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Dec 3, 2025

पंजाबी कहानीः सुर्ख शालू

 - बलदेव सिंह ग्रेवाल, अनुवाद : सुभाष नीरव

बात बहुत पुरानी है। तब की शायद जब बाबा आदम ने वर्जित फल चख लिया था। और वह बात आज तक चली आ रही है।

इस बार भारत आया था तो यह बात, मेरे साथ ही एक हसरत बनकर आ गई थी।

... तब मैं पागलों की तरह शोर मचाता खेत में इधर-उधर भागता फिर रहा था। हाथ में पकड़ा कनस्तर डंडे से पीटे जा रहा था। आस पास के सभी खेतों में लोग मेरी तरह ही हो-हल्ला मचाते घूम रहे थे। टिड्डियाँ ही टिड्डियाँ चारों तरफ… पिछली सदी के पचासवें दशक में टिड्डियाँ… कुछ सालों बाद टिड्‌डी दल अक्सर ही हमला बोलता था। पूरा आसमान टिड्डियों से भरा हुआ। लगता था, काली आँधी आई हो। मैं शोर मचाता कतस्तर पीटता मक्की की फसल में से टिड्डियों को उड़ा रहा था। वे जहाँ कहीं भी बैठ जातीं, फसल चट कर जाती थीं। मक्की की फसल अभी बालिश्त भर ही हुई थी। मैं अकेला ही करीब छह कनाल के खेत में टिड्डियों को नीचे उतरने से रोक रहा था। तब पंजाब में चकबंदी नहीं हुई थी। कोई खेत कहीं था और कोई कहीं। सारा परिवार अलग-अलग खेतों में टिड्डी उड़ाने गया हुआ था। इस पश्चिम दिशा वाले खेत में मुझे भेजा गया था।

पूरा प्रयास रहता था कि टिड्डियों को एक जगह बैठने न दिया जाए, पर वे तो असंख्य होती थीं। उनको अपनी मरजी करने से रोकना असंभव-सा ही लगता था। मैं तब नौंवी कक्षा में पढ़ता था। मुझे मेरे माता पिता ने जैसे कहा था, हुक्म बजा रहा था। दौड़ दौड़कर खेत के कोने-कोने में जाता और अपनी फसल को बचाने की जी- तोड़ कोशिश करता। 

अचानक कानों में किसी की चीखें सुनाई दीं। मैंने देखा साथ वाले खेत में एक लड़की डर के मारे चीख रही थी। हाथ में पकड़ा हुआ उसका टीन भी नीचे गिर गया था। उसकी दर्दनाक चीख सुनकर मैं उस तरफ दौड़ा। लड़की के पूरे शरीर पर टिड्डियाँ बैठी हुई थी और वह नीचे गिरी पड़ी थी। मैंने अपना साफा मार-मार कर टिड्डियाँ हटा दीं। फिर भी कोई न कोई टिड्डी जब उसके शरीर को छू जाती तो वह सहम जाती। चीखने लगती। 

उस घड़ी पता नहीं क्यों, मेरे लिए फ़सल को नहीं, लड़की को बचाना जरूरी हो गया था। वह हमारे गाँव की लड़की थी - सीतो। मेरे से एक जमात पीछे पढ़ती थी। टिड्डियों से डरती वह मेरी ओर यूँ देख रही थी, मानो मैं कोई परोपकारी होऊँ।... चारों तरफ टिड्डी दल आँधी की भाँति साँय-साँय कर रहा था। वह टिड्डी को अपने करीब आते देख घबरा उठती थी। उस पल मेरा धर्म बन गया था कि एक भी टिड्डी सीतों के शरीर को न छूने पाए। पर मेरा वश नहीं चल रहा था। तभी मैंने उसको अपनी बाहों में उठा लिया। वह भयभीत- सी मेरी बाहों में सिमट गई।

मैं उसको लेकर साथ वाले ईंख के खेत में घुस गया। ऊँची खड़ी ईंख में टिड्डी दल का नीचे धरती तक पहुँचना कठिन था। हम दोनों नीचे सिमटकर बैठ गए। काफी देर बैठे रहे। टिड्डी दल हमारे सिर के ऊपर से गुज़रता रहा, कई घंटों तक। हम आपस में कुछ नहीं बोल रहे थे, सटकर बैठे थे। शरीरों का स्पर्श था, एक-दूजे को निहारना था।

उस घड़ी टिड्डी दल हमारे सिरों पर शामियाना बन गया और हमारे इर्द-गिर्द खड़ी ऊँची ईंख - कनातें। ठीक इन्हीं पलों में वही बात हो गई, जो बाबा आदम के वर्जित फल खाने के वक्त हुई थी। 

अँधेरा होने पर हम अपने अपने घर लौट गए। टिड्डी दल जा चुका था। कुछ दिनों बाद गाँव में शोर मचा कि टिड्डियों ने गाँव के चौए (नमी वाला क्षेत्र) में अंडे दिए हैं। उन अंडों के टिड्डी बनने से पहले-पहले धरती में से खोदकर निकालने का सरकारी हुक्म आ गया था। स्कूल के बच्चों को भी इन अंडों को निकालने के लिए जाना पड़ा। हमें अंडों के वजन के हिसाब से पैसे दिए जाने थे। हम अपने झोले उठाए खुरपियों से खोद कर अंडे निकालने चले गए। वे अंडे परस्पर जुड़े हुए उँगली जैसे प्रतीत होते थे। शाम तक मैंने अपना झोला अंडों से लगभग भर लिया। पैसों का लालच जो था! मैंने देखा, मिस्त्रियों की सीतो अंडे खोदती-खोदती मेरे पास आ गई थी। वह थोड़ा मायूस लगती थी। उसे ज्यादा अंडे नहीं मिले थे। उसका झोला मुश्किल से अभी आधा ही भरा था। जब लौटने का समय हुआ, मैंने अपने झोले में से बहुत सारे अंडे उसके झोले में डाल दिए। उस पल सीतो ने अहसान और खुशी के मिले-जुले भाव के साथ मेरी तरफ देखा था। 

और फिर हमारे बीच एक मूक दास्तान चल पड़ी थी।

जब कभी राह में, गली में हमारी नजरें मिलतीं, महीन मुस्कान का आदान-प्रदान हो जाता। वह देखती और नजरें झुका लेती… दिल के अंदर तरंगें उठने लगतीं।

…कभी दीवाली पर गुरद्वारे में दिये जलाते हुए उसका चेहरा रोशनी में दिपदिपाता नज़र आ जाता। कभी राह में सिर पर बापू के लिए रोटी उठाए जाती हुई मिल जाती। आँखें मिलतीं तो उसका रंग सिंदूरी हो जाता। कभी दिन-त्योहार पर हमारे बोल भी साझे हो जाते, बस।

उन दिनों गाँवों में ऐसे रिश्ते वर्जित ही होते थे। कभी जी भरकर मुलाकात हुई ही नहीं। टिड्डी दल रोज-रोज कब आते हैं। वो तो कभी- कभार बरसों बाद ही आते हैं।

मैं अभी कालेज में पढ़ता था, जब उसका विवाह हो गया। हम बारात के लिए चाँदनियाँ लगा रहे थे। वह शादीवाला सुर्ख शालू ओढ़े जब मेरे पास से गुजरी, तो उसने मेरी तरफ देखा। आँखें मानो आँसुओं को छिपा रही हों… अधरों पर हया का ताला।

उस पल एक टीस-सी मेरे अंदर उभरी। और वह ससुराल चली गई। फिर कभी नहीं मिली।

मैं पढ़ाई पूरी करके नौकरी पर लग गया। शादी हो गई। बच्चों वाला परिवार हो गया। हर खुशी नसीब हुई। मेरी पत्नी ने मेरा जीवन स्वर्ग बना दिया। जिन्दगी से कभी कोई शिकवा नहीं हुआ। दौलत का भी कभी अभाव नहीं रहा। जीवन में हर वांछित सुख प्राप्त हुआ। शहर में ही कोठी बना ली। माँ-बाप के परलोक सिधारने के बाद गाँव से रिश्ता ही टूट गया। बेटे अमरीका पढ़ने चले गए, वहीं सैट हो गए। मैं रिटायर हुआ, तो बेटों ने हमको अमरीका बुला लिया। इतने वर्षों के सफ़र में सब कुछ होते हुए भी सीतो हमेशा मेरे ज़हन में मौजूद रही। उसका वो निहारना, उसकी वह मुस्कान सदैव पीछा करती रही। किसी शिकवे की तरह नहीं, एक सुखद अहसास की तरह…।

जिन्दगी में उसकी एक झलक पाने की कामना हमेशा दिल में रेंगती रही है।

पिछले साल जीवन-संगिनी का साथ छूट गया। वह दिल के दौरे से चल बसी। एक झटके से बहार ख़िजाँ में बदल गई। बेटों, पोते-पोतियों के होते हुए भी अकेला हो गया। पत्नी के साथ बिताया एक-एक पल याद आता, दुखी हो जाता। इस दुख में भी सीतो का चेहरा उभरकर सामने आ जाता - टिड्डियों से डरी-सहमी… मेरे साथ सिमटकर बैठी सीतो… करीब से सुर्ख शालू ओढ़े गुजरती सीतो, होंठों पर हलकी मुस्कान… और आँसुओं को छिपाती पलकें।

मैंने इंडिया का एक चक्कर लगाने का मन बना लिया। बेटे भी सोचते कि शायद इससे मेरा दिल बहल जाएगा। मेरे दिल में सीतो को एक झलक देखने की कामना जवान हो गई थी। यह हसरत मेरे साथ ही इंडिया आ गई।

मुझे याद था, वह मेरी बुआ के गाँव में ही ब्याही थी। बुआ तो गुज़र गई थी, मैं उसके पुत्र को मिलने के बहाने उस गाँव में गया। बातों बातों में मैंने उससे पूछ लिया, “हमारे गाँव के मिस्त्रियों की लड़की तुम्हारे गाँव में ब्याही थी।”

उसके जवाब ने सीतो के सुर्ख शालू को सफ़ेद कफ़न में बदल दिया। उसने बताया, “वह तो कई साल पहले चल बसी थी”

मेरी आह निकल गई…

“वह तड़के जंगल-पानी को ईंख के खेत में गई थी। वहाँ मधुमक्खी का छत्ता लगा हुआ था। मधुमक्खियाँ उसके पीछे लग गई। वे उसके पूरे शरीर से चिपट गईं, उसका पूरा बदन ढक लिया। वह चीखती रही, चिल्लाती रही। गाँव की ओर भागी, पर मधुमक्खियों से डरता कोई उसके नजदीक न हुआ। बहुत देर बाद एक बंदा धुआँ करता उसके करीब गया और जब उसे हस्पताल ले जाया जा रहा था, वह राह में ही…।”

मैं अंदर ही अंदर तीखे दर्द से कराह उठा। सीतो का अफसोस करने लगा। बुआ का पुत्र बता रहा था, “जब मधुमक्खियों ने उसको घेर रखा था, वह किसी बब्बी का नाम ले लेकर पुकार रही थी।”

मैं उस पल बुआ के पुत्र के पास बैठा होने के बावजूद मानो उसके पास नहीं बैठा था… मैं तो खेतों में टिड्डियाँ उड़ाने जा लगा था।

बचपन में मुझे ही ‘बब्बी’ कहकर बुलाया जाता था।


3 comments:

  1. Anonymous04 December

    भावपूर्ण, मर्मस्पर्शी कहानी। बहुत सुंदर अनुवाद । बधाई । सुदर्शन रत्नाकर

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  2. मर्म स्पर्शी कहानी... बहुत बधाइयाँ

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  3. बहुत ही दिल छू लेने वाली प्रेम कहानी...

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