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Jan 28, 2017

घुटन भरा कोहरा

घुटन भरा कोहरा 
-देवी नागरानी  
नैनीताल, 5 जून 2012                                                              प्रिय दीपा,
तुम्हारा ख़त मिला, पढक़र लगा कि तुम मेरे बारे में जानने के लिए ज़्यादा चिन्तित भी हो और उत्सुक भी। क्यों न रहोगी, मैं फिरोज़पुर से अपना सब कुछ रातों-रात समेटकर, तुमसे बिना कुछ कहे, बिना कुछ बताए यहाँ नैनीताल आ गई। यहाँ आकर अब दो महीने हो गए हैं, अपने अतीत से पीछा छुड़ाने की कोशिश में मन किसी हद तक कुछ ठहराव पाने लगा है। मैं पीछे मुडक़र देखना नहीं चाहती, उन यादों की परछाइयों में जीना नहीं चाहती। पर आज फिर तुम्हारे ख़त ने मेरे मन में एक क्रांतिकारी उथल पुथल मचा दी है। बहाव में बह जाने के खौफ से ख़ुद को तेरे साथ बाँटने के लिए क़लम उठा ली है, और यह त...! और फिर हमारा साथ कोई एक दो दिन का नहीं, लगता है बरसों का नाता है। सदियों का, जैसे जन्म-जन्मांतर से हम एक दूसरे से परिचित हैं। ख़ुद को तुम्हारे सामने बेपरदा करने में मुझे अब कोई हिज़ाब नहीं।
तुम तो जानती ही हो, मैं घर में सब से छोटी हूँ।  मेरी दो बड़ी बहनें अब भी घर में बैठे- बैठे बड़ी हो रही हैं। मेरी ज़िद के कारण मुझे आगे पढऩे की अनुमति देने के लिए पिताजी मजबूर हो गए थे। मैंने पाँच साल पढ़ाई करने के बाद पोस्ट ग्रेजुएशन करने के लिए विश्वविद्यालय में दखिला ले लिया। अभी तक दोनों बहनें एक आठवीं पास और दूसरी मैट्रिक पास घर में पिछले सात सालों से बैठी जाने किसके इंतिज़ार में अपनी उम्र के साल बढ़ा रही हैं। अब तक पढ़ लिख कर नौकरी पर लग गईं होतीं तो किादगी यूँ ठूँठ -सी नीरस न होती, कुछ अर्थपूर्ण रंगों से ज़रूर रँगी हुई होती।  मुझे वह ज़माना अच्छी तरह याद है और हो भी क्यों न? ख़िर उस वक्त मैं उन्नीस बरस की थी। इस उम्र में तो लड़कियों को पूरा होश होता है और वे काहनी तौर पर लडक़ों से दो कम आगे होती हैं।
 खैऱ, मैं अपनी बात पर आती हूँ।
तुम भी तो कॉलेज पढ़ी हो, वहाँ के माहौल से, वहाँ हो रही गतिविधियों की हलचल से परिचित हो। मैं भी अपरिचित होने का ढोंग नहीं करूँगी। सीधे अपनी बात पर आती हूँ। अब यह निश्चित रूप से जान गई हूँ कि ज़िन्दगी रिश्तों का एक पुलिंदा है, और रिश्ते भी कोई अपने चुनाव के नहीं होते। कुछ प्राकृतिक होते हैं जैसे माँ बाप बहन भाई और कुछ बन जाते है, जैसे अपने-पराए, दोस्त, दुश्मन और फिर पनपते रहने पर उनसे एक लगाव सा हो जाता है, अपने से लगने लगते हैं, अज़ीज़ हो जाते हैं।
 ऐसे ही एक मोड़ पर मुझसे आफ़ताब मिला। मेरा भी उसके साथ नाता जुड़ गया, एक बँधन सा बँध गया। सच कहती हूँ दीपा, जितनी जल्दी वह नाता जुड़ा, उससे कहीं ज़्यादा रफ़्तार से वह अपनी पटरी से उतर भी गया। मैं भी टूटने लगी किसी वारदात की तरह। अब उस रिश्ते को कोई नाम देना ठीक न होगा! शायद इसलिए कि मैंने उस रिश्ते को पहचानने में भूल की।  अब तो उसे भूल कहने का भी कोई अर्थ नहीं। भूल भी कैसी? बस यूँ समझो ख़ुद के लिए सज़ा मुकर्रर की है। यहाँ मैं अपनी कही बात का सुधार करना चाहती हूँ। जिंदगी यूँ वीरान व नीरस न होती, कुछ अर्थपूर्ण रंगों से रंगी हुई होती अगर कोई हमसफर मिल जाता।कहने वाली मैं अब अपनी ज़िदगी को बेरंग करना चाहती हूँ। जिसने मुझे इन्द्रधनुषी रंगों से सजा ख्वाबों का आसमान दिखाया वह अब मेरी ज़िदगी में कहीं नहीं। तुम समझ रही हो न, मैं क्या कह रही हूँ? मैं आफ़ताब की बात कर रही हूँ जो कहा करता था- अपर्णा मैं तुम्हें चाँद-सितारों की ऐसी दुनिया देना चाहता हूँ, जो तुम्हारी माँग में सिँदूर नहीं सितारों की जगमगाहट भर दे....! ‘कब आफ़ताब....?’ मैं कनखियों से उसकी ओर देखते हुए कहती।
जब हमारी पढ़ाई खत्म होगी तब! जब हमें नौकरी मिल जाएगी तब ! जब हम तुम दोनों अपनी जवाबदारी सँभालने के क़ाबिल हो जाएँगे तब!’ 
जवाबदारी से तुम्हारा मतलब..... ?’ 
  ‘अर्पणा क्या ये भी तुम्हें बताना पड़ेगा? जवाबदारी तो जवाबदारी होती है न ? जब कमाएँगे, तब कहीं घर लेकर बस जाएँगे, फिर मियाँ बीबी कहलाए जाने परअम्मी-अब्बू कहलाजाने की ललक तो होगी न? होगी कि नहीं...?’  वह मेरी ओर देखते हुए हँस पड़ता।
मैंने संज़ीदा होते हुए कहा -इस सिलसिले में शादी का तो कहीं ज़िक्र ही नहीं हुआ आफ़ताब ! वह कब करोगे?’
  ‘शादी क्यों होगी, बाकायदा निकाह होगा, पूरी रीति रस्मों के साथ और मैंने तो तुम्हारा नाम भी सोच रखा है- कारीना ! नाम कैसा लगा?’
दीपा सच कहती हूँ मुझे जैसे एक नहीं हजार साँप डस गए। मेरा इस ओर ध्यान केन्द्रित ही नहीं हुआ था कि आफ़ताब इतना कट्टर होगा, इस तरह अपनी धर्म की रवायतों को मुझपर थोपेगा। तब मुझे आफ़ताब पर गुस्सा आने लगा था, प्यार का रंग बातों की कटुता से धीरे-धीरे नहीं, बहुत तेज़ी से उतरने लगा। गलती तो मेरी थी, मैंने ही इश्क मुहब्बत के अनेक किस्सों की तरह इसे भी अपनी सलोनी प्रेम कहानी के रूप में अंजाम देने का स्वप्न देखा था। सोचा था पिता से बगावत करूँगी, प्रेम भरा एक नया संसार सजाऊँगी जहाँ हम दो, हमारे दो होंगे...!
आफ़ताब तुम्हें मज़ाक सूझ रहा है, पर मैं संजीदा हूँ। मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ यह तो तुम्हें पता है। हमने इस बारे में बात की है और तुमने वादा किया था कि जल्द ही इस बात को घर में छेडक़र कोई हल निकाल लोगे! और आज ये आश्चर्यजनक अनूठी बातें लेकर क्या सिद्ध करना चाहते हो?’ 
 दीपा, एक बात मैं तुम्हें बताना भूल गई कि जब आफ़ताब से मेरी आखें लड़ी थीं, मुझे इस बात का ज़रा भी अनुमान नहीं हुआ कि मैं हिन्दू हूँ और वह मुसलमान। लगा दिल का मामला है, दिलों में सुलझ जाएगा। पर मेरा वह गुमान एक सिद्धांतमय समस्या बन कर सामने आया।
 अचानक मुझे लगा कि मैं खुद को सँभाल नहीं पा रही थी, बदन काँपने लगा था। गुस्से से या डर से, यह उस पल तय नहीं कर पाई। पर जब आफ़ताब का हठीला रवैया देखा तो मुझे यकीन हुआ कि मेरे डर की बुनियाद ठोस थी।
क्यों क्या हुआ अर्पणा, काँप क्यों रही हो?’ 
आफ़ताब तुम्हें मेरे साथ आज ही, अभी शादी करनी होगी। यह क्यों इतना ज़रूरी है तुम अच्छी तरह जानते हो?’
मैंने तो तुमसे कहा था अर्पणा...., पर तुम भी कभी-कभी अड़ जाती हो।
 क्या मतलब? क्या इसकी जवाबदार सिर्फ मैं अकेली हूँ? तुमने तो कहा था हल निकाल लोगे, घर में बात करोगे...!’   ‘की थी, पर अब्बू-अम्मी ज़िद पर अड़ गए हैं- कहते हैं उन्होंने कहीं बान दे रखी है।’  
 ‘मतलब....क्या है आफ़ताब, साफ-साफ बताओ?’ 
वे कहते हैं कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो वे अपनी जान दे देंगे’  
कैसा नहीं होगा तो, आफ़ताब...?
 ‘अगर मैंने उनकी पसंद की हुई लडक़ी से निकाह नहीं किया तो....!
 सखी, क्या बताऊँ, कैसे बयां करूँ कि उस समय इस अगर मगरको सुनकर मुझपर क्या गुज़ारी? जैसे एक साथ कई ज्वालामुखी मेरे समस्त अस्तित्व की धज्जियाँ उड़ाने के लिए विस्फोटित हुए। मेरा सहमा सहमा वजूद बस नाउम्मीदी से आफ़ताब को देखता रहा।
तो तुम निकाह करोगे...? उसके साथ जिसको तुम जानते ही नहीं, सिर्फ तुम्हारे माता-पिता ने वादा किया है... और मेरा क्या? मेरे पेट में पल रहे इस बच्चे का क्या, उन वादों का क्या जो तुमने मेरे साथ किए ?’                
अर्पणा मैं तुमसे...!’ 
तुमसे क्या आफ़ताब....? अभी अभी जो तुम हम दोनों की जवाबदारी की बात कर रहे थे, उसका क्या? उस जवाबदारी को सँभालने की बात कर रहे थे, उसका क्या? अब तुम अपनी ही कही बात से मुकर रहे हो!’                                                                    उस पल मेरा सारा बदन काँप रहा था, डर से नहीं, बल्कि गुस्से से। दीपा, ऐसा क्यों होता है कि हर जुर्म में मर्द की भी भागीदारी होती है, पर सज़ा अकेली औरत को भुगतनी पड़ती है? क्या आज़ादी सिर्फ मर्दों के हिस्से में आती है कि वे मनमानियों की गंगा में नहाते रहें और गंगा को मैली करते रहें? क्यों संकीर्ण समाज की इन घिसी पिट्टी रिवायतों से औरत को समझौता करना पड़ता है
सखी, फिर जो हुआ उसने तो मेरे सर से प्यार का भूत ही उतार दिया।
बेशर्मी की हर दीवार को फलाँगते हुए एक पाक जज़्बे को नापाक करते हुए उस नामुराद ने क्या कहा, जानती हो? सुनोगी तो जान पाओगी कि दरिंदगी क्या होती है? दानवता का चेहरा कैसा होता है? साफ पन्नों पर काली तहरीरें लिखने वाले नारी के साथ खिलवाड़ करके, बेबसी की हालत में उसे गिरावट की राह पर कैसे छोड़ जाते है
कमबख़्त जवाबदारी से कौन मुकर रहा है अर्पणा? मैं तो तुम्हें अपने सर पर आई हुई मुसीबतों की दास्ताँ बता रहा था, ये अम्मी-अब्बू भी ना...! कुछ समझते ही नहीं औरत जात की परेशानी...!’ 
अपने अम्मी-अब्बू को दोष देने के पहले, अपना चेहरा किसी साफ़ आईने में देख लो। वे तो दिये हुए वादे को भली-भाँति निभाने की रावयत पर मर मिटने की बात कर रहे हैं। शायद तुम ही ज़िन्दगी में रिश्तों की अहमियत नहीं समझ पाये, या समझते हुए नासमझ बन रहे हो। अब तो मुझे तुम्हारी नीयत पर संदेह होने लगा है...!
कैसा संदेह अर्पणा ? मेरे इरादों को यूँ शक की धूल से मटमैला न करोमैं तुम्हें दिलो-जान से चाहता हूँ।
चाहत क्या होती है तुम इस सच से कोसों दूर हो आफ़ताब! अब अपने नापाक इरादों से तुम मुझे और झाँसा नहीं दे सकते। तुम अभी, इसी वक़्त मेरी ज़िन्दगी से अपने इस मनहूस साये के साथ रफ़ा-दफ़ा हो जाओ।’                                                 अर्पणा...!आफ़ताब मिमियाता रहा
तुमने मेरे नाम पर कालिख पोतकर, मेरी इज़्ज़त की धज्जियाँ उड़ाई हैं। एक औरत की किादगी के साथ खिलवाड़ किया है। अब इस बेहयाई से तौबा कर लो...यही बेहतर है।
अर्पणा मुझे कहने का मौक़ा तो दो..!’  
 ‘मुझे अपनी लापरवाहियों का पूरी तरह अहसास है, अब तुम्हारी कोई भी बात मेरे घाव का मरहम नहीं बन सकती। और वैसे भी तजुर्बे बार-बार नहीं किए जाते। बेहतर है अपने अम्मी-अब्बू के दिये हुए वचन को निभाकर एक और किांदगी तबाह होने से बचा लो। अगर ज़िदगी में कभी बाप बनने का सुख हासिल हो तो इस अजन्मे बच्चे की क़सम, मैं तुम्हें बद्दुआ देती हूँ कि तुम्हारा वह सुख भी दुख में बदल जाए!
इतनी कठोर न बनो अपर्णा, मैंने सोच लिया है कि अम्मी-अब्बू की तमन्ना पूरी करके उस लडक़ी को तलाक़ देकर तुम्हें अपना लूँगा। और इस बच्चे को अपना नाम दूँगा।
दीपा, अब उसकी लरती हुई आवाज़ में डर था, अपने महफूज न रहने की बद्दुआ का खौफ झलक रहा था। इन्सान इतना कायर भी हो सकता है, यह पता न था। अपनी सलामती को लेकर कोई इतना ख़ुदगर्ज़ हो जाता है यह उस समय जाना जब आफ़ताब को स्वार्थ की बीन पर नंगा नाच करते हुए पाया। मेरे कोमल जज़्बों को उसने इस कदर कठोर बना दिया कि मेरे हृदय की सारी कड़वाहट ज़हर बनकर शब्दों में प्रवाहमान होने लगी।
 मुझे तुम से अब कोई उम्मीद नहीं। जाने कौन से खंडहरों पर अपने सपनों के महल बनाने के मनसूबे गढ़ते हो, जो तुम्हारे पापी मन में ऐसे ख़याल आ रहे हैं। यही ख़याल हन को तारीक करने के सिवा कुछ नहीं कर पाते। तुम अँधेरे में रहने के आदी हो चुके हो, अब रोशनी तुम्हारे किस काम की? मैं तुम जैसे कायर इन्सान का साया न खुद पर, और न ही न अपने आने वाले बच्चे पर पडऩे दूँगी। एक और बात रूर सुन लो, मुझे न तुम्हारे सहारे की रूरत है और न मेरे बच्चे को तुम्हारे नाम की!
दीपा सच कहती हूँ, उस दिन मैंने उस कायर इन्सान को देखा, जो गुनाह तो डंके की चोट पर करता है और माफ़ी भी माँगता है तो अपना हक समझ कर। पता है फिर क्या हुआ? वह अपनी जगह से उठा, अपनी कमी झटकी और बालों को सँवारता हुआ दो क़दम आगे गया और फिर रुककर कहने लगा...अर्पणा हो सके तो मुझे माफ कर देना।’ 
मानवता जहाँ अपने अर्थों पर पूरी नहीं उतरती शायद वहीं जवाबदारी का अंत हो जाता है। अब भी सोचती हूँ कि क्या उसके साथ जुड़ी हुई ज़िन्दगानियों के साथ भी वह इसी तरह निभाएगा? क्या औरत के आत्म-सम्मान को अपने छल-कपट एवं धूर्तता से स्वाहा करता रहेगा? अपने स्वार्थ के आगे बेगुनाह मासूम, मुस्कराहट को साँस लेने के पहले ही घोंट कर एक बदगुमान ज़िदगी का हक़दार बनाता रहेगा?
ये सवाल बिजली की मानिंद मेरे दिमाग में कौंध उठे, जिनके जवाब आने वाले कल में ये मासूम ज़िन्दगानियाँ हमसे तलब करेंगी। क्या हम उन्हें कोई जवाब दे पाएँगे...!
अब थक गई हूँ दीपा, फिर कभी लिखूँगी।
तुम्हारी सखी
 अर्पणा
सम्पर्क- 9-डी, कार्नर व्यू सोसाइटी, 15/33 रोड, बांद्रा, मुम्बई 400050,

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