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Jan 28, 2017

मन का संदूक

          मन का संदूक 
                  - रश्मि प्रभा

अँधेरी कोठरी मिट्टी की
लकड़ी का संदूक
मुड़े-तुड़े पुराने कपड़ों में नेफ्थालिन की महक
खुलते ही
और क्या है? देखने की इच्छा बलवती होती है
...
ये चिट्ठी पापा की है
तब की
जब मैं पहली बार घर से गई थी
महाविद्यालय में पढ़ने
ये चिट्ठी- एक घरेलू इतिहास-सी
अम्मा की
...
क्या अंदाज था उस समय का
हम सकुशल है
आशा है वहाँ भी ईश्वर की कृपा से
सब कुशल होगा
समय कंधे पर हाथ रखकर पूछता है
सबकुछ अभी अभी यहीं था न?’
समय की हथेली थामकर
दबी रुलाई उसे सौंपती हूँ
समय कभी पापा
कभी अम्मा बनकर
सर सहलाता है ...
और क्या है ? फिर ढूँढने लगती हूँ
पुराना
बहुत पुराना एल्बम
फोटो पर धब्बे आ गए हैं
थोड़ी सलवटें
सीधा करती हूँ
आँचल से साफ़ करती हूँ
बच्चों से कहूँगी
स्कैन करके दे दें
...
भले ही कभी-कभी देखना होगा
पर देख तो लूँगी !
अंकू कहती है,
नाना के बारे में जब तुम बताती हो
तो वह छवि मुझे बहुत प्रभावित करती है
टुकड़ों में सुना है सब कुछ
मन करता है
एक शॉर्ट मूवी बनती
हूबहू वैसी- जैसे नाना थे ...
बीती और कहानियों के लिए
खोलती हूँ मन का संदूक
सोंधी सी खुशबू फैलती है
खिलखिलाते प्रश्न, जवाब मिलते हैं
न कोई दाग
न सलवटें
रख लेती हूँ सँजोके
थोड़ी सी सोंधी खुशबू डालके ...
आगे के लिए

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