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Apr 27, 2009

जंगली भैंसा संसार का सबसे खतरनाक प्राणी

जंगली भैंसा संसार का सबसे खतरनाक प्राणी
-बिमल श्रीवास्तव
भारत की भैंसें तो पालतू भैंसे अर्थात वॉटर बफैलो हैं। किन्तु अफ्रीका के भैंसे किंग बफैलो अथवा केप बफैलो हैं जो कभी पालतू नहीं बनाए जा सकते और बहुत ही खूंखार होते हैं। मौका पडऩे पर तो ये शेर को भी पछाड़ देते हैं।
कुछ वर्ष पूर्व मुझे केन्या की राजधानी नैरोबी के राष्ट्रीय उद्यान में जाने का अवसर मिला था। राष्ट्रीय उद्यान के गाइड नें हमें बताया कि अफ्रीका के पांच बड़ेे पशुओं में शेर, तेंदुआ, हाथी, गैण्डा तथा भैंसे का नाम आता है। इन्हें देखने के लिए यूरोप, अमरीका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया आदि के पयर्टक टूट-से पड़ते हैं। ये सारे पशु मात्र आकार के कारण नहीं बल्कि इसलिए बड़े कहलाते हैं कि ये अत्यंत खतरनाक होते हैं और यदि ये किसी के पीछे पड़ जाएं तो उसका बच पाना मुश्किल होता है। शुरू के दिनों में जब शिकारी लोग अफ्रीका में शिकार के उद्देश्य से आते थे, तो जो शिकारी इन बड़े पशुओं का शिकार कर लेता था उसे बहुत बहादुर माना जाता था और इन पांच बड़े पशुओं में भी सबसे खतरनाक भैंसे होते हैं।
यह जान कर तो मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। मैंने बताया कि भारत में तो भैंसों को हम लोग पालते हैं, उन पर सवारी करते हैं, और तो और उनका दूध भी पीते हैं। अफ्रीकी गाइड ने फौरन टोका। उसने बताया कि भारत की भैंसें तो पालतू भैंसे अर्थात वॉटर बफैलो हैं। किन्तु अफ्रीका के भैंसे किंग बफैलो अथवा केप बफैलो हैं जो कभी पालतू नहीं बनाए जा सकते और बहुत ही खूंखार होते हैं। मौका पडऩे पर तो ये शेर को भी पछाड़ देते हैं। यह सुनकर इन पशुओं के बारे में मेरी जिज्ञासा बढ़ गई। अफ्रीकी भैंसा या केप भैंसा ये जंगली भैंसे मुख्यत: अफ्रीका के मध्य भाग में (सहारा के दक्षिण तथा दक्षिण अफ्रीका के उत्तर में) पाए जाते हैं। जैसे इथोपिया, सोमालिया, जिम्बाब्वे, नमीबिया, बोत्सवाना, मोज़ाम्बिक, दक्षिण अफ्रीका, केन्या, तथा तंज़ानिया आदि। चरने के लिए ये प्राय: जंगल के आसपास का खुला मैदान पसन्द करते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि अफ्रीकी भैंसे और भारतीय भैंस रंग-रूप, आकार, खानपान तथा बनावट में एक-दूसरे से बहुत मेल खाते हैं, किन्तु वास्तव में ये दो अलग-अलग प्रजाति के जीव हैं जिनका जीव विज्ञान के अनुसार सम्भवत: निकट का सम्बंध नहींं है। इनकी आदतें भी एकदम अलग-अलग होती हैं। जहां भारतीय भैंस सीधी-साधी, शान्त तथा पालने योग्य होती है, वहीं केप भैंसा अत्यंत बलशाली, खूंखार, हिंसक प्रकृति का तथा बदले की भावना से ग्रस्त होता है। अनुमान है कि पूरे विश्व इतिहास में शिकार के दौरान हिंसक पशुओं द्वारा मारे गए सर्वाधिक शिकारी भैंसों के शिकार हुए हैं। इनसे टक्कर लेने की हिम्मत शेर भी नहीं कर पाता। जब भी शेर इनका शिकार करता है तो उसका निशाना केवल बूढ़े, बीमार या छोटे बच्चे या नौसिखिया भैंसे ही होते हैं। अन्यथा ये अपने नुकीले सींगों तथा शक्तिशाली प्रहार से शेर को गम्भीर रूप से घायल कर सकते हैं, मार भी सकते हैं। इस प्रकार अफ्रीकी भैंसे को संसार का सबसे खतरनाक प्राणी माना जा सकता है। किन्तु यदि इन्हें छेड़ा ना जाए तो सामान्यत: ये नुकसान नहीं पहुंचाते तथा रास्ता छोड़कर अन्दर चले जाते हैं।
अफ्रीकी भैंसे का जीव वैज्ञानिक नाम सिन्सेरस काफर है। इसका भार लगभग 750-900 किलोग्राम (नर) तथा 400- 750 किलोग्राम (मादा) होता है। इनकी ऊंचाई लगभग 1.7 मीटर तक होती है। इनके सींग एक मीटर या उससे भी अधिक लंबे हो सकते हैं। नर लगभग 8 वर्षों में तथा मादाएं लगभग 5 वर्षों में युवा हो जाते हैं। लगभग 11 महीने के गर्भ धारण के बाद मादा एक बच्चे को जन्म देती है। इनका जीवन काल 15 से 23 वर्षों का होता है। ये 15-20 से लेकर 300 या अधिक के विशाल समूहों में रहते हैं तथा घास पर अपना गुज़ारा करते हैं।
किसी ज़माने में अफ्रीकी भैंसों का बहुत अधिक शिकार किया गया था, जिसका प्रमुख प्रयोजन शिकारी की बहादुरी का प्रदर्शन हुआ करता था। ये शिकारी लोग भैंसों के विशाल सींगों को अपने ड्राइगं रूम की शोभा बढ़ाने के काम में लाते थे। अब तो इस प्रकार के शिकार पर प्रतिबन्ध है, किन्तु अभी भी चोरी छुपे अफ्रीका में इनका शिकार होता रहता है। इसके अलावा खेती के लिए भूमि का अधिक उपयोग किए जाने के कारण इनके प्राकृतिक वास भी सिकुड़ गए हैं। इन सभी कारणों से अफ्रीकी भैंसों की संख्या काफी कम हो गई है। फिलहाल इसे कम जोखिम (लो रिस्क) श्रेणी के प्राणियों (श्रेणी सी, डी) में रखा जाता है। अफ्रीकी भैंसे को पालतू बनाने तथा उनका समागम घरेलू भैंसों से कराने के प्रयास भी असफल रहे हैं।
भारतीय भैंस
जब हम भारतीय भैंसों की बात करते हैं, तब तो सारा वातावरण ही बदला नजऱ आता है। कहां वे अफ्रीकी खूंखार भैंसे, और कहां ये पालतू, सीधी-सादी जुगाली करती हुई घरेलू भैंसें, जिनकी पीठ पर बैठे-बैठे छोटे बच्चे, उन्हें हांकते हुए ले जाते हैं। लगभग वही शक्ल, वही आकार, वही रंग-रूप किन्तु फिर भी अलग प्रजाति। वास्तव में भारत में रहने वाले किसी ग्रामीण बच्चे को अफ्रीकी भैंसा दिखाया जाए तो संभवत: वह उसकी पीठ थपथपाने को आगे बढ़ जाए और दूसरी तरफ यदि किसी अफ्रीकी वनवासी को भारतीय भैंस दिखाई जाए तो सम्भवत: वह उससे दूर भागने का प्रयास करे। वैसे केप भैंसों तथा घरेलू भैंसों में प्रमुख अन्तर यह होता है कि केप भैंसों के दोनों सींगों की जड़ें सिर पर लगभग जुड़ी रहती हैं, जबकि एशियाई भैंसों में सींगों की जड़ें काफी दूर-दूर होती हैं। वास्तव में भैंसों का मानव के साथ सदियों पुराना नाता रहा है। सम्भवत: मानव ने भैंसों को ईसा से तीन सदी पूर्व पालना शुरू किया था। भारत की भैंस का वैज्ञानिक नाम बुबालिस है, तथा मुख्यत: ये भारत, पाकिस्तान तथा दक्षिण पूर्व एशिया के अनेक देशों से लेकर मिस्र आदि तक पाई जाती हैं। यदि इनकी एक और प्रजाति (जिन्हें दलदली भैंसे कहते हैं) को भी शामिल कर लें तो ये भैंसें इन्डोनशिया, चीन, ताईवान, थाईलैण्ड, मलेशिया, फलीपीन्स, बर्मा वगैरह में भी बहुतायत से पाई जाती हैं। भारतीय भैंस का भार 300-400 से लेकर 700-1200 किलोग्राम तक होता है। इनकी ऊंचाई 1.5 से 1.8 मीटर तक होती है तथा रंग अधिकतर काला (या भूरा) होता है। इनके सींग प्राय: वक्राकार होते हैं, जिनकी लम्बाई एक मीटर तक होती है। इनकी पूंछ लम्बी होती है तथा उसके अन्त में बालों का घना गुच्छा होता है।
भैंस लगभग 18 महीने के बाद युवावस्था को प्राप्त कर लेती है तथा लगभग 10 महीने की गर्भावस्था के पश्चात एक या दो बच्चों को जन्म देती है। इन भैंसों को पानी या कीचड़ बहुत पसन्द है। उत्तर भारत में प्रचलित एक मुहावरे (अब गई भैंस पानी में) का अर्थ है कि यदि भैंस एक बार पानी में चली जाए तो उसे बाहर निकालना बहुत ही कठिन है। पानी में घुसकर तथा कीचड़ में लोटकर यह मच्छरों, पिस्सुओं तथा परजीवियों से अपनी रक्षा करती है। भैंस भारत तथा दक्षिण पूर्व एशियाई देशों का एक लोकप्रिय पशु है, क्योंकि यह कठिन परिस्थितियों को सहने में सक्षम होती है। इन देशों में भैंस को दूध के लिए पाला जाता है। इसके अलावा इनका उपयोग खेती, बोझ ढोने, हल जोतने तथा सवारी, दौड़ आदि के लिए भी किया जाता है। इनकी खाल उत्तम श्रेणी के जूते बनाने के काम आती है। भैंस के मांस को काराबीफ कहते हैं तथा इसमें कम कैलोरी होती है। दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में इसका भी बहुत अधिक उपयोग होता है। अधिक चर्बी के कारण भैंस के दूध से मोजरेला चीज़ का निर्माण किया जाता है। वर्ष 1992 में सम्पूर्ण विश्व में भैंसों की कुल संख्या लगभग 14.8 करोड़ आंकी गई थी। इनमें से 95 प्रतिशत केवल एशिया में थीं। इनकी सबसे अधिक संख्या भारत में (8.2 करोड़) और चीन (2.2 करोड़) थी। पाकिस्तान तीसरे स्थान पर था। भारत की प्रसिद्ध भैंसों में मुर्रा, नीली रावी, जफ़राबादी, सूरती, मेहसाना, कुण्डी, नागपुरी आदि हैं। इनमें सबसे अधिक दूध देने वाली मुर्रा भैंस होती है। वैसे सबसे अधिक प्रचलित तो यहां की देशी भैंस है। भारत में भारतीय बाइसन (अरना भैंसा) नामक जंगली भैंसे की एक प्रजाति पाई जाती है, जिसका वैज्ञानिक नाम बूबलिस है। यह अधिकतर असम तथा देश के अन्य उत्तर-पूर्वी राज्यों, और भूटान व नेपाल में पाया जाता है।
जल भैंसें
दक्षिण-पूर्व एशिया, इन्डोनेशिया, मलेशिया, फिलीपीन्स, म्यांमार, चीन, लाओस, वियतनाम, ताईवान आदि में एक अलग प्रजाति की भैंस पाई जाती है, जिसे दलदली भैंस या स्वैम्प बफैलो कहते हैं। इसका जीव वैज्ञानिक नाम बुबालुस काराबान्सिस है। इसका रंग भूरा, पीठ चौड़ी, तथा सींग सीधे तथा पीछे की ओर फैले होते हैं। ये भैंसें खेती तथा बोझा ढोने के लिए उपयुक्त होती हैं मगर दूध कम देती हैं। इन देशों में भैसों से शारीरिक श्रम का बहुत काम लिया जाता है।
दलदली भैंस
फिलीपीन्स में दलदली भैंस जिसका स्थानीय नाम काराबाओ है - की बहुत महत्ता है तथा इसे वहां का राष्ट्रीय पशु घोषित किया गया है। इसे विभिन्न पर्यटन पुस्तिकाओं, डाक टिकटों तथा प्रचार सामग्री में दर्शाया जाता है। ऑस्ट्रेलिया में भी भैंसें पाई जाती हैं, जो पिछली सदी में बोझा ढोने तथा मांस के लिए आयात की गई थीं। इसके अलावा कई पालतू भैंसें ऑस्ट्रेलिया में पुन: जंगली भैंसों में परिवर्तित हो गई हैं। उत्तरी अफ्रीका तथा पश्चिमी एशिया के देशों (जैसे, ईरान, मिस्र, ट्यूनीशिया आदि) में भी थोड़ी भिन्न प्रकार की जल भैंसें पाई जाती हैं। भैंस का आयात अफ्रीका तथा यूरोप में भी किया गया है। वहां पर इसके पशु फार्म स्थापित किए गए हैं। वर्ष 1978 में अमरीका में लगभग 50 भैंसों का आयात किया गया था। इसके बाद वहां पर कम कैलोरी युक्त मांस तथा मोजरेला चीज़ के उत्पादन के उद्देश्य से इनका प्रजनन कराने का प्रयास किया गया। आजकल अमरीका में लगभग 3500 भैंसें पल रही हैं।
उत्तरी अमरीका में एक और प्रकार का भैंसा पाया जाता है जिसे बाइसन कहते हैं। यह अन्य भैंसों से भिन्न होता है। जीव विज्ञान की भाषा में यह बाइसन (मैदानी भैंसा) तथा अथाबास्क (जंगली भैंसा) कहलाता है। यह एक विशाल प्राणी है, जिसके कन्धों पर एक कूबड़ होता है, सींग छोटे तथा सिर बड़ा होता है। इसकी ऊंचाई 2 मीटर, लम्बाई 2.7 से 3.7 मीटर तथा भार 850 से 1100 किलोग्राम होता है। इसके शरीर पर घने बाल होते है तथा नर के मुंह पर लगभग 30 से.मी. दाढ़ी होती है। यह प्राणी भैंस की बजाय गौवंश का निकट सम्बंधी माना जा सकता है, यद्यपि इसे अमरीका मे भैंसा ही कहते हैं। लगभग 8-9 महीने की गर्भावस्था के पश्चात मादा एक बच्चे को जन्म देती है।
उन्नीसवीं सदी तक अमरीका, कनाडा तथा मेक्सिको में इन प्राणियों के विशाल समूह पाए जाते थे, जिनकी कुल संख्या 6 करोड़ तक आंकी गई थी। किन्तु इनके मांस, खाल तथा अन्य कारणों से इनका अंधाधुन्ध शिकार किया गया जिससे इनकी संख्या में बहुत कमी आई और वर्ष 1839 तक वह घट कर 1000 से भी कम रह गई थी। आज कल संरक्षित क्षेत्रों तथा निजी उद्यानों में इनकी संख्या लगभग दो लाख तक पहुंच गई है। (स्रोत)

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