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Sep 15, 2015

राजिमः छत्तीसगढ़ का प्रयाग











राजिमःछत्तीसगढ़ का प्रयाग
छत्तीसगढ़ क्षेत्र में महानदी का वही स्थान है जो भारत में गंगा नदी का है। यहाँ  का सबसे बड़ा पर्व महाशिवरात्रि है जो माघ मास की पूर्णिमा से शुरु होकर फाल्गुन मास की महाशिवरात्रि तक चलता है। इस अवसर पर राजिम एक तीर्थ का रूप ले लेता है। यहाँ  हजारों श्रद्धालु संगम स्नान करने और भगवान राजीव लोचन तथा कुलेश्वर महादेव के दर्शन करने दूर-दूर से पहुँचते हैं। स्थानीय लोगों की मान्यता है कि जगन्नाथपुरी की यात्रा तब तक पूर्ण नहीं होती जब तक कि वे राजिम की यात्रा नहीं कर लेते।
रायपुर से लगभग 45 किमी दूर त्रिवेणी संगम (महानदी- सोंढूर-पैरी) के किनारे बसा राजिम छत्तीसगढ़ का प्रमुख तीर्थ स्थल है। इस संगम की खास बात यह है कि यहाँ  तीनों नदियाँ  साक्षात् दिखाई देती हैं, जबकि इलाहाबाद के त्रिवेणी संगम में सरस्वती लुप्तावस्था में है।
राजिम के देवालय ऐतिहासिक तथा पुरातात्त्विक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। यहाँ  प्राप्त मन्दिरों को कालक्रम के अनुसार चार भागों में बांटा गया है।
(1) कुलेश्वर (9वीं सदी), पंचेश्वर (9वीं सदी) तथा भूतेश्वर महादेव (14वीं सदी), (2) राजीवलोचन (8वी सदी), वामन, वाराह, नृसिंह, बद्रीनाथ, जगन्नाथ, राजेश्वर, दानेश्वर एवं राजिम तेलिन मन्दिर । (3) रामचन्द्र (14वीं सदी) (4) सोमेश्वर महादेव नलवंशी नरेश विलासतुंग के राजीव लोचन मन्दिर  अभिलेख के आधार पर अधिकांश विद्वानों ने इस मन्दिर  को 8वीं शताब्दी की निर्मिति माना है। इस मन्दिर  के विशाल प्राकार के चारों अंतिम कोनों पर बने वामन, वाराह, नृसिंह तथा बद्रीनाथ के मन्दिर  स्वतंत्र वास्तु रूप के उदाहरण माने जा सकते । राजिम के मन्दिर  तथा यहाँ  स्थापित प्रतिमाएँ  लोगों की धार्मिक आस्था पर प्रकाश तो डालती ही हैं, साथ ही भारतीय स्थापत्यकला एवं मूर्त्तिकला के इतिहास को रेखांकित भी करती हैं । इन मन्दिरों के कालक्रम को देखने से यह पता चलता है कि छत्तीसगढ़ अंचल कला और स्थाप्त्य की दृष्टि से कितना समृद्धशाली था।
एशियाटिक रिसर्च सोसायटी के रिचर्ड जैकिंस इसे राजा राम के समकालीन राजीव नयन नामक राजा से जोड़ते हैं लेकिन मन्दिर  के पुजारी ठाकुर ब्रजराज सिंह जो कथा बतातें है , वह कुछ इस तरह है:
सतयुग में एक प्रजापालक भक्त राजा रत्नाकर था। उस समय यह क्षेत्र पद्मावती क्षेत्र या पद्मपुर कहलाता था। इसके आसपास का इलाका दण्डकारण्य के नाम से प्रसिद्ध था। यहाँ  अनेक राक्षस निवास करते थे। राजा रत्नाकर समय-समय पर यज्ञ, हवन, जप-तप करवातेरहते थे। ऐसे ही एक आयोजन में राक्षसों ने ऐसा विघ्न डाला कि राजा दु:खी होकर एक खण्डित  हवन कुण्ड  के सामने ही ईश आराधना में लीन हो गए और ईश्वर से प्रार्थना करने लगे कि वे स्वयं आकर इस संकट से उबारें। ठीक इसी समय गजेंद्र और ग्राह में भी भारी द्वन्द्व चल रहा था, ग्राह गजेंद्र को पूरी शक्ति के साथ पानी में खींचे लिये जा रहा था और गजेंद्र ईश्वर को सहायता के लिए पुकार रहा था। उसकी पुकार सुन भक्त वत्सल विष्णु जैसे बैठे थे वैसे ही नंगे पाँव उसकी मदद को दौड़े। और जब वह गजेंद्र को ग्राह से मुक्ति दिलवा रहे थे, तभी उनके कानों में राजा रत्नाकर का आर्त्तनाद सुनाई दिया। भगवान उसी रूप में राजा रत्नाकर के यज्ञ में पहुँचे और राजा रत्नाकर ने यह वरदान पाया कि अब श्री विष्णु उनके राज्य में सदा इसी रूप में विराजेंगे। तभी से राजीव लोचन की मूर्त्ति इस मन्दिर  में विराज रही है। कहते हैं कि इस मूर्त्ति का निर्माण स्वयं विश्वकर्मा ने किया था।
एक और जनश्रुति के अनुसार राजा जगतपाल इस क्षेत्र पर राज कर रहे थे तभी कांकेर के कंडरा राजा ने इस मन्दिर  के दर्शन किए और उसके मन में लोभ जागा कि यह मूर्त्ति तो उसके राज्य में स्थापित होनी चाहिए । इसके लिए उन्होंने पुजारियों को धन का लोभ दिया ; पर वे नहीं माने तब राजा ने बलपूर्वक सेना की मदद से इस मूर्त्ति को उठा लिया और एक नाव में रखकर महानदी के जलमार्ग से कांकेर रवाना हुआ ;पर धमतरी के पास रूद्री नामक गाँव  के समीप मूर्त्ति सहित नाव डूब गई और मूर्त्ति शिला में बदल गई। कंडरा राजा खिन्न मन से कांकेर लौट गया। लेकिन राजिम में महानदी के बीच में स्थित कुलेश्वर महादेव मन्दिर  की सीढ़ी से आ लगी। इस 'शिला’को देख 'राजिम’नाम की तेलिन उसे अपने घर ले गई और उसने शिला को कोल्हू में रख दिया। उसके बाद से उस तेलिन का घर धन-धान्य से भर गया। उधर सूने मन्दिर  को देखकर दुखी होते राजा जगतपाल को भगवान ने स्वप्न दिया कि वे तेलिन के घर से मुझे वापस लाकर मन्दिर में प्रतिष्ठित करें। पहले तो तेलिन राजी ही नहीं हुई ; पर अंतत: पुन:प्रतिष्ठा हुई और तभी से यह क्षेत्र राजिम तेलिन के नाम से राजिम कहलाने लगा। आज भी राजीवलोचन मन्दिर  के आसपास अन्य मन्दिरों के साथ राजिम तेलिन का मन्दिर  भी विराजमान है।
यहाँ  पंचकोसी यात्रा की जाती है जिसके बारे में भी यहाँ  एक कथा प्रचलित है- एक बार विष्णु ने विश्वकर्मा से कहा कि धरती पर वे एक ऐसी जगह उनके मन्दिर  का निर्माण करें, जहाँ  पाँच कोस के अन्दर शव न जला हो। अब विश्वकर्मा जी धरती पर आए, और ढूँढ़ते रहे, पर ऐसा कोई स्थान उन्हें दिखाई नहीं दिया। उन्होंने वापस जाकर जब विष्णु जी से कहा तब विष्णु जी एक कमल के फूल को धरती पर छोडक़र विश्वकर्मा जी से कहा कि यह जहाँ  गिरेगा, वहीं हमारे मन्दिर  का निर्माण होगा। इस प्रकार कमल फूल के पराग पर विष्णु भगवान का मन्दिर है और पंखुडिय़ों पर पंचकोसी धाम बसा हुआ है। कुलेश्वर नाथ (राजिम) चम्पेश्वर नाथ (चम्पारण्य) ब्राह्मकेश्वर (ब्रह्मणी), पाणेश्वर नाथ (फिंगेश्वर) कोपेश्वर नाथ (कोपरा)।
लोगों की यह भी मान्यता है कि जगन्नाथपुरी की यात्रा तब तक सम्पूर्ण नही होती जब तक यात्री राजिम की यात्रा नही कर लेता। कहते हैं माघ पूर्णिमा के दिन स्वयं भगवान जगन्नाथ पुरी से यहाँ  आते हैं। उस दिन जगन्नाथ मन्दिर  के पट बंद रहते हैं और भक्तों को भी राजीव लोचन में ही भगवान जगन्नाथ के दर्शन होते हैं। महाभारत के आरण्यक पर्व के अनुसार  सम्पूर्ण  छत्तीसगढ़ में राजिम ही एकमात्र ऐसा स्थान है जहाँ  बदीनारायण का प्राचीन मन्दिर  है। इसका वही महत्त्व  है जो जगन्नाथपुरी का है।
राजिम मेले को कुम्भ का रुप प्रदान करने के बाद से अब प्रति वर्ष यहाँ  राज्य शासन विशेष व्यवस्था करता है। लोगों के लिए ठहरने खाने,कुम्भ स्नान करने तथा भगवान के दर्शन की व्यवस्था के साथ अन्य राज्यों से अनेक कलाकार, विद्वान आमन्त्रित किये जाते हैं। इस प्रकार राजिम के इस त्रिवेणी संगम पर धर्म, आस्था और संस्कृति का अद्भुत संगम नजर आता है।
(उदंती फीचर्स)
राजिम कुम्भ तक पहुँचने के लिए
हवाई मार्ग- रायपुर (45 किमी) निकटतम हवाई अड्डा है तथा दिल्ली, मुंबई, नागपुर, भुवनेश्वर, कोलकाता, रांची, विशाखापट्नम और चेन्नई से जुड़ा हुआ है।
रेल मार्ग- रायपुर निकटतम रेलवे स्टेशन है जो कि मुम्बई-हावड़ा रेल मार्ग पर स्थित है।
सडक़ मार्ग- राजिम नियमित बस तथा टैक्सी सेवा से रायपुर व महासमुंद से जुड़ा हुआ है। तीर्थ यात्रियों के ठहरने के लिए कुंभ के अवसर पर संस्कृति विभाग विशेष रुप से व्यवस्था करता है। सामान्य पर्यटकों के लिए रायपुर में अनेक होटल उपलब्ध हैं।

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