भाँग-भंडारा
-जवाहर चौधरी
नाम उनका निरंजन पहलवान था, लेकिन लोग उन्हें
निंजू भिया कहते थे। निंजू भिया का एक निराला शौक था। वे होली पर सबको निःशुल्क
भाँग पिलाया करते थे। जैसे इन दिनों राजनीतिक पार्टियाँ चुनाव से पहले,
यानी दो चार महीने पहले से भोजन भंडारा किया करती हैं।
आस-पास के लोग, माता-बहनें,
बच्चे वगैरह पूरी-सब्जी, रायता और एक आध मीठा खाते मस्त रहते हैं। छुटके नेताओं को
इससे अपनी नेतागिरी चमकाने का मौका मिलता है और चंदे की खासी रकम भी। अंदर ही अंदर
यह धारणा भी है कि लोगों को नमक खिला देने
से वे वफादार होने लगते हैं। हालांकि चचा गालिब क्या खूब कह गए हैं –
“जिनको हमसे है वफा
की उम्मीद, वे नहीं जानते वफा क्या है”। आज होते तो उनको भी को चार भंडारे खिलाकर उनकी
शायरी को शीर्षासन करवा देने की कोशिश होती। खैर, निंजू भिया की बात चल रही थी। छह महीने पहले से वे होली के
भाँग-भंडारे की तैयारी में लग जाते थे। उन्हें भाँग का नशा इतना नहीं चढ़ता था
जितना भाँग पिलाने का। इस आयोजन का वे किसी से पैसे नहीं लेते थे। सारा खर्च खुद
ही उठाते थे। भाँग के अलावा सबसे महँगा सामान ड्राई फ्रूट्स का हुआ करता था । बादाम-काजू
वगैरह इसमें प्रमुख थे। आप सोच रहे होंगे की किलो दो किलो में काम हो जाता होगा तो
आपको बता दें शुरू शुरू में वे एक कोठी भाँग बनाते थे। यानी करीब दो सौ लीटर।
लेकिन बाद में जब भक्तजनों की आमद बढ़ी
प्रसाद तो दो कोठी तक का इंतजाम होने लगा। इसके लिए काफी सारा मेवा लगता
था। उन्होंने कभी अपनी भाँग की समृद्धि से कभी कोई समझौता नहीं किया।
भाँग वे पूरे
मनोयोग से खुद ही पीसते थे। और हर आधे घंटे में आगंतुकों को बताते जाते थे कि भाँग पीसना हर किसी के बस की बात नहीं है।
इसमें भोले की भक्ति, लोढ़ा चलाने की कला और सतत साधना व धैर्य की जरूरत होती है।
इस काम के लिए उनके पास एक बड़ा सा सिलपत्थर था। निंजू भिया जिस समय भाँग पीसते
माहौल किसी आरती आराधना का सा हो जाता। किसी ने कहा है –“मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर,
लोग साथ आते गए
कारवां बनता गया”। जिस रात होली जलना
होती उस रात लोग निंजू भिया के साथ भाँग निर्माण में जुटे रहते। जैसे किसी समारोह
के लिए हलवाइयों की टोली रसोई के काम में लगा करती है । सैकड़ों संतरे और खूब सारे
अंगूरों का रस तैयार किया जाता। दूध-मिश्री, बादाम, काजू, खसखस, और मगज की खूब घुटाई होती और फिर इन सब का ढेर सारा पेस्ट
भाँग में घोला जाता इसके अलावा कुछ मसाले भी होते थे।
धुलेंडी के दिन
यानी जिस दिन रंग खेला जाता है, भाँग का वितरण शुरू होता। पहले भोले बाबा को भोग लगाया
जाता। सुबह नौ बजे से पहले वे वितरण शुरू नहीं करते। हर एक को एक एक गिलास आग्रह से देते।
कोई चाहता तो दो भी। आपस में शर्त लगा कर पीने वाले सात,
आठ, नौ तक पी जाते। निंजू भिया मना तो नहीं करते लेकिन चार दिनों तक औंधे पड़े रहने की चेतावनी
अवश्य देते। अगर भंग की तरंग का डर नहीं
हो तो मन करता कि पेट जितनी जगह है उससे ज्यादा पी लें। उनके आयोजन से होली रंग से
ज्यादा भंग का त्यौहार होती थी।
होली हो जाने के
बाद महीनों तक निंजू भिया आयोजन के खुमार में रहते। साथी लोग भी उनके इस आनंद को
खूब ऊंचाई देते। अगले साल की योजनाएँ भी बनतीं। महीनों निकाल जाते,
दिवाली के बाद फिर होली का इंतजार होने लगता।
पचास साल में बहुत
कुछ बदल गया। निंजू भिया नहीं रहे। पेड़ों से आच्छादित उनका कार्यक्रम स्थल अब
कॉलोनी में बदल गया है। लेकिन जिन्होंने निंजू भिया की भाँग पी है वे होली पर वहाँ
से गुजरते हैं तो उनके मुँह से बरबस “जय भोलेनाथ” अवश्य निकल जाता है ।
सम्पर्कः 16 कौशल्यापुरी, चितावद रोड़, इन्दौर – 452001, 9826361533,
9406701670, jc.indore@gmail.com, Blogs-
hindivyangya.blogspot.com
No comments:
Post a Comment