शिव मन्दिर में कला का
अद्भुत रूपांकन
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प्रो. अश्विनी केशरवानी
छत्तीसगढ़ को प्राचीन काल
में 'दक्षिण कोशल' कहा जाता था। अतीत से वर्तमान तक यहाँ अनेक राजवंश के राजाओं ने शासन किया, अपने
पराक्रम और पराजय का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया और वे काल के मरुस्थल में पद-चिह्न
की स्याही में घुल मिलकर इन खण्डहरों, शिलालेखों और ताम्रपत्रों
में लिखे रह गये हैं। राजाओं द्वारा अनेक मन्दिर , मठ और तालाब आदि के निर्माण
के बारे में हमारा विचार है कि यहाँ के गाँवों
में स्कूल-कालेज न हो, हाट-बाजार न हो,
तो कोई बात नहीं; लेकिन नदी-नाला का किनारा
हो या तालाब का पार, मन्दिर चाहे छोटे रूप में
हों, अवश्य देखने को मिलता है। ऐसे मन्दिरों में शिव लिंग, राधाकृष्ण, हनुमान, राम-लक्ष्मण-जानकी
के मन्दिर प्रमुख होते हैं।' लेकिन
पाली का शिव मन्दिर प्राचीन ही नहीं अपितु
मूर्त्तिकला का अनुपम उदाहरण भी है।
पाली, बिलासपुर
राजस्व सम्भाग में नवगठित कोरबा जिलान्तर्गत कोरबा से लगभग 55 कि.मी., बिलासपुर
अम्बिकापुर मार्ग में बिलासपुर से 40 कि. मी., राजधानी
रायपुर से 160 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। प्राचीन काल में इस नगर को 'झांझनगर-पाली' कहा जाता
था। कालान्तर में झांझनगर का लोप हो गया और 'पाली' नाम
प्रचलित हो गया। पाली में बस्ती के बाहर सड़क किनारे एक तालाब है, जिसके तट
पर उत्कृष्ट मूर्त्तिकला से सजा एक शिव मन्दिर है। यह मन्दिर छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास पर प्रकाश डालती
है।
मध्ययुगीन मूर्त्तिकला की
शुरूवात इस क्षेत्र में पाली के इस शिव मन्दिर से हुई प्रतीत होता है। इस मन्दिर के बाहरी भाग, भीतरी सभा मण्डप और गर्भगृह
के द्वार पर खुदाई का इतना सुन्दर और दर्शनीय काम किया गया है, जिन्हें
देखकर आबू पर्वत के जैन मन्दिर पर किये गए
जालीदार नक्काशी की बरबस याद आ जाती है। इस सम्बन्ध में बिलासपुर जिले के प्रथम
सेटलमेंट अधिकारी मि. चीजम साहब ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है- 'इस मन्दिर
का अवशिष्ट भाग अर्थात् गर्भगृह का सभा मण्डप
अष्टकोण गुम्बददार है तथा मण्डप में प्रवेश करते ही नीचे से ऊपर तक नक्काशी का जो
बारीक काम किया गया है उसे देखकर मन आश्चर्य चकित हो उठता है। सभा- मण्डप का गुम्ब्द
जिन खम्भों पर स्थित है, उन पर हिन्दू पुराणों और काव्यों में वर्णित प्रसिद्ध व्यक्तियों की
आकृतियाँ चित्रित हैं। गुम्बद के सबसे
निचले भाग में अत्यंत विचित्र आकृतियाँ लकीरों में बनाई गयी हैं। सबसे उत्तम और परिश्रमपूर्वक
खुदाई का काम गर्भगृह के द्वार पर किया गया है। यह नक्काशी अत्यंत बारीक है और इसे
बनाने में बड़ी कुशलता दिखाई गयी है।'
श्री प्यारेलाल गुप्त अपनी
पुस्तक 'प्राचीन छत्तीसगढ़'
में लिखते हैं- 'किंवदंती है कि रतनपुर नगर
का विस्तार दक्षिण पूर्व में 12
मील दूर पाली तक था, जहाँ एक सुन्दर तालाब के तट पर शिवजी का एक अष्टकोणीय
मन्दिर अपनी भव्यता और शिल्पकला में अभी
भी उत्कृष्ट समझा जाता है। आश्चर्य तो यह है कि धरातल से लेकर चोटी तक मन्दिर का एक-एक इंच, अंग्रेज अधिकारियों द्वारा
मरम्मत कराए गए भाग को छोड़कर,
कलाकार की छेनी से अछूता नहीं है। मन्दिर की दीवार पर चहुँ ओर अनेक कलात्मक मूर्त्तियाँ इस चतुराई से अंकित हैं मानों वे बोल रहे हों कि
'देखो हमने अब तक कला की साधना की है और तुम पूजा के फूल चढ़ाओ।' सच पूछिए
तो छत्तीसगढ़ की प्राचीन संस्कृति का विकास इन्हीं मन्दिरों में अंकित मूर्त्तियों
के सहारे हुआ है। ये मूर्त्तियाँ अंग-भंगिमा और सूक्ष्म साज- सज्जा की दृष्टि से
बेजोड़ है। सभा मण्डप में चौरासी योगिनियों की मूर्त्तियाँ प्रतिष्ठित हैं जो अत्यंत सुन्दर और मनहरण हैं।
इन्हें देखकर जबलपुर के भेड़ाघाट में स्थित चौसठ योगिनी मन्दिर की याद आती है। इसी प्रकार मन्दिर के भीतरी भग की कला कृतियों में जिन कोमल और
मधुर भाव के दर्शन होते हैं उसका बयान सम्भव नहीं है। 'गिरा
अनयन नयन बिन बानी।' मूर्त्तियों के शिल्प में रेखाओं की निपुणता लालित्यपूर्ण अंग सौष्ठव
एवं विस्मयकारी शिल्प दृष्टि एवं कला प्रेमियों में रस का संचार की है। मन्दिर की बाहरी और भीतरी दीवार पर देवी-देवताओं की मूर्त्तियाँ
, नायक-नायिकाओं का प्रदर्शन, ब्याल अलंकरण और योग मुद्राएँ
आदि उत्कीर्ण की गई है। चामुण्डा, सरस्वती, गज
लक्ष्मी और पार्वती के अलावा इंद्र, अत्रि, अग्नि, वरूण, वायु, कुबेर और
ईशान देव की मूर्त्ति प्रमुख है। खजुराहो, कोणार्क, भोरमदेव, नारायणपुर, सेतगंगा
के मन्दिरों की तरह यहाँ भी काम कला का
चित्रण मिलता है।
मन्दिर की दीवार पर ब्याल
अलंकरण में काल्पनिक पशु का चित्रण है ,जिसमें शरीर सिंह का और सिर किसी दूसरे पशु
का है। यहाँ पर सिंह, गज, नर, वराह, शुक्र आदि का विचित्र चित्रण मिलता है। नायिकाओं का अत्यंत सजीव
चित्रण गर्भगृह के बाह्य भित्तियों पर किया गया है। तोते को दाना चुगाती शुक
अभिसारिका, बच्चे को दूध पिलाती माँ , नृत्य की आकर्षक मुद्रा में
नर्तकी, आंखों में अंजन लगाती सुंदरी, केश सँवारती और अन्य अनेक
भाव भंगिमा में अलमस्त चित्रण निश्चित रूप से मन को मोहित कर लेता है। मन्दिर की उत्कृष्ट कलाकृति में शिव-पार्वती की विभिन्न
मुद्राओं का चित्रांकन है। द्वार के साख पर दाईं और बाईं ओर शिव-पार्वती की आलिंगनबद्ध मूर्त्तियों
का चित्रांकन कलात्मक ढंग से किया है। ऊपर दाईं ओर शिवजी की बायीं जांघ में पार्वती जी विराजमान
हैं। शिवजी के हाथ में त्रिशूल बीजपूरक है। इस मूर्त्ति में एक हाथ खण्डित है, जबकि दूसरे हाथ से वे
पार्वती जी का आलिंगन कर रहे हैं। नीचे की मूर्त्तियों में शिव-पार्वती नंदी पर
आरूढ़ हैं। शिवजी के हाथ में त्रिशूल, नाग एवं कपाल है। बाईं ओर
शिव-पार्वती की प्रथम मूर्त्ति में शिव पार्वती की ठोढ़ी को स्पर्श कर रहे हैं और
पार्वती जी मोहक मुद्रा में शिव जी की ओर निहार रहीं हैं। नीचे बैठा नंदी
आश्चर्यचकित हो शिवजी की ओर निहार रहा है। एक और मूर्त्ति में शिवजी के बाएँ भाग
में पार्वती जी हैं; लेकिन उनका मुख दूसरी ओर है, जैसे वे रूठी हों और शिवजी
उन्हें मनाने का प्रयास कर रहे हों?
पाली का ऐतिहासिक सफर-
उत्कृष्ट मूर्त्तिकला से
सुसज्जित पाली के इस मन्दिर का निर्माण
आखिर कराया किसने और इस क्षेत्र की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि क्या थी यह सहज ही जिज्ञासा
का प्रश्न है। मन्दिर में कुछ स्थानों में
'श्री मज्जाजल्लदेवस्य कीर्तिरियम' खुदा हुआ है। इससे प्रतीत
होता है, कि इसे कलचुरी वंशी राजा जाजल्लदेव ने बनवाया है? कलचुरी
वंश की राजधानी पहले तुम्माण में फिर रत्नपुर में बनायी गयी। रत्नपुर के कलचुरी
वंश में जाजल्लदेव नाम के दो राजा हुए । इनमें जाजल्लदेव प्रथम का शासनकाल सन् 1095 से 1120 तक था। मन्दिर
में उत्कीर्ण लेख की खुदाई भी इसी काल की
प्रतीत होती है। अगर इसे जाजल्लदेव प्रथम ने बनवाया है, तब इसका
निर्माण काल 11 वीं शताब्दी के अंत में निर्धारित होता है। लेकिन मन्दिर इससे भी प्रचीन है क्योंकि मन्दिर के गर्भगृह केद्वार पर गणेश पट्टी पर खुदा लेख
विक्रमादित्य का है। इस लेख को सर्वप्रथम डॉ. देवदत्त भंडारकर ने लगभग 50 वर्ष
पहले पढ़ा था। उनके अनुसार लेख का आशय है 'कि महामंडलेश्वर मल्लदेव के
पुत्र विक्रमादित्य ने यह देवालय निर्माण कराकर कीर्तिदायक काम किया है।इस काल
में यह तो ज्ञात हो गया कि बाणवंश में विक्रमादित्य नाम के राजा हुए थे। लेकिन वे उनका शासनकाल की जानकारी प्राप्त
नहीं कर सके। आज इससे सम्बन्धित अनेक लेख प्रकाश में आ चुके हैं ,जिनसे ज्ञात होता
है कि बाणवंश में विक्रमादित्य नाम के तीन राजा हुए । उनमें से प्रथम विक्रमादित्य
जिसे जयमेरू भी कहा जाता था,
मल्लदेव का पुत्र था। पाली के लेख में भी
विक्रमादित्य को मल्लदेव का पुत्र बताया गया है। अत: यह मान लेने में कोई हर्ज
नहीं है कि दोनों विक्रमादित्य एक ही थे। इसका दूसरा शिलालेख अभी तक प्राप्त नहीं
हुआ है। लेकिन उनके पुत्र विजयादित्य जिन्हें प्रभुमेरू भी कहा जाता है, का एक
शिलालेख प्राप्त हुआ है। यह संवत् 820-831 (सन् 898-99 से 909-910 ईसवीं)
का है। इस लेख से ज्ञात होता है कि विक्रमादित्य (जयमेरू) ने सन् 870 से 895 ई. में
राज्य किया और इसी बीच उन्होंने पाली के इस शिव मन्दिर का निर्माण कराया। इससे यह तो सिद्ध होता है कि
इस क्षेत्र में विक्रमादित्य का शासन था।
श्री प्यारेलाल गुप्त अपनी
पुस्तक 'प्राचीन छत्तीसगढ़'
में लिखते हैं- यद्यपि इनके प्रथम राजा का नाम
शिवगुप्त था ; लेकिन यह प्रमाणित नहीं हो सका है कि पूर्ववर्ती पाण्डुवंशी से इनका
कोई सम्बन्ध था। बल्कि पाण्डुवंशी राज्य प्रणाली के विपरीत किन्तु शरभवंशी राजाओं
के समान इनकी राजमुद्राओं पर गजलक्ष्मी पायी जाती है। शिवगुप्त का एक भी प्रशस्ति
पत्र अभी तक नहीं मिला है। इनके पुत्र महाभवगुप्त का एक प्रशस्ति पत्र मिला है
जिसमें अंकित है-'स्वस्ति श्रीमत् परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर सोमकुल तिलक
त्रिकलिंगाधिपति महाराज श्री भवगुप्त'।
तुम्माण और रतनपुर के
कलचुरी राजाओं के विभिन्न अभिलेखों में बताया गया है कि इस वंश हैहह रानी से दहाल
का शासक कोकृल (ईसवी सन् 850 से 890) उत्पन्न हुआ, जिसके 18 पुत्र थे। इनमें से ज्येष्ठ पुत्र त्रिपुरी के राजगद्दी का उत्तराधिकारी
हुआ और अन्य पुत्रों को विभिन्न मण्डलों का अधिपति बनाया गया। इनमें से एक पुत्र
कलिंगराज हुआ जिसने अपने पूर्वजों की भूमि को छोड़कर दक्षिण कोसल जनपद में पहुँचकर
उसे अपने बाहुबल से प्राप्त किया और तुम्माण को राजधानी बनाकर अपने राज्य की
श्रीवृद्धि की। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि इसके पूर्व भी कलचुरियों ने
तुम्माण में अपनी राजधानी स्थपित की थी। बिल्हारी अभिलेख के अनुसार कोकृलदेव प्रथम
के पुत्र मुग्धतुंग ने पूर्व समुद्र के तटवर्ती देशों को जीतकर कोशल के राजा से
पाली छीन ली। सम्भवत: ईसवीं सन 900
में पहली बार तुम्माण कलचुरियों की राजधानी बना और
लगभग ईसवीं सन् 1000 में कलिंगराज ने तुम्माण को पुन: अपनी राजधानी बनाया। कोकृलदेव प्रथम
और कलिंगराज के बीच के समय में इस वंश का इतिहास अंधकारमय है।
पंडित लोचनप्रसाद पांडेय ने
उड़ीसा में समुद्र तट से 13 कि.मी. की दूरी पर स्थित 'पालिया' को उक्त
अभिलेख का पाली माना है। उपर्युक्त तत्थों से स्पप्ट है कि पाली के इस मन्दिर को बाणवंशी राजा विक्रमादित्य ने बनवाया है।
लेकिन मन्दिर की दीवार में कलचुरी राजा
जाजल्लदेव के अभिलेख से ऐसा प्रतीत होता है कि इस मन्दिर का जीर्णेद्धार राजा जाजल्लदेव ने कराया है।
अन्य अभिलेखों से पता चलता है कि कलचुरी राजा जाजल्लदेव प्रथम ने अपने नाम पर 'जाजल्लपुर' बसाया जो
वर्तमान में जांजगीर नगर को माना जाता है। यहाँ उनहोंने विष्णु मन्दिर , मठ, सरोवर और
आम्रवन आदि बनवाया तथा अनेक मन्दिरों-पाली का शिव मन्दिर , शिवरीनारायण
का नारायण मन्दिर आदि का जीर्णोद्धार
कराया।
मिस्टर कजिंस ने 50 वर्ष
पूर्व इस मन्दिर का अवलोकन किया था। वे
लिखते हैं 'इस मन्दिर का सभा मण्डप पहले
चतुष्कोण था। बाद में ऊपर के गुम्बज को सहारा देने के लिये चारों कोणों में चार
आड़ी दीवार बनायी गयी जिसके कारण अब मन्दिर अष्ट-कोणीय दिखाई देता है। इसी प्रकार गर्भगृह
के सामने दो नये स्तम्भ है, जिन पर नक्काशी का काम उतना नहीं है, जितना सभा मण्डप के अन्य
स्तम्भों पर है। ये स्तम्भ ऊपर छत की टूटी हुई मयाल को सहारा देने के लिये बनाए गए
हैं। इसके सिवाय सभा मण्डप का एक दरवाजा भी बाद में बना जान पड़ता है। यह भी
उल्लेखनीय है कि जितने भाग का जीर्णोद्धार किया गया है उन्हीं में जाजल्लदेव का
नाम खुदा है। इन सब तथ्यों से स्पष्ट है कि जालल्लदेव प्रथम ने इस मन्दिर का निर्माण नहीं बल्कि जीर्णोद्धार कराया था'। मध्य
कालीन मूर्त्तिकला के उत्कृष्ट नमूने इस क्षेत्र के जांजगीर, पाली, भोरमदेव, नारायणपुर
और शिवरीनारायण के मन्दिर में देखे जा
सकते हैं। प्राचीन काल का वैभवशाली नगर पाली आज एक अल्प विकसित कस्बा मात्र है। यहाँ
प्रतिवर्ष महाशिवरात्री पर शिव भक्तों की
भीड़ मेला जैसा दृश्य उपस्थित करता है। यह नगर कई राजवंशों का काल निर्धारित ही
नहीं करता वरन् इस क्षेत्र में उनके शासन काल को दर्शाता भी है। अत: यह मन्दिर छत्तीसगढ़ के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है और
इसकी पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था की जानी चाहिये।
सम्पर्क- 'राघव' डागा
कालोनी, चांपा-495671 (छ.ग.)
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