ऐतिहासिक सिद्धेश्वर मन्दिर
छत्तीसगढ़ में ईंटों के मन्दिरों की गौरवाशाली परम्परा
रही है, इसी परम्परा का एक
उदाहरण पलारी का सिद्धेश्वर मन्दिर है जो
रायपुर जिले में स्थित पलारी ग्राम के बालसमुंद तालाब के किनारे स्थित है।
पश्चिमाभिमुख यह मन्दिर लघु अधिष्ठान पर
निर्मित है। मन्दिर का गर्भगृह पंचस्थ
शैली का है तथा जंघा तक अपने मूल रूप में सुरक्षित है। शिखर का शीर्ष भाग पुनर्निर्मित
है। पाषाण निर्मित द्वार के चौखट कलात्मक एवं अलंकृत है, इसके दोनों पार्श्वों में नदी देवियों, गंगा एवं यमुना का त्रिभंग मुद्रा में अंकन
है। सिरदल पर ललाट बिम्ब में शिव का चित्रण है, तथा दोनों पार्श्वों में ब्रह्मा तथा विष्णु का अंकन
है। मन्दिर के द्वार पर निर्मित पाषाण पर
तराशे गए शिव विवाह का दृश्य दर्शनीय है। पुरातत्त्व विशेषज्ञों के अनुसार शिव
विवाह का यह अंकन अद्भुत है।
परन्तु बुजुर्गों द्वारा जो बात बताई जाती है वह सत्य
के ज्यादा नजदीक जान पड़ती है। बात 1950- 60 के दशक की है जब पलारी गाँव के
आस- पास घना जंगल था तथा शेर, भालू,
तेंदुआ यहाँ आसपास विचरते रहते थे। गाँव के मालगुजार दाऊ कलीराम वर्मा शिकार के दौरान घूमते
हुए घने जंगल से घिरे इस मन्दिर के पास पहुँच
गए तब यह मन्दिर झाड़ -झंखाड़ से दबा हुआ
जीर्ण- शीर्ण अवस्था में था। यद्यपि मन्दिर का गर्भगृह तब खाली था;लेकिन घाट और
तालाब के अवशेष के चिह्न देखकर उन्होंने अनुमान लगाया कि हो न हो यह शिव मन्दिर था। अत: धाराशायी होते इस जीर्णशीर्ण मन्दिर का जीर्णोद्धार एवं घाट का निर्माण करने की
इच्छा पलारी के मालगुजार दाऊ कलीराम वर्मा ने अपने स्व. पिता मोहन लाल की स्मृति
में बनवाने की इच्छा जाहिर की। तब उनकी इच्छानुसार पुत्र बृजलाल वर्मा (भूतपूर्व
केन्द्रीय मंत्री) ने सन् 1960-61 में
इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया और मन्दिर
में शिवलिंग की स्थापना करके अपने पिता की
अंतिम इच्छा पूरी की।
इस प्राचीन स्मारक तथा पुरातात्विक दृष्टि से अधिनियम 1964 तथा 65 के अधीन राज्य संरक्षित स्मारक घोषित किया गया हैं।
मन्दिर के
गर्भगृह में जीर्णोद्धार के समय ही संगमरमर का शिवलिंग स्थापित कर दिया गया था अत:
60 के दशक से ही यहाँ पूजा अर्चना होती आ रही है। इस मन्दिर में प्रति वर्ष माघ पूर्णिमा के दिन भव्य मेले
की आयोजन किया जाता है। मेले के दिन आस-पास के गाँव से हजारो भक्त तालाब में स्नान करते हैं तथा दिन
भर मेले का आनंद लेते हैं।
कलाशैली की दृष्टि से यह मन्दिर 900 ई. का माना जाता है। जिसे छत्तीसगढ़ में ही स्थित विश्व विख्यात लक्ष्मण मन्दिर जो सिरपुर में है, के समकक्ष कहा जा सकता है। सिरपुर में इन दिनों खुदाई
का कार्य चल रहा है ,जिससे इतिहास के अनेक पन्ने खुलते चले जा रहे हैं।
गुप्तकालीन वास्तुकला भारतीय इतिहास में एक
क्रांतिकारी परिवर्तन लाती है। यह मन्दिर गुप्तकालीन स्थापत्यकला काअनुपम उदाहरण है।
भारतीय स्थापत्यकला के विकास में नागर, द्राविण और बेसर शैलियों का मान निश्चित किया गया। पलारी का शिव मन्दिर नागर शैली में निर्मित है। गुप्तकाल में मथुरा,
सारनाथ, नालंदा, अमरावती आदि मूर्त्तिकला के प्रमुख केंद्र थे। शैली की दृष्टि से
गुप्तकालीन मूर्त्तियाँ व यक्ष प्रतिमाओं
का विकास पुराण की देन है। गुप्तकालीन मन्दिरों के द्वार शाखाओं पर गंगा, यमुना की खूबसूरत मूर्त्तियों का रूपायन हुआ
है, जो पलारी के इस सिद्धेश्वर मन्दिर
के द्वार पर भी देखने को मिलता है।
पुरातत्त्वविद डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर के अनुसार
छत्तीसगढ़ के राजिम, सिरपुर,
खरौद एवं पलारी के शिव मन्दिर एक ही समय के निर्मित मन्दिर हैं।
इस मन्दिर के
बाह्य भाग में सूर्यनारायण, नृसिंह
भगवान, हनुमान जी, सरस्वती आदि के मनोमुग्धकारी चित्रांकन हैं,
मौसम की मार से जो अब लुप्तप्राय स्थिति
में हैं। मन्दिर का पृष्ठ भाग भी काफी
क्षतिग्रस्त हो गया है एवं मन्दिर झुकता
हुआ नजर आता है। जिसको दुरुस्त किए जाने की आवश्यकता है।
अफसोस की बात है कि हम अपनी ऐसी न जाने कितनी धरोहरों
को उपेक्षित करते चले जा रहे हैं। नवीं शताब्दी में बने इस मन्दिर के इस महत्त्व पूर्ण द्वार की मूर्त्तियों के ऊपर
कुछ वर्ष पहले ग्रामवासियों ने अपनी अपार भक्ति का प्रदर्शन करते हुए वार्निश और
चूने का उपयोग कर कलाकृतियों को खराब कर दिया था, जिसे बाद में पुरातत्त्व विभाग ने सन् 1995 में रासायनिक उपचार कर दुरुस्त किया था। इसी
तरह की भक्ति दिखाते हुए कुछ वर्ष पहले मन्दिर के गर्भ गृह में अतिरिक्त निर्माण करके एक भारी
भरकम पीतल की घंटी लगा कर मन्दिर को कमजोर
करने की कोशिश की गई थी। हाल ही में उक्त घंटी के चोरी हो जाने का भी समाचार मिला।
अत: ऐसे ऐतिहासिक मन्दिरों की महत्ता के प्रति क्षेत्र के लोगों को जागरुक किया
जाना अत्यावश्यक है। इसके लिए जरुरी है कि पुरातत्त्व विभाग भी आवश्यक कदम उठाए।
शिव विवाह का चित्रण
पुरातत्त्ववेत्ताओं का
मत है कि पूरे
भारत में अब तक ज्ञात किसी भी मन्दिर में
ऐसी शिल्पकला नहीं देखी गई है और न ही किसी ग्रंथ में वर्णित है कि अमुक मन्दिर में पुष्पक जैसे विमान पत्थरों पर चित्रित हैं।
इस दृष्टि से पलारी के इस शिव मन्दिर का महत्त्व
काफी बढ़ जाता है, साथ ही यह और अधिक अध्ययन की माँग करता है।
मन्दिर के
प्रवेश द्वार पर चित्रित पुष्पक जैसे विमान पर जब पहली बार पुरातत्त्व अधिकारियों
की निगाह पड़ी तो वे चौंक गए। सर्वेक्षण में
पत्थरों पर शिव विवाह को चित्रित किया गया है और बारातियों में शामिल देव समुदाय
विमान पर सवार हैं। पुष्पक विमान का उल्लेख केवल पौराणिक ग्रंथों में मिलता है,
जिसके अनुसार यह कुबेर का था, जिसे रावण
ने छीन लिया था। लंका विजय के बाद भगवान श्री राम इसी से अयोध्या लौटे थे।
यहाँ शिव
विवाह से संबंधित कथानक को अत्यंत कलात्मक ढंग से उकेरा गया है। मन्दिर की चौखट पर शिव विवाह के दृश्य में देवाताओं को
हाथियों अश्वों एवं बैल पर सवार होकर जाते अंकित किया गया है। चौखट के शीर्ष पर
मृदंग आदि बजाते नृत्य करते लोगों को दर्शाया गया है;जो अत्यंत मनोहारी है। प्रवेश
द्वार पर बारातियों में शामिल दिग्पालों का शिल्पांकन प्रमुखता से है। शिल्प
शास्त्रों में वर्णित दिग्पालों के पारम्परिक वाहनों से अलग हटकर वाहन दर्शाए गए
हैं। पुराणों में बताये गए वैमानिक का प्रतीकात्मक शिल्पाकंन यहाँ मिला है। धर्मशास्त्रों के बाद वैमानिक कला का
यह प्रतीकात्मक शिल्पांकन निश्चित रूप से प्राचीनकाल में वैमानिक ज्ञान की परम्परा
का घोतक है। (उदंती फीचर्स)
No comments:
Post a Comment