सिरपुर:
विश्व धरोहर की बाट
जोहता
सिरपुर
की प्राचीनता का सर्वप्रथम परिचय शरभपुरीय शासक प्रवरराज तथा
महासुदेवराज के ताम्रपत्रों से उपलब्ध होता है जिनमें 'श्रीपुर' से भूमिदान दिया गया था। पाण्डुवंशीय शासकों के काल में सिरपुर महत्त्वपूर्ण
राजनैतिक व सांस्कृतिक केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। महाशिवगुप्त बालार्जुन
के 57 वर्षीय सुदीर्घ शासनकाल में यहाँ अनेक मन्दिर ,
बौद्ध विहार, सरोवर तथा उद्यानों का निर्माण करवाया गया।
महानदी के तट पर स्थित प्राचीन छत्तीसगढ़
(दक्षिण कोशल) की राजधानी सिरपुर में जैसे जैसे उत्खनन का कार्य आगे बढ़ते जा रहा हैं वैसे- वैसे
अतीत में छुपी अनेक पुरातात्विक, व ऐतिहासिक घटनाओं का खुलासा भी
होते जा रहा है जो इस क्षेत्र की सांस्कृतिक समृद्धि व वास्तुकला के अकाट्य प्रमाण
हैं।
सिरपुर प्राचीन काल में श्रीपुर के नाम से
विख्यात रहा है तथा पाण्डुवंशीय शासकों के काल में इसे दक्षिण कोशल की राजधानी
होने का गौरव प्राप्त रहा है। सिरपुर की प्राचीनता का सर्वप्रथम परिचय शरभपुरीय
शासक प्रवरराज तथा महासुदेवराज के ताम्रपत्रों से उपलब्ध होता है जिनमें 'श्रीपुर' से भूमिदान दिया गया था। पाण्डुवंशीय शासकों के काल में सिरपुर महत्त्वपूर्ण
राजनैतिक व सांस्कृतिक केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। महाशिवगुप्त बालार्जुन
के 57 वर्षीय सुदीर्घ शासनकाल में यहाँ अनेक मन्दिर ,
बौद्ध विहार, सरोवर तथा उद्यानों का निर्माण करवाया गया। सातवीं सदी ईस्वी में चीन
के महान पर्यटक व विद्वान ह्वेनत्सांग ने सिरपुर की यात्रा की थी। उस समय यहाँ लगभग 100 संघाराम थे तथा महायान संप्रदाय
के 10,000 भिक्षु निवास करते थे। महाशिवगुप्त
बालार्जुन ने स्वयं शैव मतावलम्बी होते हुए भी बौद्ध विहारों को उदारतापूर्वक
प्रचुर दान देकर संरक्षण प्रदान किया था।
वर्तमान में चल रही खुदाई से सिरपुर में
कई बड़े-बड़े शिव मन्दिर तथा पंचायतन शैली
के मन्दिर मिले हैं, जिसे भारत का सबसे बड़ा मन्दिर माना जा है। इसके अलावा अनेक भव्य बौद्ध मठ, बौद्ध विहार, घंटा घर, वैदिक पाठशाला और कई प्राचीन शिलालेख प्राप्त हुए हैं। बौद्ध स्तूप
और राजप्रासाद एवं ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी में पत्थरों से निर्मित तहखाना और एक
आयुर्वेदिक स्नानागार भी मिला है। जिस स्थान पर तहखाना और घंटाघर मिला है, वहीं पर 36 अन्नागार और 9 आयुर्वेदिक स्नानकुंड प्राप्त हुए हैं यह सब इस बात को इंगित करते
हैं कि सिरपुर के इतिहास को नए सिरे से परिभाषित करना होगा।
यहाँ का प्रसिद्ध लक्ष्मण मन्दिर छठवीं शताब्दी में निर्मित भारत का सबसे पहले
ईंटों से बना मन्दिर है। यह मन्दिर सोमवंशी राजा हर्षगुप्त की विधवा रानी बासटा
देवी द्वारा बनवाया गया था। इस मन्दिर के
समीप ही ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक महत्त्व का राम मन्दिर है, जो भग्नावस्था में है। इसके अलावा
यहाँ सोमवंशी राजाओं की वंशावली को
दर्शाने वाले अनेक दर्शनीय मन्दिर हैं
हैं- गंधेश्वर महोदव मन्दिर , शिव मन्दिर , राधाकृष्ण मन्दिर , चण्डी मन्दिर ।
साँची के स्तूपों से भिन्न स्तूप
सिरपुर की खुदाई में एक किलोमीटर की परिधि
में फैले दूसरी शताब्दी के अवशेषों के अंतर्गत जो स्तूप मिले हैं उन स्तूपों का
सीधा सम्बन्ध भगवान बुद्ध से है। इन स्तूपों के सम्बन्ध में बताया जाता है कि ये स्तूप सांची के स्तूपों
से अलग हैं और पत्थर के बने हैं। पत्थरों के स्तूपों के बारे में कहा जाता है कि
ऐसे स्तूप तो बुद्ध ही बनाते थे। पुरातत्त्व विभाग के अधिकारी बताते हैं कि बौद्ध ग्रंथों
में इस बात का उल्लेख है कि ईसा पूर्व छठी शताब्दी में भगवान बुद्ध सिरपुर आए थे।
यहाँ के स्तूप उसी समय के हैं।
हाल की खुदाई में यहाँ प्राप्त 184 टीलो के नीचे स्वर्णिम इतिहास दबा
हुआ है। यहाँ जो स्तूप मिले हैं उन्हें
सम्राट अशोक के काल का स्तूप माना गया है। स्तूप मिलने के बाद अब यहाँ की संस्कृति ईसा से तीन सदी पूर्व की मानी
जाएगी। पुरातत्त्ववेत्ता डॉ. अरुणकुमार शर्मा के अनुसार जातक कथाओं मे भी इस बात
का उल्लेख है कि महात्मा बुद्ध छत्तीसगढ़ आए थे। वे जहाँ- जहाँ गये थे वहाँ सम्राट अशोक ने उनके निर्वाण के बाद स्तूप बनवाए
थे। अब छत्तीसगढ़ मे स्तूप मिलने से उनके यहाँ आने की पुष्टि तो होती ही है, एक नए इतिहास की शुरुआत भी हो जाती है।
बौद्ध विहार
यहाँ दो बौद्ध विहार के अवशेष प्राप्त हुए हैं इनका
निर्माण भी ईंटों से हुआ है। विहार के मुख्य कक्ष में भगवान बुद्ध की साढ़े छह फुट
ऊँची प्रतिमा प्रस्थापित है। इसके अतिरिक्त यहाँ अवलोकितेश्वर और मकर वाहिनी गंगा भी मिली है।
अभिलेख से ज्ञात होता है महाशिव गुप्त बालार्जुन के राज्य में आनंदप्रभु नामक
भिक्षु ने इस विहार का निर्माण करवाया था। दो मंजिला इस मठ में 14 कमरे थे। इसी के पास एक ध्वस्त विहार भी प्राप्त हुआ है। यहाँ भी बुद्ध की प्रतिमा है।
घंटाघर
यहाँ प्राप्त घंटाघर के संदर्भ में पुरातत्त्ववेत्ता
डॉ. अरुण कुमार शर्मा का कहना है कि समय के ज्ञान के लिए तब घड़ी जैसे उपकरणों का
अविष्कार नहीं हुआ था तब यह घंटाघर ही सिरपुर व्यवसायियों और रहवासियों के लिए समय
की जानकारी देने का एकमात्र साधन रहा होगा। प्राचीनकाल में घंटा, मिनट और सेकंड के स्थान पर पहर, पल और छिन समय के सूचक हुआ करते
थे। रात्रिकाल को चार पहर में बांटा गया था। सिरपुर में मिले लगभाग 2600 वर्ष पुराने लोहे- ताँबे जैसे कठोर धातु से निर्मित इस घंटे को ईसा
पूर्व तीसरी-चौथी सदी का बताया जा रहा है। मिट्टी में सैकड़ोंसाल तक दबे रहने और
जंग लगने से घण्टा जीर्ण अवस्था में है। घण्टे के साथ ही दो छोटी घण्टियाँ भी मिली हैं। बड़े घंटे की लंबाई 33 सेमी, चौड़ाई 26
सेमी और मोटाई 16 सेमी है।
पुरातन वैदिक पाठशाला
उत्खनन में 5वीं
शताब्दी में बनाई गई वैदिक पाठशाला के प्रमाण भी यहाँ देखे जा सकते हैं। इस वैदिक पाठशाला को
अरुणकुमार शर्मा के निर्देशन में खोजा गया है। 10
मीटर लंबाई व 1. 5 मीटर चौड़ाई के कमरों के बीचोंबीच में विष्णु की मूर्त्ति मिली है। इस कमरे में 60 विद्यार्थियों के पढऩे की व्यवस्था थी। डॉ. शर्मा के अनुसार यह भारत
में खोजी गई सबसे प्राचीन पाठशाला है। यहाँ पर शिक्षकों के कमरें भी मिले हैं।
भव्य स्नान-कुण्ड
डॉ. शर्मा ने नगर संरचना के उत्खनन में एक
सार्वजनिक मकान खोजा है, जिसमें बरामदे ही बरामदे हैं। इसके अलावा
यहाँ सफेद पत्थरों से निर्मितकुण्ड निकला है। 3.6
मीटर लंब व चौड़ेकुण्ड
की गहराई 70
सेंटीमीटर है।
कुण्ड के चारों तरफ 12 स्तम्भ भी थे। इनके अवशेष के रूप में आधार स्तम्भ शेष बचे हैं।कुण्ड के उत्तर पूर्व में तुलसी
चौरा है। इसमें जल की निकासी के
लिए एक भूमिगत नाली से जोड़करकुण्ड से
मिलाया गया है।कुण्ड के दक्षिण-पश्चिम
कोने पर भी भूमिगत नाली से जल निकासी के काम करने के प्रमाण यहाँ पर मिले हैं। यहकुण्ड संभवत: आयुर्वेदिक स्नान के लिए प्रयुक्त होता
था।कुण्ड में नीम की पत्तियाँ डालने का अनुमान हो सकता है। यहाँ पर संभवत: तेल
स्नान पद्धति का भी उपयोग किया जाता रहा होगा।
यहाँ सात धान्य भण्डार भी मिले हैं। इसमें तुलसी और
नीम पत्ती व गेरू के टुकड़े रखकर दीमक से सुरक्षा करने के प्रमाण मिले हैं।
व्यापारिक नगरी का प्रमाण
औद्योगिक नगर की प्रतिष्ठा शरभपुरिया और
पांडूवंशीय काल में सिरपुर का वैभव एक महान राजधानी के तौर पर था लेकिन हाल में
मिले साक्ष्यों से इस बात की पुष्टि हो गई है कि इससे पहले भी इसकी ख्याति
औद्योगिक उत्पादनों के लिए थी। सातवाहनों का प्रभुत्व इस नगर पर तीसरी सदी ईसा
पूर्व से तीसरी शताब्दी ईसवी तक रहा। महानदी के तट पर स्थित सिरपुर अरब देशों में
चावल निर्यात का प्रमुख केन्द्र था। सूरत बंदरगाह होते हुए सदियों पूर्व अरबदेश के
व्यापारी यहाँ आते थे।
उत्खनन के निदेशक डा. अरुण शर्मा ने बताया
कि वहाँ पानी के बड़ेकुण्ड के पास एक कमरा मिला है। इसमें सोने के गहने और
काँच की चूडिय़ों की ढलाई होती थी। 10 सेमी लम्बा और ढाई सेमी चौड़ा
स्लेटी प्रस्तर खण्ड पर एक ऐसा साँचा मिला
है ,जिसमें बारीक नक्काशीदार आकृतियाँ हैं। जिसे दो हजार वर्ष पहले की सातवाहन काल का
बताया जाता है। सोने को गलाने के बाद इसमें डाला जाता था। आम और कई आकर्षक
आकृतियों में गहनों की ढलाई कर ली जाती। गहने ही नहीं यहाँ बनाई जाने वाली काँच की चूडिय़ों की माँग देश के
कई हिस्सो में होती थी। सोने-चाँदी और काँच का सामान पिघलाने में इस्तेमाल होने
वाले मिट्टी के पात्र भी पाए गए हैं। बड़े पैमाने पर गहने और कांच की चूडिय़ों का
उत्पादन कर इनका गुजरात, उड़ीसा समेत देश के कई हिस्सों में
व्यापार होता था।
राम वनवास और सिरपुर
खुदाई में जो तथ्य सामने आ रहे हैं उससे फिर
से इस बात की पुष्टि हुई है कि भगवान श्रीराम को जब 14 साल का वनवास मिला था तब उनको सिरपुर से होकर ही दक्षिण की तरफ जाना
पड़ा था। श्रीराम के छत्तीसगढ़ के सिरपुर से होकर जाने के और कई प्रमाण पहले से भी
छत्तीसगढ़ में मौजूद हैं जैसे आरंग में अहिल्या का स्थान होने के साथ तुरतुरिया
में बाल्मीकि का आश्रम। सात ही दण्डकारण्य जाने का सबसे बेहतर रास्ता सिरपुर से
होकर ही जाता था। श्रीराम ने शबरी से जो बेर खाए थे उसे सिरपुर के आस-पास के
जंगलों में ही बताया जाता है।
शबरी जहाँ रहती थीं उस नगर को शबरीपुर कहा जाता था। शबरीपुर
का उल्लेख अलेक्जेंडर कनिंघम की पुस्तक में भी मिलता है, जो उन्होंने 1872 में लिखी थी। इस पुस्तक में शबरीपुर के साथ इस बात का भी उल्लेख है।
यह बात भी स्थापित है कि सिरपुर में ही देश का प्रमुख चौराहा था। इस चौराहे से
गुजरे बिना कोई भी दूसरी दिशा में जा ही नहीं सकता था। जहाँ किसी को दक्षिण की और जाना होता था ,तो उसको
इलाहाबाद, सतना, अमरकंटक के बाद सिरपुर होकर ही
दक्षिण की और जाना पड़ता था। श्रीराम भी दक्षिण जाने के लिए इस चौराहे से होकर गए
थे। इस मार्ग का उपयोग उस समय ज्यादा इसलिए भी होता था; क्योंकि यही एक ऐसा मार्ग
था ,जिस मार्ग में नदियाँ कम पड़ती थी।
मन्दोदरी पिता ने की टाउन प्लानिंग
ढाई हजार साल पुराने सिरपुर की खुदाई कर
रहे पुरातत्त्ववेत्ताओं का यह भी दावा है कि इस शहर की डिजाइन लंका के राजा रावण
के ससुर मय ने बनाया है। रावण की पत्नी मन्दोदरी के पिता मय का जिक्र पुराणों और पुरानी
तमिल पाण्डुलिपियों में अद्वितीय वास्तुविद् के रूप में मिलता है। सिरपुर के महल, शहर संरचना, राजधानी के लिए जगह के चयन से लेकर ईंटों
को जोडऩे के लिए प्रयुक्त गारे तक में वही सामग्री इस्तेमाल हुई है, जिसका जिक्र 10 हजार साल पहले मय ने किया था।
भवन निर्माण की सारी विधियों को संस्कृत
भाषा में लिखी गई पाण्डुलिपियों में सुरक्षित किया गया था। कुछ साल पहले इन्दिरा गाँधी
राष्ट्रीय कला केंद्र, नई दिल्ली ने इन पाण्डुलिपियों को मयमतम्
(मय के विचार) किताब के रूप में प्रकाशित किया था। डेढ़ हजार से ज्यादा पेजों की
दो हिस्सों में छपी किताब का अंग्रेजी में अनुवाद बेल्जियम के ब्रूनो डेगन्स ने
किया है, जो अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वास्तुविद्
और संस्कृत के शिक्षक हैं। ग्रंथ के हिसाब से पाण्दुवंशी राजाओं ने सिरपुर को ऐसे
स्थान पर बसाया, जहाँ पीली मिट्टी थी और उसका आकार नदी की धारा के
साथ-साथ धनुष जैसा था। शहर की बाहरी दीवार नदी के धारा के समानान्तर ठीक 22 से 30 डिग्री के कोण पर थी। मयमतम् के अनुसार
नदी से लगी दीवारों के ऐसे कोण से बाढ़ में भी शहर को नुकसान नहीं पहुँचता। सिरपुर
का ढाल भी किताब के अनुसार पूर्व से पश्चिम की तरफ है।
सिरपुर में अब तक मिले 17 शिवमन्दिरों में भी एक खास सिद्धान्त का प्रयोग हुआ है, जिन्हें भी वास्तुविद् और भगवान शिव के भक्त मय ने बनाया था। सिद्धान्तके
अनुसार मन्दिर का दरवाजा शिवलिंग के आकार
से दोगुना बड़ा और मन्दिर काशिखर आठ गुना
होना चाहिए। जाँच में पाया गया कि सारे शिवमन्दिर उसी गणना के अनुरूप बने हैं। आज हम आधुनिक शहरों
में भूमिगत नाली की व्यवस्था की बात करते हैं, लेकिन सिरपुर में 1800 से 2500 साल पुराने मकानों में पहले से ही यह
व्यवस्था थी। शहर की कुछ भूमिगत नालियाँ तो एक किमी से भी ज्यादा लंबी मिलीं है।
ईंटों की जुड़ाई का फार्मूला
मकान, मन्दिरों में इस्तेमाल ईंटों की
जुड़ाई में मसाले की जगह फेविकोल जैसे पेस्ट का बखूबी इस्तेमाल किया गया था।
सीमेंट से कहीं ज्यादा मजबूत जुड़ाई करने वाले पेस्ट के नमूने को शर्मा ने केमिकल
टेस्ट के लिए देहरादून के लैब में भेजा था। जाँच से उन्हें पता चला कि पेस्ट तैयार
करने के लिए हजारों साल पुराने फार्मूले का इस्तेमाल हुआ था। इसे बबूल की गोंद, अलसी के तेल, भूसे, सड़े हुए गुड़, कुछ जड़ी-बूटियों के मिश्रण को
सड़ाकर तैयार किया जाता था।
विश्व धरोहर की बाट जोहता सिरपुर?
सिरपुर के इन पुरातन विशेषताओं के देखते
हुए लम्बे समय से इसे विश्व धरोहर घोषित कराने की माँग की जा रही है परन्तु इस पर
अभी तक गम्भीरता से विचार नहीं किया गया है। राज्य सरकार को चाहिए कि वह इस ओर
पुन: प्रयास आरंभ करे ताकि विश्व के पर्यटन मानचित्र पर सिरपुर का नाम भी प्रमुकता
से आए और आधिक से अधिक देशी और विदेशी पर्यटक इस ओर आकर्षित हों वैसे राज्य सरकार
ने वर्ष 2006 से सिरपुर महोत्सव का आयोजन प्रारम्भ कर
किया है; जिससे सिरपुर को राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक विशेष पहचान मिली
है। इसके बावजूद अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। (उदंती फीचर्स)
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