विनोद
शंकर शुक्ल
का जाना
का जाना
- विनोद साव
उनसे मेरी पहली बार मुलकात
हुई थी रायपुर में उनके बूढापारा वाले मकान में ही तब उनके मकान का नाम ‘संस्कृति भवन’ नहीं था, जो उनकी बिटिया का नाम है और जिसके नाम पर मकान का नाम
काफी बाद में रखा गया था। तब मैंने व्यंग्य लिखना ही शुरू किया था और कवि मुकुंद
कौशल जी के साथ किसी सिलसिले में रायपुर घूम रहा था तब उन्होंने कहा ‘चलो विनोद.. तुम व्यंग्य लिखना शुरू कर रहे , तो
तुम्हें तुम्हारे ही नाम के एक व्यंग्यकार से मिलाते हैं।’
हमने दरवाजे की बाईं ओर वाले कालबेल की बटन को दबाया और सीधे ऊपर सीढिय़ों में
चढ़ गए. अंदर जाने से फिर एक जालीनुमा दरवाज़ा होता था वहाँ भी कालबेल की एक दूसरी बटन होती थी। उनके ऊपर
के विशाल बैठक कक्ष में ट्यूबलाइट हमेशा जलाकर रखना होता था। अक्सर उनकी पत्नी दरवाज़ा खोला करतीं थीं, वे विनम्र और सेवाभावी लगती थीं। आमतौर पर साहित्यकार मित्रों की पत्नियों को भाभीजी कहने का चलन है, पर विनोद
शंकर जी मुझसे बारह साल बड़े थे ; इसलिए न मैं उन्हें भैया कह सका और न उनकी अर्धांगिनी को
भाभी। रायपुर के ही वरिष्ठ व्यंग्यकार प्रभाकर चौबे ने एक बार मुझसे कहा था कि ‘पता नई तुम मुझे क्या मानते हो.. पर मैं तुम्हें अपना भतीजा
मानता हूँ।’ बस उसी
तर्क पर विनोदशंकर जी और उनके समकालीन व्यंग्यकार मुझे भैया कम, चाचा
अधिक लगते थे। इसी उहापोह में मैं उन सब लोगों को न भैया कह सका न चाचा।
यह 1990 के आसपास की बात रही होगी जब हम विनोदजी के घर में उन्हें
पहली बार मिल रहे थे। वे पेंट के ऊपर सेंडो बनियान पहने हुए थे ; तब उनका
शारीरिक सौष्ठव देखते बन पड़ा था। ऊँचे पूरे गोरे, सुन्दर नाक-नक्श और केश।
एकबारगी उन्हें देखकर फिल्मों के नायक विनोद खन्ना याद आ गए थे। तब वे
छत्तीसगढ़ महाविद्यालय, रायपुर के
पत्रकारिता विभाग में प्रोफ़ेसर थे। शासकीय सेवा में होने के कारण वे स्थानीय अख़बारों में अनेक छद्म नामों से व्यंग्य लिखा करते थे- इनमें
एक नाम था ‘व्यंग्य शंकर शुक्ल’ यद्यपि वे श्यामाचरण-विद्याचरण शुक्ल घराने से ताल्लुक रखते
थे ; पर फिर भी सरकार विरोधी व्यंग्य लिखते समय उन्होंने सतर्कता
बरती थी। फिर रिटायरमेंट के बाद वे हमेशा अपने पूरे नाम से व्यंग्य लिखते रहे
थे। इस कारण मैं भी उन्हें जानता नहीं था
और वहीं बातचीत के सिलसिले में बीच में ही मैंने उनसे पूछ दिया था कि ‘आप क्या लिखते हैं।’ अपने वरिष्ठताबोध के बीच वे थोड़े से ठिठक गए थे और हमारे
निकलते समय मुकुंद कौशल की ओर मुखातिब होते हुए वे बोले ‘मुकुंद भाई.. इनको थोड़ा लोगों से मिलवाइए जुलवाइए।’
इसके कुछ समय बाद कथाकार
परदेशीराम वर्मा ने मुझे देशबन्धु के संपादक ललित सुरजन से मिलवाया तब मेरे
व्यंग्य ने धार पकडऩा शुरू किया होगा और वे देशबन्धु के रविवारीय अंकों में लगातार
छपने लगे थे। विनोद शंकर जी किसी कार्यक्रम में जब भिलाई आए; तब उन्होंने मुझे पहचान लिया और मुझे महत्त्व देते हुए बड़ी
गर्मजोशी से मिले। तब मुझे भी लग रहा था कि मेरा लिखा भी कहीं जाया नहीं हो रहा है, कुछ मायने रखता है।
उसी समय महान व्यंग्यकार
शरद जोशी का अनायास अवसान हो गया ;
तब उनकी स्मृति में हम लोगों ने दुर्ग में ‘शरद जोशी स्मृति प्रसंग’ रखा। यह एक भव्य कार्यक्रम था जिसमें छत्तीसगढ़ के तमाम
व्यंग्यकारों के बीच शंकर पुणताम्बेकर भी पधारे थे। इसमें दो महत्त्वपूर्ण आलेख
पढ़े गए थे- एक त्रिभुवन पाण्डेय द्वारा और और दूसरा विनोद शंकर शुक्ल द्वारा।
इसके बाद दुर्ग से रायपुर
जब भी आकाशवाणी रिकार्डिंग के सिलसिले में जाना होता तब हर बार उनके घर जाना कारूर
होता था। उनका घर रास्ते में था और मैं अपनी स्कूटर से आता जाता था। लगातार भेंट
के बाद हम दोनों सनामधारियों के व्यवहार एक दूसरे के प्रति आत्मीय हो रहे थे। उनसे समकालीन परिदृश्य पर विस्तार से बातें
होती थीं। वे हमेशा व्यंग्य रचनाओं और व्यंग्य लिखने वालों पर बातें किया करते थे।
व्यंग्य विषयक ज्ञान उन्हें बहुत था और वे व्यंग्य और उनके लेखन को लेकर कई किस्मों
के रोचक संस्मरण भी सुनाया करते थे। व्यंग्य के प्रति वे बड़े समर्पित थे: बल्कि इस
हद तक कि श्रीलाल शुक्ल के शब्दों में ‘कुछ लेखकों को व्यंग्य से इतना लगाव हो जाता है कि व्यंग्य
के लिए वे एक अलग ‘टेरिटरी’ (राज्य) की माँग करने लग जाते हैं।’
व्यंग्य के अतिरिक्त
विनोदशंकर जी की प्रिय विधा संस्मरण रही। बल्कि संस्मरण जितना उन्होंने लिखा उससे
कहीं अधिक उन्होंने संस्मरण सुनाए। वे गोष्ठियों में जहाँ एक तरफ व्यंग्य पढक़र सुनाया करते
थे, वैसे ही साहित्यकारों से जुड़े अपने संस्मरण भी बड़े उत्साह
से सुनाया करते थे। यह एक तरह से किसी लेखक के व्यक्तित्व कृतित्व की अपने ढंग से
संस्मरणात्मक आलोचना होती थी और यह रोचक होती थी। अपने अंतिम समय में वे व्यंग्य सुनाने के
बदले में संस्मरण सुनाने में ज्यादा रस लेने लेगे थे।
उनके घर मिलने जुलने लोग
आते रहते थे। इनमें कई तरह से सहयोग के आकांक्षी हुआ करते थे। ज्यादातर लिखने पढऩे
वाले होते थे। पत्रकारिता और साहित्य के नवोदित लेखक उनसे निरंतर मार्गदर्शन चाहते
थे। विश्वविद्यालय के शोधार्थी आते थे। उन्हें वे कई किस्मों की रचनात्मक सामग्री
देते रहते थे। जिनके लिए सामग्री तत्काल उपलब्ध नहीं करवा सकते थे; उन्हें वे
आश्वस्त करते थे कि शीघ्र ही उनके लिए भी कुछ करेंगे और वे करते थे। ऐसे
आकांक्षियो के फोन भी उन्हें बहुत आते थे और वे उन सबसे भी मधुरता से बातें करते
थे। उनके मधुर व्यवहार ने उन्हें किसी को किसी काम के लिए मना करना नहीं सिखाया
था। उनका शिष्यकुल विराट था, जो उन्हें श्रद्धा व सम्मान से याद करते रहे। संभवत: उनके
मधुमेह से घिरे स्वास्थ्य को उनकी इस ज्यादा भलमनसाहत ने भी प्रभावित किया होगा।
वे कई वर्षों तक स्थानीय
छत्तीसगढ़ कॉलेज में हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष रहे। विगत
दिनों उनका निधन मुम्बई में हुआ। वे मुम्बई में अपने पुत्र के साथ निवास कर रहे
थे। उनका जन्म रायपुर में 30 दिसम्बर 1943 को हुआ था। उन्होंने कुछ समय तक यहाँ पत्रकार के रूप में
काम किया और बाद में में प्राध्यापक बने। मुझे उनके निधन की सूचना फेसबुक में उनके
मित्र सहपाठी ललित सुरजन की पोस्ट से मिली। मैंने भिलाई के रवि श्रीवास्तव को फोन
लगाया और यह जानकारी दी। तब श्रीवास्तव जी ने बताया कि ‘अभी दो दिनों पहले ही विनोद भाई से बातें हुईं थीं। वे
मुंबई में स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे। उन्होंने आपके बारे में भी पूछा था।’ मैंने उनकी बिटिया संस्कृति से बातें की ,तब
उन्होंने सभी बातें बताईं। उसने पूछा कि ‘क्या करना चाहिए अंकल? पिताजी ने तो मृतक भोज के लिए मना कर रखा है।’ तब मैंने सुझाव दिया कि उनकी तेरहीं के दिन उनके स्मरण में
एक कार्यक्रम रखना; जिसमें मित्र आत्मीयजन उन्हें अपनी भावांजलि देंगे और
शब्दों से अपने श्रद्धा सुमन व्यक्त करेंगे।’ तब संस्कृति ने ऐसा ही करवाया था। यद्यपि दूसरी
जिम्मेदारियों के कारण मैं उसमें नहीं जा सका था।
एक दौर में छत्तीसगढ़ में
हिन्दी व्यंग्य लेखन के चार महत्त्वपूर्ण स्तंभ रहे - लतीफ़ घोंघी, प्रभाकर चौबे, त्रिभुवन पाण्डेय और विनोद शंकर शुक्ल, जिन्हें राष्ट्रीय ख्याति भी मिली थी। लतीफ़ घोंघी डेढ़ दशक
पहले यहाँ के व्यंग्यायन को छोड़ गए. यह दूसरी बार है जब विनोदशंकर शुक्ल के रूप
में हमने दूसरे स्तंभ को खो दिया। वे न केवल एक अच्छे लेखक थे; बल्कि वे
एक सहृदय इन्सान थे। वे मिलनसार और मृदुभाषी थे। उनकी प्रकाशित महत्त्वपूर्ण
पुस्तकों में - ‘अस्पताल
में लोकतंत्र’, ‘कबीरा
खड़ा चुनाव में’, ‘एक बटे
ग्यारह’, ‘मेरी 51 श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ’ आदि उल्लेखनीय हैं। उन्होंने विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमों
के लिए भी लेखन कार्य किया। कुछ वर्षों तक रायपुर में व्यंग्य त्रैमासिकी ‘व्यंग्यशती’ का सम्पादन किया। उन्हें मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन
द्वारा वागीश्वरी सम्मान से नवाजा गया था।
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