- विनोद शंकर शुक्ल
वसंत को देखे कई साल गुकार
गए, यह भी याद नहीं कि उसे
आखिरी बार कब देखा था। बहुत दिनों से मेरा मन वसंत से मिलने के लिए मचल रहा है। पर
वसंत है कि अपने हर ठौर-ठिकाने से गायब है, वैसे ही जैसे सरकारी अस्पतालों से दवा और डॉक्टरों के दिल
से दया गायब रहती है।
इस कामाने में जवानी से
बुरी कोई चीका नहीं, वह आती है
तो जीवन की बहुत-सी अच्छी चीज़े छीन लेती है। पहले जवानी आती थी तो जीवन में बहुत
कुछ आता था। प्रेम आता था, कविता आती
थी, फूल आते थे, संगीत आता था। मतलब जवानी वसंत लेकर आती थी।
जब जवानी आती है तो बेरोज़गारों का पतझर लाती है। विश्वविद्यालयों की अर्थहीन
डिग्रियाँ लाती हैं। रोज़गार दफ्तरों की लंबी कतारें लाती हैं। युवाओं की इश्क की
उम्र अब रोकागार की तमन्नाओं में गुकारने लगी है। लड़कियों के कॉलेज के चौराहे
सूने दिखाई देते हैं। मजनुओं की नस्ल समाप्त होती जा रही है। पार्क रिटायर्ड
बूढ़ों से भरे रहते हैं। शहर से रोमांस जैसे निर्वासित हो गया है। जवानी अब भूख
लाती है, हताशा
लाती है, आत्महत्या
का ख़याल लाती है। मुझे
किसी बच्चे को जवान होते देख बड़ी दया आती है। आशीष देने की इच्छा होती है कि वह
हमेशा बच्चा ही बना रहे, कभी जवान
न हो!
हमारे देश में बेरोज़गारी, बाधा
दौड़ की तरह है। अच्छी डिग्रियाँ होने पर भी पचासों बाधाएँ सीना ताने खड़ी रहती
हैं। नौकरी पाने के लिए कुछ कर्मकांड अनिवार्य हैं। योग्यता यहाँ खोटा सिक्का है।
नौकरी की एक शर्त है, सिफ़ारिश। सिफ़ारिश के लिए राजनीति के खलीफ़ाओं की चौखट पर नाक रगडऩी ज़रूरी है। नाक तब तक रगडऩा पड़ता है, जब तक उसका खंडहर शेष न रह जाए। नाक रखते हुए आप नौकरी नहीं
पा सकते। नौकरी के लिए नाक की शहादत ज़रूरी है।
नाक रगडऩे की कला के बाद
दफ्तर के देवताओं को प्रसन्न करने का विज्ञान जानना कारूरी है। दफ्तर के देवता
चढ़ावे से प्रसन्न होते हैं। इनका पेट महासागर होता है। दोहन की कला के ये
सिद्धपुरुष होते हैं। तात्पर्य यह है कि देश में नौकरी पाने की एक पूरी टेक्नोलॉजी
विकसित हो गई है। इस टेक्नोलॉजी के कारण अनेक हयादार युवाओं को अपने मनुष्य होने
पर शर्मिंदगी महसूस होने लगती है। वे मानव योनि से मुक्त होने के लिए नींद की गोलियाँ, सल्फास, सीलिंग
फैन, रेल की
पटरियाँ आदि की शरण तलाश लेते हैं। बेरोकागारी की पीड़ा से मुक्ति के लिए इन
आविष्कारों का योगदान अमर रहेगा।
युवाओं की जो शक्ति
भ्रष्टाचार पर फल-फूल रही व्यवस्था को बदलने में लगनी चाहिए थी, वह नौकरी के जुगाड़ में लग रही है। सरकारें बड़ी चतुर होती
हैं। वे युवाओं को रोकागार के संघर्ष में व्यस्त कर देती हैं। फिर इतमीमान से
घोटालों में लिप्त हो जाती हैं। युवा जान ही नहीं पाते कि देश भ्रष्टाचार का
महासागर बन गया है।
बेरोज़गारी से मैंने भी लंबा संघर्ष किया। इस कोल्हू में जीवन का
सारा रस निचुड़ गया। सारे रंग हवा हो गए। बड़ी मुश्किल से सफलता मिली। बेरोज़गारी
बुरी चीज़ है।
अच्छे-अच्छे शूरवीरों को चित कर देती हैं। संभावनों के कई शीर्ष शिखर धराशायी हो
जाते हैं। ऐसे शिखर जो कला, साहित्य, संस्कृति में नई कामीन तोड़ सकते थे।

घर पर वसंत का मिलना
मुश्किल था। पानी की किल्लत के कारण घरेलू बगिया कब की सूख चुकी थी। वसंत के बकवास
में हमारे नगर निगमों का बड़ा योगदान है। वे पीने का पानी मुश्किल से देते हैं, नहीं चाहते कि नागरिक बाग-बगिया लगाकर पानी की फिजूलखर्ची
करें। वे नागरिकों से वसंत की निकटता के विरोधी हैं। फूल उनकी दृष्टि में
क्षणभंगुर चीज़ हैं।
सुबह खिलकर शाम को मुरझा जाने वाले। नगर निगमों का वश चले तो वे ‘पुष्प प्रतिबंध अधिनियम’ बना दें, जिसमें
फूल उगाने पर पाँच मास के सश्रम कारावास का प्रावधान किया गया हो।
मेरी बगिया अवशेष मात्र रह
गई थी। फिर भी गुलाब का एक पौधा अर्धजीवित था। वह किसी खैराती अस्पताल के टीबी
ग्रस्त रोगी की तरह लग रहा था, जो
डॉक्टरों की देख-रेख में दम तोडऩा चाहता है। मैंने उससे पूछा, ‘वसंत की कोई ख़बर है?’
वह खाँसा और मरियल स्वर में
बोला, ‘मैं वसंत
को पहचानता तक नहीं। कुपोषण का शिकार हूँ। मुझ पर बारह मास पतझर रहता है। मोटरों
और स्कूटरों के धुएँ से मुझे टीबी हो गई है।’
मुझे गहरा अफ़सोस हुआ। आदमी
की सोहबत से फूलों की सभ्यता भी ख़तरे में पड़ गई है। मैं सोचने लगा, फूलों की नस्ल यदि खत्म हो गई तो क्या होगा?
वसंत की तलाश में मैंने
पड़ोसी के बंगले पर नजऱ डाली। वे फूल पौधों के बड़े शौकीन थे। पर वहाँ भी निराशा
हाथ लगी। हरा-भरा रहने वाला उनका लॉन सूखा था। निर्जला उपवास के बाद पौधों को
निर्वाण प्राप्त हो चुका था। लॉन में भैंसें बँधी पगुरा रही थीं। फूलों की जगह
भैसों को देख मैं चकरा गया। बगीचे की हवा में गोबर की गंध फैली हुई थी। मैंने सोचा, वसंत यहाँ आया भी होगा तो उलटे पाँव लौट गया होगा। मन में
प्रश्न उठा कि शहर में वसंत का विकल्प क्या पगुराती भैंसें होंगी? उद्यानों का स्थान क्या भैंसथान ले लेंगे?
मुहल्ले से निराश हो मैं
नगर में वसंत खोजने निकल पड़ा। नगर में पहला
साक्षात्कार निगम की नालियों से हुआ। वे गंदगी से लबालब भरी थीं। मच्छर शिशु उनकी
रज में लोट-लोटकर बड़े हो रहे थे। मक्खियों का वहाँ अखंड आरकेस्ट्रा बज रहा था।
नालियाँ नाना प्रकार के कीड़े-मकोड़ों की मेट्रोपोलिस सिटी नजऱ आ रही थी। मुझे
मितली आने लगी। लगा कि यह नालियाँ नहीं, मच्छरों की नर्सरियाँ हैं। भारतीय मच्छरों की गुणवत्ता
विश्वप्रसिद्ध है। संभवत: निर्यात हेतु निगम इनकी खेती कर रहा था।
विश्राम की मुद्रा में लेटे
एक वयोवृद्ध केंचुए ने मुझे देखकर कहा, ‘अखबार वाले हो क्या भइया? निगम वालों तक हमारा आशीष पहुँचा देना। पिछले एक दशक से
उन्होंने यहाँ कोई सफ़ाई कर्मचारी नहीं भेजा। उनकी कृपा से हम बड़े मज़े में हैं।
हमें वोट देने का अधिकार मिल जाए तो सारे मच्छर-मक्खियाँ वर्तमान पदाधिकारियों को
ही वोट देंगे। भगवान ऐसे काबिल अफ़सर सभी निगमों को दे।’
इस गंदगी में वसंत की खोज
व्यर्थ थी। यहाँ तो दुर्गंध का अखंड साम्राज्य था। मनुष्य और मच्छर-मक्खियों का
अनोखा सहअस्तित्व यहाँ दिखाई दिया। दोनों आदर्श पड़ोसियों की तरह भ्रातृत्व से रह
रहे थे।
मैं आगे बढ़ा। सामने एक
मकान की नेमप्लेट पर मेरी दृष्टि अटक गई। लिखा था- नटवरलाल ‘नटखट’, नगरकवि। नगरकवि से वसंत का पता अवश्य मिल जाएगा। यह सोच कर
मैंने उनके द्वार पर दस्तक दी।
द्वार खुला, नगरकवि प्रकट हुए। चहक कर बोले, ‘आओ मित्र, आओ।
मैं श्रोता का ही इंतज़ार कर रहा था। दस मिनट पहले ही एक उत्कृष्ट कविता लिखी है।’
मैंने कहा, ‘वसंतपंचमी अभी आकर गई है। ज़रूर वसंतगीत लिखा होगा।’
नटखट जी ने बुरा-सा मुँह
बनाया, बोले, ‘वसंत! हिस्ट!! आजकल कौन वसंत पर लिखता है? दस-पंद्रह साल पहले ज़रूर एक हिट वसंतगीत लिखा था, वसंता आला रे आला, गोरी जऱा मुखड़ा दिखाओ मतवाला।’
मैंने कहा, ‘मैं आपके पास वसंत का पता पूछने आया हूँ।’
नटखट जी ने मुझे हिकारत से
देखा, बोले, ‘आप समय से बहुत पीछे चल रहे हैं। 19वीं सदी वसंत की थी, 20वीं सदी परमाणु बमों की रही और 21वीं सदी मीडिया और मल्टीमीडिया की है।’
मैंने पूछा, ‘क्या कविता ने भी वसंत को खारिज कर दिया है?’
नगरकवि बोले, ‘कविता वसंत युग से बहुत आगे बढ़ गई है, अब वसंत पर नहीं, बाबूलाल पर कविताएँ लिखी जाती हैं।’
मैंने आश्चर्य से पूछा, ‘महाशय, बाबूलाल
कौन हैं?’

मुझे याद आया। वारदाना
व्यापारी बाबू खोटेलाल के सपूत श्रीयुत बाबूलाल! वे एक मंत्रालय पाकर संतुष्ट नहीं
थे। असंतुष्ट होकर उन्होंने सरकार गिरा दी। अब नई सरकार में तीन-तीन मंत्रालय पर
कब्जा किए बैठे हैं।
नगरकवि बोले, ‘मैंने बाबूलाल जी पर धाँसू कविता लिखी है।’ उनके अभिनंदन पर आज शाम मंच पर पढूँगा। सुनो -
बाबूलालमय सब जग जानि,
बाबूलाल को भज अज्ञानी,
बाबूलाल हैं संकटहरणा,
आजा मूरख उनकी शरणा,
कहैं नगरकवि नटवर ‘नटखट’
बाबूलाल मोहे तारो झटपट।’
मेरी कल्पना में एक दृश्य
उभरा, वसंत
ज़मीन पर चित पड़ा है। महाकवि नटरवरलाल ‘नटखट’ उसकी
छाती पर सवार हैं। वे वसंत का गला दबाकर कह रहे हैं, अबे भाग! तेरी जगह बाबूलालों ने ली है। अब कुर्सी पे, कलान में, कवि
के कलाम में, कीर्तन
में, कानून में, सारे कल्चरान में, बैठ्यो बाबूलाल है। या नदी में डूब मर या पहाड़ से कूद जा,,, फिर मनहूस मुँह मत दिखाना...
नगरकवि की बाबूलाल-भक्ति से
मैं घबरा गया। किसी तरह जान छुड़ा कर वहाँ से भागा...
आगे एक नदी मिली। मैंने
उससे पूछा, ‘नदी, तुमने वसंत को देखा है?’
नदी ने बहुत दुखी स्वर में
जवाब दिया, ‘मुझे नदी
मत कहो। मैं कभी नदी थी। अब तो शहर का जल-मल ढोने वाली नाली हूँ।’
मैंने ग़ौर से नदी को देखा।
उसमें पानी कम और दलदल ज़्यादा था। कचरे और कीचड़ के कारण वह गंदी भिखारिन लग रही
थी। मुझे अफ़सोस हुआ। मैंने पूछा, ‘तुम्हारी यह दशा कैसे हो गई? कुछ साल पहले तो तुम खूब खूबसूरत हुआ करती थीं।’
नदी रोने लगी। किनारे पर
खड़े चमड़े के कारखाने की ओर इशारा किया, बोली, ‘उसने मुझे कोढ़ी बना दिया है। मुझसे दूर रहो, बाबू।’
मेरा दिल भर आया। बोझिल
पाँवों से लापता वसंत की तलाश में आगे बढ़ा। एक पेड़ पर कोयल दिखाई दी। वह चुप थी।
मैंने कहा, ‘वसंत आ गया है। तुम गा क्यों नहीं रही हो?’
कोयल खरखराई आवाज़ में बोली, ‘सुबह से गाने की कोशिश कर रही हूँ, पर गा नहीं पा रही। पेड़ों में तुम लोग ये कैसा रासायनिक
खाद डालते हो। फल खाकर मेरा गला खराब हो गया है। कौओं से भी बेसुरी आवाज़ निकल रही
है। कैसा दुर्भाग्य है, वसंत के
स्वागत में मैं गा भी नहीं सकती।’
मैंने पूछा, ‘क्या तुमने वसंत के देखा है?’
कोयल बोली, ‘शायद वह वसंत ही है। लाला मदनलाल की कोठी पर बैठा है।’
मैंने सोचा, मदन (कामदेव) और वसंत तो पुराने सहचर हैं। वसंत ज़रूर वहाँ
होगा। मैं खुशी-खुशी लाला जी की कोठी पर पहुँच गया।
वहाँ सचमुच वसंत विराजमान
था। चारों ओर फूल ही फूल थे। खुशबू ही खुशबू बिखरी थी। मैंने लाला जी को बधाई दी।
कहा, ''सारे शहर
में वसंत आपकी कोठी पर ही मिला। इतने सारे फूल और इतनी भीनी-भीनी सुगंध! मन मस्त
हो गया।''
लाला मदनलाल हँसने लगे, बोले, ''सारे फूल नकली हैं। नकली फूलों पर मैंने इत्र डलवा रखा है।''
मुझे आश्चर्य हुआ। पूछा, ‘असली की जगह नकली क्यों?’
लाला जी बोले, ‘भगवान के बनाए फूलों से मुझे इंसान के बनाए फूल ज़्यादा
पसंद हैं। वे कभी मुरझाते नही। बार-बार बदलने की झंझट नहीं। पैसे की भी बचत होती
है। भई, मैं तो
इंसान को भगवान से भी बड़ा कलाकार मानता हूँ।’
मैं फिर निराश हुआ; परन्तु मैंने लाला जी के वसंत-प्रेम की सराहना करते हुए कहा, ‘जो भी हो, ऋतुराज
वसंत के स्वागत में आपने उत्सव तो आयोजित किया। वसंत के कद्रदानों की तो नस्ल ही
लुप्त हो रही है।’
लाला जी बोले, ‘कैसा ऋतुराज? मैं किसी ऋतुराज को नहीं जानता। मेरे परिवार में किसी का
नाम ऋतुराज नहीं है। वसंत मेरे पौत्र का नाम है। आज मैं उसकी पाँचवीं सालगिरह मना
रहा हूँ।’
मैं हतप्रभ-सा लाला जी की
कोठी से निकल आया।
शाम होने आ रही थी। वसंत अब
तक अदृश्य था। मैं थककर एक सार्वजनिक पार्क की बेंच पर बैठ गया। पार्क रोशनी से
जगमगा रहा था। पर वहाँ जो थोड़े-बहुत फूल थे. उनके चेहरे बुझे-बुझे थे। एक व्यक्ति
उदास भाव से आकर मेरे पास बैठ गया। मैंने पूछा, ‘क्या आप वसंत के न मिलने से उदास हैं?’
उसने कहा, ‘वसंत नहीं, मैं
आने वाले बजट की चिंता से दुबला हो रहा हूँ। मार्च के महीने से मुझे बहुत डर लगता
है। पता नहीं सरकार किन-किन ज़रूरी चीज़ों पर टैक्स ठोक दे।’
बजट के अंदेशे से दुबले
होने वाले सज्जन के जाने के बाद एक फटेहाल पागल-सा व्यक्ति पास आ कर बैठ गया। उसके
हाथ में एक गुलाब का फूल था। वह उसे बच्चे की तरह छाती से चिपकाए था। मैंने पूछा, ‘वसंत का पता बता सकते हो?’

अचानक वह व्यक्ति उठा। मुझे
सैल्यूट दागा और एक देशी पिल्ले को पुचकारता हुआ आगे बढ़ गया।
चलते-चलते मैंने बाग के
बूढ़े माली के बारे में पूछा। वह बोला, ‘सुबह थोड़ी देर के लिए आया था। बूढ़ों की तरह खाँस रहा था।
चेहरा पीला-पीला था। पहले मैं पहचान ही नहीं सका कि यह वसंत है।’
मैंने पूछा, ‘कुछ बातें हुईं?’
माली बोला, ‘हाँ, मैंने
पूछा, क्या
तबियत खराब है? दुबले और
बीमार नजऱ आ रहे हो। तुम्हारी गुलाबी रंगत कहाँ चली गई?’
मेरी उत्सुकता बढ़ी। पूछा, ‘क्या बोला वो?’
माली ने बताया, ‘वसंत चुपचाप घास पर लेट गया। उसकी साँसे उखड़ी-उखड़ी थीं।
थोड़ी देर सुस्ताने के बाद थके स्वर में बोला, ‘वनों में तो भला चंगा था बाबा! शहर में दो ही दिनों में
बीमार पड़ गया। ज़्यादा चला नहीं जाता। दम फूल जाता है। पता नहीं क्या बीमारी है? और वह ज़ोर-ज़ोर से खाँसने लगा...’
मैंने पूछा, ‘फिर?’
माली बोला, खाँसी रुकी तो छाती पकडक़र बैठ गया। बोला, ‘कहीं क्षय रोग न हो गया हो? बाबा, तुम्हारी
औद्योगिक सभ्यता ने सभी ऋतुओं को बीमार कर दिया है। वर्षा भी शहर में सूखा रोग से
ग्रस्त हो जाती है। शीत को मिर्गी आने लगती है... देखना, कुछ वर्षों बाद पृथ्वी पर एक भी ताज़ा और स्वस्थ फूल नहीं
खिल पाएगा। फूलों और फलों से विहीन हो जाएगी यह धरती... सारी ऋतुएँ समुद्र में
आत्मघात कर लेंगी। वसंतविहीन यह पृथ्वी एक बड़ा मरुथल होगी...औद्योगिक रेगिस्तान, जहाँ धुआँ ही धुआँ होगा...प्रदूषण ही प्रदूषण... तब सूर्य
से भी काली किरणें निकलेंगी।’
मैंने अधीर होकर पूछा, ‘वह कहाँ चला गया? तुमने उसे रोका क्यों नहीं?’
माली बोला, ‘वह लेटा-लेटा सन्निपात के रोगी की तरह बड़बड़ाता रहा, फिर पता नहीं कहाँ निकल गया।’
पौराणिक शंकर ने कामदेव को
भस्म कर दिया था। मैंने अनुभव किया, आधुनिक सभ्यता के शंकरों ने वसंत की हत्या कर डाली है।
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