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Jan 28, 2017

कविता

प्रतीक्षा में 

- नीतिन देसाई

साठ बरस से भी अधिक बीत गए,
मैं अब तक धर्मराज के द्वार पर खड़ा हूँ
रोज कई सौ,
इस द्वार से प्रवेश कर जाते हैं
करनी के अनुसार,
दाएँ या बाएँ कर दिए जाते हैं

मैं तब से प्रतीक्षा में ही खड़ा हूँ
कई बार पूछा भी- द्वारपालों से
जवाब मिलता
कि तुम जमीं पर
एक मसला अधूरा ही छोड़ आए हो
वह अभी सुलझा नहीं है

द्वारपालों की इन बातों से
मैं बीते समय में पहुँच जाता हूँ और
याद हो आता है वह दिन
... कितने कष्ट के साथ निर्णय लिया था
जो जाना चाहे.. जाए,
जो रहना चाहे.. रहे
निर्णय क्यों गलत था मेरा?
दूसरा नहीं था चारा
बावजूद इसके- वह हिंसाचार!
मैंने ऐसा कभी नहीं सोचा था,
आगे कुछ करता, लेकिन...
वह 30 जनवरी!
इतनी नाराजी,
मेरे लोग, मेरा देश, मेरी जमीन

द्वारपाल बताते हैं मुझे
कि मसला और भी दर्दी हो गया है
धरती के स्वर्ग में मार-काट,
आज भी मची है
अमन और चैन के वादे बनते हैं,
तोड़े भी जाते हैं

मैं तो जिया ही था
अमन और शांति के लिए
उस दिन भी-
यही तो सोचा था
साथ नहीं तो अलग सही
प्रेम भाव से रहो

बावजूद इसके
वे अब भी वहीं हैं
और मैं,
अब भी यहीं
प्रतीक्षा में
सम्पर्क: परेल, मुंबई,  Email- nitin67j@gmail.com

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