक्षी निहारना जहां हमें शिक्षा देता है, वहीं तनाव से मुक्त भी करता है। परिंदे निहारते समय उनकी प्रत्येक गतिविधि पर ध्यान दिया जाता है। वे कैसे रहते है? उनका आकार और रंग कैसा है। वे क्या खाते है वे प्रवास करते है तो किस मौसम में करते है। प्रजनन के लिए घोंसला कहां बनाते हैं आदि। पक्षी के प्रति प्रेम-प्रकृति के प्रति प्रेम है।
हमारी प्राचीन कथाओं में इसलिए पक्षियों का वर्णन है। लोक कलाओं में भी विभिन्न पक्षियों को कलाकृति के रूप में उकेरा गया है। भारतीय ऋषियों को हजारों वर्ष पूर्व यह ज्ञान हो गया था कि मानव इस प्रकृति श्रंृखला की एक कड़ी है। मानव में योग्यता, क्षमता है कि वे इस वर्ग की रक्षा कर सके। मानव परिन्दों को सहजीवी बनाए। अध्यात्म में पक्षी- भारतीय ऋषियों ने आत्मा को अणु के रूप में माना है और प्रतीक रूप में आत्मा व परमात्मा को दो मित्र पक्षियों की उपमा दी है। मुण्डक और श्वेताश्वसर उपनिषदों में इन्हें दो ऐसे मित्र पक्षी बताए है जो एक ही वृक्ष पर बैठे है। इसमें एक पक्षी संसार रूपी वृक्ष के फलों को खा रहा है और दूसरा परमात्मा रूपी पक्षी अपने मित्र को देख रहा है। परमात्मा की ही अंश रूप आत्मा है। इनमें समान गुण है किन्तु हम संसार रूपी वृक्ष के भौतिक फलों पर मोहित हो परमात्मा को विस्मृत कर देते है। परमात्मा साक्षी रूप हमें निहारता रहता है। इन उपनिषदों में कहा गया है-
सामने वृक्षे परूषों निमगोन्डनीशया शोचति मुहयमान।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यभीशमस्य महिमानमिति वीत शोक:।।
अर्थात यद्यपि दोनों पक्षी एक ही वृक्ष पर बैठे है किन्तु फल खाने वाला पक्षी वृक्ष के फल के भोक्ता रूप में चिन्ता और विषाद में निमग्न है। यदि किसी तरह वह अपने मित्र भगवान की ओर उन्मुख होता है और उनकी महिमा को जान लेता है तो वह कष्ट भोगने वाला पक्षी तुरन्त सब चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है ऋषियों का यह प्रकृति प्रेम ही आत्मा के प्रतीक रूप में उजागर हुआ है। पक्षी के इस अणु रूप की महत्ता बताने के लिए एक छोटी चिडिया गौरय्या की संकल्प कथा प्रचलित है जिसमें गौरय्या के बार-बार निवेदन करने पर भी समुद्र अण्डे वापस नहीं करता, तब गौरय्या ने अपनी छोटी-सी चोंच से समुद्र के पानी को उलेचने का यत्न प्रारम्भ किया। यह प्रयत्न हंसी का कारण हो सकता था किन्तु कथा कहती है कि भगवान विष्णु के वाहन पक्षीराज गरूड़ को जब इसकी जानकारी मिली तो उसने समुद्र को चेतावनी दी और तब समुद्र को अण्डे लौटाने पड़े। पक्षी राज गरूड़ की तो अनेक कथाएं महाभारत में वर्णित है। पक्षी केवल प्रतीक नहीं है। वे वास्तव में प्रकृति में सन्तुलन बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण कारक भी है। वे अनायास अध्यात्मिक जीवन का सन्देश भी देते है।
संकट में है पक्षी - आज पक्षी जगत संकट में है। हम पक्षियों की ओर ध्यान नहीं दे रहे। अपने स्वार्थो की पूर्ति के लिए अंधाधुंद रसायनिक खाद और कीटनाशकों का प्रयोग कर रहे है। प्रकृतिविदों के अनुमान के अनुसार भारत में पाई जाने वाली 1700 प्रजातियों में से अनेक खतरे के बिन्दु पर पहुंच रही है। अस्सी प्रजातियां तो विलोपित हो गई है। घटते जंगल और बढ़ती आबादी प्रतिदिन परिन्दों के जीवन को दुश्वार बना रहे है। पक्षीविद् विश्वमोहन तिवारी कहते है- इसमें किसी को सन्देह नहीं होना चाहिए कि पंछी नहीं तो मनुष्य भी नहीं बचेगा। भारतीय ऋषियों की हजारों वर्ष पूर्व की इस समझ का हमें ध्यान रखना चाहिए कि प्रकृति के सन्तुलन को बचाए रखने में हमारा भी सक्रिय योगदान होना चाहिए।

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