- देवी नागरानी
सिन्धी, सिन्धु घाटी सभ्यता के मानव जाति के वंशज हैं। सिन्धु नदी के तट पर रचित वेदों-ग्रंथों की महान और आदर्श संस्कृति और सभ्यता हमारे ही पूर्वजों की देन हैं। वैदिक-संस्कृति की नींव रखने वाले सिन्धु सभ्यता के ही लोग है।
संसार के इतिहास में कठिन से कठिन परिस्थितियों में इतनी बड़ी संख्या में मानवीय पलायन नहीं हुआ, जैसा भारत -विभाजन के वक़्त हुआ। यह अपने आप में एक अजीबो-ग़रीब इतिहास है, जिसने जुड़वाँ ज़ख़्मी देशों को जन्म दिया और एक सिन्धु सभ्यता की सम्पूर्ण जाति को दर-ब-दर की ठोकरें खाने को छोड़ दिया, जो संसार की प्राचीनतम गौरवपूर्ण संस्कृति की जन्मदाता और वारिस हैं।
बस जिसका दर्द वही जाने? कई दिलजले शायर व लेखकों ने उन रिसते हुए ज़ख्मों को अपनी कलम से उस पिघलते लावे को अपने अंदाज़ में परिभाषित करते हुए अभिव्यक्त किया है। मैंने भी इस ओर अपने मन की भावना को यों लिखा है:
उस शिकारी से ये पूछो पर क़तरना भी है क्या
पर कटे पंछी से पूछो ऊँचा उड़ना भी है क्या?
आशियाना ढूँढते हैं, शाख़ से बिछड़े हुए
गिरते उन पत्तों से पूछो, आशियाना भी है क्या? -देवी
विभाजन का दौर मानवीय इतिहास का एक ऐसा वक़्त रहा जिसमें विषम परिस्थितियों की आँधी, शांति, सद्भावना, पारस्परिक संबंध और मानवीय मूल्यों के कोमल हरे-भरे अंकुरों को उजाड़कर नष्ट करता रहा। प्रताड़ना के रेखांकित चिह्न वक़्त की दीवारों में चुने जाने के बावजूद भी रह-रहकर सिसकियाँ भरते रहे हैं, अपने वजूद की तलाश में खामोश खंडहरो में भटकते रहे हैं। इक़बाल का यह शेर इसी दशा को परिभाषित कर रहा है...
ढूँढता फिर रहा हूँ मैं, इकबाल अपने आपको
आप ही गोया मुसाफिर, आप ही मंज़िल हूँ मैं
इस बँटवारे के परिणामस्वरूप विश्व के इतिहास में इतनी संख्या में लोगों का विस्थापन एवं पलायन कभी नहीं हुआ था। अमानुषता ने मानवता की दहलीज़ पर नारी उत्पीड़न की त्रासदी, विस्थापिता, अपहृता बलात्कृता एवं नारियों की अतृप्त आत्माओं की प्रताड़ना ने आज तक उन घावों का मुकम्मिल मरहम नहीं पाया है।
ऐसा परिवर्तन एक खतरनाक षड्यंत्र की तरह आता है या लाया जाता है। यह ऐसे धीमे ज़हर की तरह है कि इन्सानियत मृत्यु की तरफ़ तो बढ़ती हैं; लेकिन आदम उसे विकास का नाम पर आगे और आगे ले जाने में प्रयासरत रहता है। विकास के पुराने और नए मूल्यों में कोई संधि नज़र नहीं आती। पहले समाज के लोगों के भले के लिए प्रयत्न हुआ करते थे, अब हर कार्य को करने के पीछे एक बौद्धिक आधार होता है। अब वे प्रयास, सियासत की चौखट पर व्यापार और सौदेबाज़ी की दुकानें- सी लगने लगे हैं।
उस दौर और इस दौर के बीच, यादों की टँगी हुई भद्दी दीवार कभी नहीं हटी, आज भी लेखक अपनी क़लम की नोक से कभी कविता, कभी संस्मरण, या कहानी-नावेल का स्वरूप देकर उसे दर्ज करने को तत्पर रहते हैं, उनका लेखन कहीं न कहीं विभाजन के पहले और बाद के दर्द की परछाइयों की तस्वीर सामने ले ही आता है।
यह उस समय की बात है जब सिन्धी शरणार्थी बनकर अपनी अना की धज्जियाँ उड़ते हुए देखकर भी कुछ न कर सके। कितने ही ख़ानदानों के जलते चराग़ बुझ गए। अनेक नारियों को क़त्ल करके अपने ही घर आँगन में दफन किया गया, पर शायद अपनी धरती माँ का कर्ज़ चुकाने की खातिर, न्याय के नाम पर यह अन्याय होने लगा। इस प्रलय काल के पश्चात् बर्फ़ की तरह जमा हुआ यह अहसास चट्टान बनकर ठहर सा गया है कि भारत की आजादी पर बलि के बकरे बने सिन्धी अपनी जान की आहुति देते हुए मौत से होली खेल रहे थे।
इस देश और उस देश के बीच में बँटी हुई ज़िंदगी से समझौता करने को विस्थापित इंसान मजबूर रहा, वर्ना कौन अपने देश की आज़ाद फिज़ाओं को छोड़कर, अपनी जड़ों से उखड़कर नव निर्माण की राह का पथिक बनना चाहेगा?
यही दर्द सीने में लिए हुए आज एक लेखक क़लम की नोक से अपनी जीवन गाथा के अंश व्यक्त करते हुए अपनी आपबीती को जगबीती से जोड़ पाता है, जिसमें हृदय का अहसास धड़कता है, जिसमें शामिल हैं- हालात की साज़िश, मुफ़लिसी, बेरोज़गारी, अमानुषता, कहीं खुशहाली, कहीं बेबसी, बीमारी, दरिंदगी, उसूलों की बलि, हद-सरहद पर फ़सादों के जंगल! प्यार नफ़रत की फ़स्ल से पनपती इन्सानियत व मज़हबी टकराव के बारे में पढ़कर आम आदमी अपने ही भाई-बंधुओं के दुख सुख का परिचय पाता है। इसलिए लेखन का रूप भी गतिशील है, वह विस्तृत, विकसित एवं परिवर्तित स्वरुप में सामने आ रहा है।सिन्धी कौम के वजूद में अज़ाब की दास्ताँ लम्बी है। विभाजन का दर्द नसों में लहू बनकर दौड़ रहा है। लेखकों की रचनात्मक लेखन देश, काल और भाषा की सारी दूरियाँ तमाम फ़ासलों को उलाँघती आ रहा है।
विस्थापन के दौर की बिखरती यादों की धुँधली तस्वीर सामने आते ही वे करह उठाते हैं, जहाँ दर्द को ही दारू समझकर पी लेने के सिवा कोई और चारा बाकी नहीं रह जाता। लेखक अपने-पराये दर्द से परे कुछ भावनात्मक संधि की चौखट पर अनेक किरदारों के माध्यम से उस रिसती हुई पीड़ा को अभिव्यक्त करता रहा, जो मानव के जीवन का हिस्सा बनी। वे दर्द की लकीरें आज भी कहीं न कहीं दिल की दीवारों को खुरचकर बरबस उन जिए हुए पलों की याद दिलाती है। देखा जाए, तो विभाजन देशों का हुआ है, दिलों की लकीरें अब भी जुड़ी हुई हैं।
दर्द की इस गाथा ने सिंध के लेखकों के दिलों में यही भाव बीज साहित्य की सरज़मीन पर बोए हैं। मैंने इस महायज्ञ में सिन्ध-हिन्द के सिन्धी कथाकारों की अनेक कहानियाँ अरबी सिन्धी से हिंदी में अनुवाद किया हैं। इसी ख्वाहिश से कि सिन्धी साहित्य हिन्दी के अदब और अदीबों के बीच पनपता रहे और हम बिन प्रांत के सिन्धी भाषी एक जुट होकर अपनी भाषा और पुरातन साहित्य को हिंदी साहित्य की धारा में सुरक्षित रख पाएँ।


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