- सुधेश
जिन्दगी धूप है छाँव भी है
शहर से ऊबे तो गाँव भी है।
शतरंज जिन्दगी ने बिछाई
हार का जीत का दाँव भी है।
सोच क्या जो जिन्दगी है
सागर
हिम्मत की मगर नाव भी है।
दहकती आग है ये जिन्दगी
यहाँ खिलती हरी छाँव भी है।
भूख पसरी हुई दूर तक है
दहकता पास में अलाव भी है।
काश ऐसा सपना आए
आए तू फिर कहीं न जाए।
ख्वाब क्या तू खुद ही आ जा
और फिर दूजा ना आए।
आज अपने स्वर में गा दे
गीत मेरा दुनिया गाए।
प्यास भू की बुझ ना पाई
मेघ छाए तो क्या छाए।
मीत मन का पाया है जो
और क्या जिस को मन पाए।
3. मेले में तो अकेला
हूँ
मैं भीड़ में अकेला हूँ
उजड़ा सा एक मेला हूँ।
खुद को अमीर कहता था
खोटा मगर अधेला हूँ।
दुनिया बड़ी खिलाड़ी है
मैँ तो मगर न खेला हूँ।
गुरुडम लिये सजे हैं जो
उन का नहीं ही चेला हूँ।
यों तो बड़ी नुमाइश है
मेले में तो अकेला हूँ।
सम्पर्क: 314 सरल आपार्टमैन्ट्स, द्वारका , सैक्टर
10, दिल्ली 110075
, Email- dr.sudhesh@gmail.com
1 comment:
बहुत सुंदर गज़ले
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