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Dec 3, 2025

लघुकथाः ख़ुशबू

  - सुदर्शन रत्नाकर

टिकट लेने के लिए जैसे ही मैंने अपने हैंडबैग में हाथ ड़ाला मेरा पैसों वाला पर्स उसमें से ग़ायब था । सारा बैग अच्छी तरह से देख लिया; लेकिन वहाँ था ही नहीं तो मिलता कहाँ से। घर से चलते हुए इसमें रखा ही नहीं था या फिर बस में चढ़ते समय किसी ने निकाल लिया होगा । मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था । एक तो सीट पर गाँव का कोई आदमी बैठा था, उसके मोटे कपड़ों से पसीने की गंध मेरे नथुनों में घुस कर सिर को चकरा रही थी, उस पर यह मुसीबत । स्वयं पर कोफ्त हो रही थी । लम्बा सफ़र और उस पर पैसे नहीं  । सोचा बस रुकवा कर उतर जाना ही मुनासिब होगा । एक बार फिर बैग में हाथ डाला । कुछ सिक्के खनकने लगे । उसमें झाँककर देखा काग़ज़ों के साथ एक- दो नोट भी नज़र आए । थोड़ी- सी आशा बंधी ।  तभी देखा सहयात्री मेरी हर हरकत पर नज़र रख रहा है । मैंने उसकी ओर क्रोध से देखा तो वह अटपटा गया और खिड़की से बाहर देखने लगा ।

मैंने बैग में से नोट और सिक्के निकाल कर देखे, उनतालिस रुपये थे । संयोग था कि मेरी टिकिट भी इतने की थी मैं इतमीनान से कंडक्डर का इंतज़ार करने लगी । सोचा बस से उतर कर रिक्शा कर लूँगी और किराया घर जाकर दे दूँगी । सुबह ही पता चला था कि माँ ठीक नहीं है । जल्दी- जल्दी चलने के कारण सब कुछ गड़बड़ा गया था । इधर यात्री के पसीने की गंध मुझे और परेशान कर रही थी एक हथेली में पैसे रख कर दूसरे हाथ से अपना रुमाल नाक पर रख लिया था कितने  जाहिल हैं ये लोग ।  न अच्छी तरह नहाते- धोते  हैं, न कपड़े बदलते हैं । सफ़र में दूसरे यात्री का ध्यान तो रख लेना चाहिए । मैं महीने कुनमुना रही रही थी । कंडक्डर पीछे से टिकट देकर मेरी सीट तक आ पहुँचा था मैंने उनतालीस रुपये देकर टकिट माँगा । "कहाँ का टिकट चाहिए मैडम । "

" उनतालीस रुपये तो पानीपत तक के लगते हैं । वहीं का दीजिए न । " मैंने तल्ख़ी से कहा

" मैडम सात रुपये और दें । "

" सात रुपये और कैसे! उनतालीस ही तो लगते हैं । पिछली बार इतने ही दिए थे । "

" वह पिछली बार की बात है मैडम । अब छियालीस लगेंगे । किराया बढ़ गया है। " कडंक्कर ने कहा । मेरी आवाज़ सुन कर सभी यात्री मेरी ओर देखने लगे । "पर मेरे पास तो इतने ही पैसे हैं । " मैंने रुआँसी - सी होकर कहा

" तो ऐसा कीजिए मैडम उनतालीस रुपये की टिकट दे देता हूँ । वहाँ तक चली जाएँ, बाक़ी रास्ता पैदल चली जाएँ।"

सभी यात्री हँसने लगे पर कोई सहायता के लिए आगे नहीं आ रहा था । मैं शर्मिंदगी से ज़मीन में धँसी जा रही थी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ । तभी मेरे साथ बैठे यात्री ने अपनी जेब से दस रुपये का नोट निकाल कर कडंक्कर को देते हुए कहा,"ईब चुप भी हो जा , ले बाक़ी के पीसे और मैडम को टिकट काट कर दे दे । "

मैं उसे मना करने ही जा रही थी कि उसने हाथ के इशारे से रोकते हुए कहा, "कोनो बात नहीं बैन जी मानस ही तो एक दूसरे के काम आवे है।’’

कडंक्कर ने टिकिट और तीन रुपये मेरे हाथ में थमा दिए । मैं कृतज्ञता से सहयात्री  को देख रही थी ।

मुझे अब उसके कपड़ों से पसीने की बदबू नहीं  ख़ुशबू आ रही थी ।

सम्पर्कः ई-29, नेहरू ग्राउंड, फ़रीदाबाद 121001, मोबाइल 9811251135

1 comment:

  1. सुंदर भावपूर्ण लघुकथा। अंत सार्थक।

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