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Apr 27, 2009

भित्ति चित्रों के लोक चितेरे खेम वैष्णव

भित्ति चित्रों के लोक चितेरे  खेम वैष्णव
उदंती.com का यह अंक खेम वैष्णव के चित्रों से सज्जित है। प्राकृतिक रंगों से सजे खेम वैष्णव के चित्र लोक परंपरा का जीवंत चित्रण है। उनके चित्रो में बस्तर की संस्कृति का व्यापक फलक नजर आता है, जो उनके चित्रों को एक विशेष पहचान देता है।
बस्तर में भित्ति चित्रों की सुदीर्घ एवं समृद्घ परम्परा रही है और इस महत्त्वपूर्ण परम्परा को आगे बढ़ाने में लोक चित्रकार खेम वैष्णव का अवदान रेखांकित किये जाने योग्य है। लगभग चार दशकों से वे इस कला विधा से सक्रिय रूप से जुड़े रहे हैं।
बस्तर में जहां धातु शिल्प, प्रस्तर शिल्प, काष्ठ शिल्प आदि शिल्प विधायें उपलब्ध हैं वहीं भित्ति-चित्रों की भी अपनी विशिष्ट परम्परा रही है। लेकिन आज भित्ति-चित्रों के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है। ऐसे समय में बस्तर के लोक चित्रकार खेम वैष्णव की लोक कलाकृतियों में उद्भासित होती उनकी जिजीविषा हमें उस खतरे से जूझने का रास्ता बतलाती नजर आती है।
बस्तर के लोक चित्रों को उनकी प्रकृति के आधार पर 3 शैलियों में वर्गीकृत किया जा सकता है : 1. माडि़या शैली, 2. घोटुल शैली, एवं 3. जगार शैली। इनमें से जगार शैली के अन्तर्गत 4 रूप पाये जाते हैं : गड़, बाना या बाधा, हाता और छापा। खेम जगार शैली के कुशल चितेरे हैं। वे गड़ लिखते हैं। गड़ लिखना यानी भित्ति पर चित्रांकन करना।
खेम की कला यात्रा आरम्भ होती है उनके बाल्य-काल से। तब से जब वे महज कक्षा 4 के विद्यार्थी रहे। दादाजी एवं पिताजी 'कल्याण' पत्रिका के सदस्य रहे। सो 'कल्याण' का अंक प्रति माह घर में आता और खेम उन अंकों में छपे रंगीन और श्वेेत-श्याम चित्रों को बाल-सुलभ जिज्ञासा के साथ देखा करते। इस तरह देखते-देखते न जाने कब उनके भीतर एक चित्रकार का अंकुरण होता गया वे जान ही नहीं पाये। उन्होंने गेरु मिट्टी, स्याही की टिकिया, आलता आदि को रंग की तरह इस्तेमाल करना शुरु कर दिया और घर की दीवारों, उसके बाद कागज और कैनवास पर वे चित्र उकेरते चले गये। कागज तक तो ठीक था किन्तु दीवारों पर उनकी चित्रकारी मां को रास न आती। दीवारों को रंगना मां की दृष्टि में खेम की शरारत ही थी। सो वे उन्हें डांटतीं किन्तु खेम को कागज की बजाय दीवारों पर ही चित्रकारी करना अच्छा लगता था। बहरहाल, उनकी यह रुचि बढ़ती चली गयी। वे अपनी पाठशाला में भी एक चित्रकार के रूप में पहचान बन गई। उनके चित्रों में प्रमुखता से स्थान पाते थे विभिन्न पशु-पक्षी। मिडिल कक्षाओं तक आते-आते वे जल रंगों से भी परिचित हो चुके थे। वे हरी पत्तियों को भी वे रंगों की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं।
इसी बीच उन्हें अपने ननिहाल जाने का मौका लगा। वहां उस समय 'लछमी जगार' महोत्सव का आयोजन सम्पन्न हो रहा था। गुरुवार, जो लछमी जगार का सबसे महत्त्वपूर्ण दिन होता है, को जगार के आयोजकों को तत्काल कोई 'लिखनकार' (चित्रकार) नहीं मिल रहा था जबकि 'लछमी जगार' की परम्परा के अनुसार खेत से लछमी (लक्ष्मी) लाने के पूर्व ही जगार-स्थल पर लखी-नरायन (लक्ष्मी-नारायण) का चित्र अंकित हो जाना चाहिये।
संयोग से जगार-स्थल पर खेम अपनी माता के साथ उपस्थित थे। तभी मां ने जगार के आयोजकों से कहा कि उनका बेटा घर की दीवारों पर तरह-तरह के चित्र बनाया करता है। सम्भवत: वह यहां भी बना सके। इतना सुनकर आयोजकों ने खेम से चित्र बनाने को कहा। उस समय तक खेम 'लछमी जगार' में बनाये जाने वाले चित्र से अनभिज्ञ थे। तब जगार गायिकाओं के मार्गदर्शन में उन्होंने लछी-नरायन का चित्र लोक शैली में पहली बार बनाया। उनके बनाये चित्र की प्रशंसा हुई, और यहीं से उनके चित्रकार ने लोक- चित्रों से साक्षात्कार किया और तब से आज तक वे लोक- चित्रों के माध्यम से बस्तर की संस्कृति को कागज, कैनवास और दीवारों पर उकेरने में तल्लीन हैं।
अन्य रेखांकनों एवं चित्रों के अलावा बस्तर की वाचिक परम्परा के सहारे मुखान्तरित होते आ रहे चारों लोक महाकाव्यों (लछमी जगार, तीजा जगार, आठे जगार और बाली जगार) के उनके द्वारा किये गये विस्तृत रेखांकनों एवं चित्र-श्रृंखला को देख कर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि ये रेखांकन एवं चित्र खेम द्वारा इन लोक महाकाव्यों की चित्रात्मक व्याख्या हैं, कारण उन्होंने इन सभी लोक महाकाव्यों को आत्मसात् किया है।
दीवारों पर चित्रांकन करने के लिये वे पारम्परिक रंग ही प्रयोग में लाते रहे हैं- गेरु, छुई मिट्टी, पीली मिट्टी, कोयला, सेम की पत्तियां आदि। जहां तक बात प्रदर्शनियों की है, उनके लिये वे कागज या कपड़े पर चित्रांकन करते हैं लेकिन इनमें भी रंगों के लिये इन्हीं पारम्परिक साधनों का ही उपयोग करते हैं।
खेम भित्ति चित्रों के साथ लोक संगीत, लोक नाट्य और छायाचित्रों से भी जुड़े हैं, वे कहते हैं कि यों तो किसी भी कला का उद्देश्य जनरंजन और संस्कारित करना तो है ही किन्तु इसके साथ ही वे बस्तर के सुख-दु:ख को भी अपनी कला के माध्यम से रुपायित करना चाहते हैं और वे ऐसा कर भी रहे हैं। (उदंती फीचर्स)
खेम वैष्णव
31 जुलाई 1958 को अविभाजित बस्तर जिले के दन्तेवाड़ा में जन्मे लोक चित्रकार खेम वैष्णव ने लोक चित्रों की शिक्षा जगार गायिकाओं (गुरुमायों) से ली। 1970-71 से सृजनरत खेम की कलाकृतियों की प्रदर्शनियां और कार्यशालाएं देश के विभिन्न महत्वपूर्ण स्थानों पर लग चुकी हैं- जहांगीर आर्ट गैलरी, नेहरु सेन्टर, कमलनयन बजाज गैलरी मुम्बई, आल इंडिया फाईन आट्र्स एंड क्राफ्ट्स सोसायटी नई दिल्ली, इंजीनियरिंग इन्स्टीट्यूट आफ साइंस बैंगलोर, सूरजकुंड क्राफ्ट्स मेला, गुवाहाटी असम, पणजी गोवा, मद्रास, हैदराबाद, तथा कोलकाता के साथ 1992 में नारा सिटी जापान, 2002 में द राकेफेलर फाउन्डेशन न्यूयार्क (सं.रा. अमेरिका) के अन्तर्गत बेलाजो स्टडी एंड कांफ्रेंस सेन्टर बेलाजो (इटली) में ''जगार'' पर किए जा रहे शोध कार्य में प्रदर्शन। इसके अलावा उनकी कृतियां देश-विदेश में संग्रहीत भी हैं। समकालीन चित्रकला पर केन्द्रित 'इंडियन ड्राइंग टुडे 1987Ó पुस्तक जिसे जहांगीर आर्ट गैलरी ने ही प्रकाशित किया है, में देश के चोटी के कलाकारों सर्वश्री एम.एफ.हुसैन, के.के.हेब्बार, जतीनदास, अकबर पदमसी, जेराम पटेल, एन.एस.बेन्द्रे आदि की कलाकृतियों के साथ खेम वैष्णव के भित्ति-चित्र को देखना अपने-आप में महत्वपूर्ण और सुखद है।
लोकचित्रकला के साथ-साथ छायांकन एवं लोक संगीत में भी उनकी रुचि है। बस्तर के मौखिक लोक महाकाव्य 'लछमी जगार' पर केन्द्रित 'प्रि$जर्वेशन, प्रमोशन एंड डिसेमिनेशन ऑफ ट्राइबल एंड फोक आर्ट एंड कल्चर' विषय पर अध्ययन के सिलसिले में द राकेफेलर फाउन्डेशन, न्यूयार्क (सं.रा.अमेरिका) के बेलाजो (इटली) स्थित बेलाजो स्टडी एंड कान्फ्रेन्स सेन्टर में 2002 में 30 दिवसीय प्रवास भी उनकी उपलब्धियों में जुड़ा है। देश की विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं, उनके लोक चित्रों का प्रकाशन होता रहा है और भारत शासन, संस्कृति विभाग के सांस्कृतिक स्रोत एवं प्रशिक्षण केन्द्र नई दिल्ली द्वारा पारम्परिक भित्ति चित्र के लिए 'गुरु' की मान्यता भी उन्हें प्राप्त हुई है।
पता: सरगीपाल पारा, कोंडागांव 494226, बस्तर-छ.ग.
दूरभाष : 07786-242693, मोबा. : 93004-29264
ईमेल : lakhijag@sancharnet.in

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