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Sep 15, 2015

तुरतुरियाः लव- कुश की जन्मस्थली

तुरतुरियाः लव- कुश की जन्मस्थली 
जहाँ  सौर ऊर्जा से रौशन होते हैं गाँव
 - ज्योति प्रेमराज सिंह
 छत्तीसगढ़ के घने जंगलों के बीच स्थित तुरतुरिया में महर्षि वाल्मीक का आश्रम इस बात की याद दिलाता है कि रामायण काल में छत्तीसगढ़ का कितना महत्त्व  रहा होगा।
रायपुर से 113 किलोमीटर की दूरी पर स्थित रायपुर-बलौदाबाजार मार्ग पर ठाकुरदिया नाम के स्थान से सात किलोमीटर दूरी पर घने जंगल और पहाड़ों पर स्थित है तुरतुरिया। यहाँ  जाने का रास्ता शायद पहले आसान नहीं रहा होगा, क्योंकि सुरम्य और घनी पहाडिय़ों के बीच स्थित इस स्थान में जगह-जगह पहाड़ी कछार, छोटे-छोटे नाले और टीलें हैं। इन्हीं पहाडिय़ों के बीच बहती है बालमदेही नदी जिसका पाट तुरतुरिया के पास काफी चौड़ा हो गया है। पहाड़ी नदी होने के कारण वर्षा ऋतु में इसका तेज प्रवाह तुरतुरिया तक पहुँचने के रास्तों को और कठिन बना देता है। यह नदी आगे चलकर पैरागुड़ा के पास महानदी में मिल जाती है।
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद इस राज्य के ऐतिहासिक और पौराणिक साक्ष्यों से संबंधिक क्षेत्रों का लगातार विकास कर इन्हें पर्यटन क्षेत्रों के रूप में उभारा जा रहा है। तुरतुरिया जहाँ  पहुँचना पहले आसान नहीं था, लेकिन अब इसके रास्तों को आसान बनाया जा रहा है।  तुरतुरिया तीन मुख्य रास्तों से जाया जा सकता है, एक सीधे रायपुर से बारनवापारा जंगल होते हुए, दूसरा सिरपुर से और तीसरा बलौदाबाजार से।
तुरतुरिया वन विभाग की चौकी पार करने के बाद दो सौ कदम के फासले पर ही स्थित है महर्षि वाल्मीक का आश्रम। सामने ही एक पहाड़ी पर वैदेही कुटीर नजर आती है। वहाँ  तक पहुँचने के लिए पहाडिय़ों को काटकर सीढिय़ाँ बना दी गई हैं। सीढिय़ों के किनारे-किनारे जंगली मोगरे के छोटे-छोटे पौधे बिखरे पड़े हैं। गर्मियों और बारिश में जब ये फूल खिलते हैं, तो वातावरण और खुशनुमा हो जाता है। ऊपर पहुँचने पर एक पक्का कुटीर नजर आता है। यदि आपकी किस्मत अच्छी है, तो आपको ऊपर पहुँचने पर हिरणों का झुण्ड भी विचरण करता नजर आ सकता है। हालाँकि पर्यटकों की आहट से चौकन्ना होकर ये हिरण कुलाँचे भरते हुए पल भर में पेड़ों के झुरमुट में गायब भी हो जाते हैं। रात में और भी जानवर यहाँ  पर देखे जा सकते हैं। इसी पहाड़ी से लगी एक अन्य पहाड़ी है, जहाँ  पर महर्षि वाल्मीकि का आश्रम स्थित है।
प्राचीन जनश्रुतियों के अनुसार त्रेतायुग में यहाँ  महर्षि वाल्मीकि का आश्रम था और यहीं पर उन्होंने सीताजी को रामचन्द्र जी द्वारा त्याग देने पर आश्रय दिया था। और यहीं सीताजी के दोनों पुत्र लव और कुश ने जन्म लिया था। वैदेही कुटीर के नीचे ठीक बाएँ  एक सँकरा रास्ता पैदल जाता है। सामने ही कलात्मक खम्भे दिखाई देते हैं, जो विखण्डित  हो चुके हैं।
इसी क्षेत्र में बौद्ध भग्नावेश भी मिलते हैं, जो 8वीं शताब्दी के हैं। यहीं पर कई उत्कृष्ट कलात्मक खम्भे भी नजर आते हैं, जो किसी स्तूप के अंग हैं।  माता सीता और लव-कुश की एक प्रतिमा भी यहाँ  नजर आती है, जो 13-14 वीं शताब्दी की बताई जाती है। पाषाण निर्मित ये मूर्त्तियाँ  कलात्मक तो नहीं कही जा सकती, लेकिन इससे यह बात स्पष्ट होती है कि प्राचीन काल में भी इस जगह को वाल्मीक के आश्रम के रूप में मान्यता मिली हुई थी।
घने जंगलों से घिरे इस क्षेत्र का नाम तुरतुरिया पडऩे का कारण संभवत: चट्टानों के बीच से इस झरने का उद्गम एक लंबी सँकरी गुफा से होना है। जहाँ  से वह बड़ी दूर तक भूमिगत होकर बहती है। इस झरने को यहाँ  सुरसरि गंगा के नाम से भी जाना जाता है। इस गुफा से निकलने वाला जल नीचें पहुँच कर र्इंटों से निर्मित एक कुण्ड  में एकत्र होता है। इस कुण्ड  में उतरने के लिए सीढिय़ाँ बनी हुई हैं। बारहों महीने इसकी जलधारा प्रवाहित होती रहती है। यहाँ  पर नियुक्त महंत रामकिशोर दास के अनुसार वे पिछले 35 बरसों से इस क्षेत्र में निवास कर रहे हैं। इतने बरसों में उन्होंने कभी इस धारा को सूखते नहीं देखा है। कुण्ड  के निकट दो शूरवीरों की मूर्त्तियाँ  हैं, जिनमें से एक तलवार उठाए हुए है, जो उस सिंह को मारने के लिए उद्यत है जो उसकी दाहिनी भुजा को फाड़ रहा है। दूसरी मूर्त्ति में एक जानवर उसकी पिछली टाँगों पर खड़ा होकर उसका गला मरोड़ रहा है। यहाँ  पत्थर के कई स्तम्भ यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं, जिन पर उत्कृष्ट खुदाई का काम किया गया है।

 बौद्ध विहार-
यह स्थान कुण्ड  से कुछ दूरी पर नाले के दूसरे किनारे पहाड़ पर स्थित ऋषियों के कुटी में जाने के लिए बनाए गए पहाड़ी सीढिय़ों के समीप है। जहाँ  पर   बौद्ध  भिक्षुणियों की मूर्त्ति पाई गई हैं जो कि उपदेश देने की मुद्रा में दिखाई गई हैं। इन मूर्त्तियों का काल 8-9 वीं शताब्दी बताया जाता है। इन मूर्त्तियों को देखकर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सम्भवत: यहाँ   बौद्ध  भिक्षुणियों का विहार था। और यह शोध का विषय भी है कि भारत में   बौद्ध  भिक्षुणियों के लिए विहार का निर्माण किया गया था या नहीं? इन अवशेषों से इस बात का स्पष्ट पता चलता है कि इस क्षेत्र पर 8-9 वीं शताब्दी में बौद्ध धर्म का प्रभाव था और यहाँ  प्रमुख बौद्ध स्तूप और स्थल रहा होगा। इस क्षेत्र की खुदाई और शोध से कई बातें और सामने आ सकती हैं। 
यहाँ  कुछ भग्न मन्दिर  भी प्राप्त हुए हैं जिनका जीर्णोद्धार हो चुका है। बौद्ध मूर्त्तियाँ खण्डित  अवस्था में हैं तथा समीप ही शैव वैष्णव धर्म की कुछ मूर्त्तियाँ  पाई गईं हैं, जिनमें शिवलिंगों की अधिकता है। इनमें विष्णु और गणेश जी की भी   मूर्त्तियाँ  हैं।
इस क्षेत्र का महत्त्व  छेराछेरा के मौके पर और बढ़ जाता है, जब यहाँ  पर मेला भरता है। जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं कि धार्मिक मान्यता के अनुसार इस स्थान पर लव-कुश का जन्म हुआ था, इसलिए पूष माह में यहाँ  पर तीन दिनों का मेला भरता है। छत्तीसगढ़ के इस पारम्परिक त्योहार छेरछेरा जो पूर्णिमा यानी पुन्नी के दिन धान कटाई के बाद मनाया जाता है  के दिन दिन गाँव -गाँव  में घर-घर जाकर छोटे-छोटे बच्चे गुहार (आवाज) लगाकर कहते हैं- छेरा-छेरा, कोठी के धान ल हेर हेरा। यानी धान का दान देना इस दिन शुभ माना जाता है। इस दिन लगने वाले मेले में आस-पास के हजारों लोग जुटते हैं। तब तक बालमदेही नदी का पाट काफी सिमट जाता है और गाँव -गाँव  से आने वाले लोग नदी के रेतीले तट पर अस्थायी चूल्हे बनाकर अपने खाने-पीने का इंतजाम करते हैं।
इस समूचे क्षेत्र में एक अच्छी बात यह देखने में आई कि पहाड़ी क्षेत्र होने के बाद भी यहाँ  पर गाँव -गाँव में रौशनी है। यह कमाल सौर ऊर्जा का है। समूचे क्षेत्र में सौर ऊर्जा से बिजली प्रवाहित होती है। आस-पास के गाँवों में भी छोटे-छोटे सौर संयन्त्र नजर आते हैं, जिनसे पूरे गाँव  को रौशनी मिलती है। तुरतुरिया में भी रौशनी सौर ऊर्जा से पहुँचाई जा रही है।
इस क्षेत्र से सबसे समीप का गाँव  है बफरा, जहाँ 30 से 40 कच्चे-पक्के मकान बने हुए हैं। यह गाँव  तुरतुरिया से 10-12 किमी की दूरी पर स्थित है। तुरतुरिया जाने के मार्ग पर पडऩे वाले गाँव  काफी बिखरे हुए हैं। इसकी वजह शायद इसका पहाड़ी इलाका होना है।
तुरतुरिया से 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है मातागढ़। बालमदेही नदी के पश्चिम में स्थित इस स्थान पर देवी माँ  का एक प्राचीन मन्दिर  है। जिसकी बड़ी मान्यता है।

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