हास्य-विनोद इंसानी व्यक्तित्व का बहुत पुराना और रोचक पहलू है। बच्चे पूरे वाक्य बोलने या किताब पढ़ने से पहले ही हंसी-मज़ाक और शरारतें करने लगते हैं। यह उनके विकास, दूसरों से जुड़ाव और बुद्धिमत्ता से जुड़ा होता है।
शोध बताता है कि बच्चे जन्म के कुछ ही महीनों बाद मुस्कराने और थोड़े समय बाद हँसने लगते है। शुरू में वे सरल खेलों से मज़ा लेते हैं; जैसे आँख-मिचौली, गुदगुदी या टेढ़े-मेढ़े चेहरे बनाना। फिर वे अजीब जगहों पर छिपने का नाटक, उछल-कूद या चीज़ों को खिलौने बना कर मज़ा लेने लगते हैं।
धीरे-धीरे बच्चे और उन्नत हास्य करने लगते हैं; जैसे चिढ़ाना, भूमिकाएँ निभाना, बेतुके शब्द बोलना और अंत में शब्दों के खेल और चुटकुले समझना। मनोवैज्ञानिकों ने इसे ‘अर्ली ह्यूमर सर्वे' जैसे शोधों में दर्ज किया है। इससे स्पष्ट होता है कि बच्चे अचानक मज़ाकिया नहीं बन जाते बल्कि धीरे-धीरे यह कौशल विकसित करते हैं, जो आगे चलकर उनकी सोच और संवाद की क्षमता को मज़बूत बनाता है।
हास्य सिर्फ मनोरंजन नहीं है, बल्कि यह सीखने और सामाजिक विकास का एक महत्त्वपूर्ण ज़रिया है। जब कोई बच्चा मज़ाक या चुटकुला समझता है, तो उसे कई बातों पर ध्यान देना पड़ता है - जैसे किसी चीज़ का सामान्य उपयोग क्या है, उसमें क्या अलग या अजीब किया गया है और क्यों वह मज़ेदार लग रहा है। इसका मतलब है कि बच्चा चीज़ों को केवल अपनी नज़र से नहीं; बल्कि दूसरों के दृष्टिकोण से भी देखना सीखता है। मनोवैज्ञानिक इसे ‘थ्योरी ऑफ माइंड’ कहते हैं। जो बच्चे ज़्यादा मज़ाक करते हैं या खेल-खेल में हँसी-मज़ाक करते हैं, वे सामाजिक और मानसिक रूप से ज़्यादा तेज़ी से विकसित होते हैं। वे जल्दी सीखते हैं, बेहतर संवाद करते हैं और अच्छे रिश्ते बना पाते हैं।
हँसी-विनोद हमारे रिश्तों को मज़बूत करने का काम करते हैं। मनोवैज्ञानिक रॉबर्ट प्रोवाइन के अध्ययन में पाया गया कि हम दूसरों के साथ रहते हुए लगभग 30 गुना अधिक हँसते हैं। दिलचस्प बात यह है कि हम केवल 20 प्रतिशत मज़ाक या चुटकुलों पर हँसते है, बकाया तो आम बातचीत के दौरान हँसते हैं। यानी हँसी जुड़ाव, भरोसे और अपनेपन से जुड़ा मामला है।
यह आदत सिर्फ इंसानों तक सीमित नहीं है। चिम्पैंजी और गोरिल्ला जैसे अन्य प्राइमेट भी खेलते समय हँसी जैसी हरकतें दिखाते हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि शुरू में हँसी का विकास ‘सोशल ग्रूमिंग’ के लिए हुआ था। क्योंकि शारीरिक ग्रूमिंग (जैसे एक-दूसरे को साफ करना) छोटे समूहों तक सीमित था और समय लेता था, हँसी शायद एक आसान और तेज़ तरीका बनी जिससे बड़े समूहों में भी अपनापन बढ़ सके। मनुष्यों में हंसी और भी मज़बूत भूमिका निभाती है। यह दो तरह की होती है। एक, स्वाभाविक हंसी (जब हमें सच में कुछ मज़ेदार लगता है)। दूसरी, जान-बूझकर की गई हँसी (जिसे हम दोस्ती जताने, तनाव घटाने या रुचि दिखाने के लिए करते हैं)। दोनों ही तरह की हँसी लोगों को जोड़ने और समूहों को एकजुट रखने में अहम भूमिका निभाती है।वैज्ञानिक कहते हैं कि इंसानी हँसी हमारी निहायत ‘नैसर्गिक’ अभिव्यक्तियों में से एक है। इंसानों की खासियत यह है कि हम केवल खेल-खेल में नहीं, बल्कि व्यंग्य, कटाक्ष और यहाँ तक कि गहरी दार्शनिक बातों पर भी हँस सकते हैं। यह दिखाता है कि हास्य मानव स्वभाव की बुनियादी विशेषता है। इतिहास में कई दार्शनिकों ने इंसान की अनोखी पहचान को परिभाषित करने की कोशिश की है - अरस्तू ने इसे तार्किकता का नाम दिया, विट्गेंस्टाइन ने इसे भाषा बताया, और सार्त्र ने स्वतंत्र निर्णय; लेकिन हास्य की सर्वव्यापकता और बच्चों द्वारा इसे इतनी जल्दी अपनाना यह संकेत देता है कि हास्य हमारी पहचान के लिए उतना ही ज़रूरी है जितनी तार्किकता या भाषा। कहना गलत न होगा कि हम हँसते हैं इसलिए हम इंसान हैं।
सीखने में हास्य का महत्व
हास्य सीखने को आसान और मज़ेदार बना देता है। शोध बताते हैं कि यदि बच्चों को पढ़ाते समय हँसी-मज़ाक का इस्तेमाल किया जाता है तो बच्चे जल्दी और बेहतर सीखते हैं। यहाँ तक कि खबरें भी मज़ेदार अंदाज़ में सुनाई जाएँ तो लोग उन्हें ज़्यादा दिलचस्पी से सुनते हैं।
बच्चों द्वारा हास्य और कल्पना को मिलाना भी सीखने का हिस्सा है। जैसे केले को फोन बनाना या अजीब से शब्द गढ़ना - ये केवल खेल नहीं बल्कि रचनात्मकता की शुरुआत हैं। हास्य बच्चों को सुरक्षित और मज़ेदार तरीके से नियम तोड़ने का मौका देता है, जिससे वे नई बातें सोच पाते हैं और आगे बढ़ते हैं। धीरे-धीरे यही खेल-खेल में किया गया हास्य उन्हें कहानी कहने, नकल करने और गहराई से सोचने की क्षमता तक ले जाता है।
हालाँकि बच्चों में हास्य बहुत महत्त्वपूर्ण है, लेकिन इस पर उतना शोध नहीं हुआ है जितना अन्य मनोवैज्ञानिक विषयों पर हुआ है। इसका कारण यह है कि छोटे बच्चे अक्सर कहे जाने पर मज़ाक नहीं करते और शोधकर्ताओं के सामने शर्माते भी हैं। कभी-कभी उनका हास्य समझना भी मुश्किल होता है। फिर, कुछ विद्वान् हास्य को हल्का-फुल्का विषय मानते हैं और शोध के लायक नहीं समझते।लेकिन हाल के अध्ययनों ने इस सोच को बदला है। एलेना होइका जैसे मनोवैज्ञानिकों ने बच्चों के हास्य के विकास को बारीकी से ट्रैक किया और दिखाया कि यह उनके मानसिक विकास से जुड़ा है। यानी यह केवल हँसी-मज़ाक नहीं है, बल्कि बच्चों के विकास में गंभीर और अहम भूमिका निभाता है।
बहरहाल, हास्य का महत्त्व सिर्फ बचपन के विकास या सामाजिक रिश्तों तक सीमित नहीं है। इसकी असली ताकत यह है कि यह हमें इंसान बनाता है। हास्य हमें दुनिया को अलग नज़रिए से देखने, नियमों पर सवाल उठाने, दूसरों से जुड़ने और समाज निर्माण की क्षमता देता है। यह हमारी बुद्धि, रचनात्मकता और खुश रहने की क्षमता को दर्शाता है। (स्रोत फीचर्स)



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