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Jan 28, 2017

बच्चे की मुस्कान, राष्ट्र की शान

   बच्चे की मुस्कान, राष्ट्र की शान
 - अंकुश्री
बच्चों के सर्वांगीण विकास में ही देश का सर्वांगीण विकास निहित है इस बात को बहुत पहले महसूस किया जा चुका है और इसके लि बाल विकास  सम्बन्धी अनेक कार्यक्रम भी घोषित कि हैं। बाल विकास की दिशा में प्रयोग तो बहुत हुए हैं, उन्हें कार्यान्वित कि जाने की आवश्यकता है।
हमारा समाज जितने सामाजार्थिक वर्गों में बँटा है, बालकों की समस्याओं को भी हम उतने ही वर्गों में बाँट सकते हैं. उसी के अनुरूप उन समस्याओं का निराकरण किया जा सकता है;  क्योंकि समाज के हर वर्ग की समस्याएँ भिन्न-भिन्न हैं। आर्थिक रूप से संपन्न बालकों के साथ जो समस्याएँ जुड़ी हैं, गरीब बालकों की समस्याएँ उनसे भिन्न हैं। मजदूर के बालक और किसान के बालक की सभी समस्याओं में समानता नहीं हो सकती। उसी तरह खानाबदो परिवार के बालकों और स्थिर निवासी परिवार के बालकों की समस्याएँ भी भिन्न-भिन्न हैं। आबादी से दूर वनों में रहने वाले बालकों और शहरों में रहने वाले बालकों, एकल परिवार के बालकों और संयुक्त परिवार के बालकों की समस्याएँ भी अलग-अलग प्रकार की हैं।
शहरों में पति-पत्नी दोनों के नौकरीशुदा होने के कारण उनके बच्चों को जिन परिस्थितियों में रहना पड़ता है,  हमेशा माँ की आँखों तले रहले वाले बालकों को उसका अनुभव नहीं हो सकता। माता-पिता और दादा-दादी अथवा नाना-नानी के प्यार के बीच बढ़ रहे बच्चों को बिना माँ-बाप के लावारिश बच्चों की स्थिति से जोड़ कर देखना सर्वथा अनुपयुक्त और अव्यावहारिक होगा।
ऊपर वर्णित समस्याओं में कुछ पारिवारिक हैं तो कुछ सामाजिक। इनमें सभी समस्याओं के बारे में सोचा अवश्य जा सकता है, मगर निराकरण नहीं किया जा सकता। सामाजिक या सरकारी व्यवस्था के तहत बाहर से दिखा देने वाली समस्याओं का ही निराकरण सम्भव है।
ऐसा पाया गया है कि बाल-समस्याओं पर बात करते समय मेज-वार्ता अधिक होती है। इससे समस्याएँ सही रूप सामने नहीं आ पातीं। बालकों की वास्तविक समस्याओं को जानने के लि सरजमीन पर जाना बहुत रूरी है; ताकि यह जाना जा सके कि बालक किस परिस्थिति में रह रहे हैं और उनकी वास्तविक समस्या क्या है। योजनाओं के निर्माण और उसके वास्तविक क्रियान्वयन के लिये यह अति आवश्यक है।
बालकों की जितनी समस्याएँ हैं, उनमें अधिकतर उनकी गरीबी और अशिक्षा से जुड़ी हुई हैं ; लेकिन यह गरीबी और अशिक्षा बालकों की निजी समस्या नहीं है। यह उनके परिवार और समाज से आ हुई समस्याएँ हैं। परिवार की बेरोजगारी और उससे उत्पन्न गरीबी का बालकों के स्वास्थ्य और विकास पर सीधा असर पड़ता है। गरीब परिवार के अशिक्षित और अस्वस्थ बालकों को लेमनचूस थमाने से चेहरे पर आ मुस्कान को कैमरे में कैद तो किया जा सकता है, मगर ऐसी मुस्कान उसके विकास में हरगिज कारगर नहीं हो सकती।
राष्ट्र की शान के रूप में परिभाषित कि जाने वाले बालकों के चेहरे पर मुस्कान को स्थायित्व देना आवश्यक है। इसके लि लेमनचूस, स्लेट-पेन्सिल और गँजी आदि बाँटने जैसे कायक्रमों का कोई लाभकारी प्रभाव नहीं आँका गया है। तभी तो आज़ादी से अब तक बाल विकास से जुड़े कार्यक्रमों की संख्या में जिस तरह लगातार वृद्धि हो रही है, उसी तरह बालकों की समस्याएँ भी बढ़ती जा रही हैं।
बालक समाज की कोई स्वतंत्र इकाई नहीं होता। वह परिवार का एक हिस्सा होता है। यदि किसी गरीब-लाचार बालक को रोटियाँ दे दी जाएँ, तो वह उन्हें अपने घर ले जाता है। अपने परिवार से मिले संस्कार के अनुसार वह उन रोटियों को अन्य सदस्यों के बीच बाँटकर खाना चाहता है। ऐसी स्थिति में बालकों की समस्याओं से जुड़े कार्यक्रमों को बालकों के परिवार से जोड़कर तय करना होगा, तभी बालकों तक वास्तविक रूप में कुछ पहुँचाया जा सकता है और उनके विकास की बात सोची जा सकती है।
हमारे देश की एक बहुत बड़ी समस्या धर्म और सम्प्रदाय रूपी सामाजिक बँटवारा है। चूँकि बालक भी समाज से जुड़े हैं, इसलि वे भी इस समस्या से ग्रस्त हैं। किंतु बालक किसी धर्म या सम्प्रदाय की इकाई नहीं होता, वह सिर्फ बालक होता है। परिस्थितिजन्य कारणों से वह किसी धर्म या सम्प्रदाय की इकाई बन गया होता है। इसका कारण हमारी पारिवारिक, सामाजिक, जातिगत और समुदायगत विशेषता है।
देश के अनेक क्षेत्रों में 18 वर्ष के पूर्व ही लड़कियों का विवाह कर दिया जाता है। इसके परिणामस्वरूप वे जल्दी ही माँ बन जाती हैं। कम उम्र में शादी का कारण मुख्यत: उस समाज और क्षेत्र की गरीबी और अशिक्षा है। ऐसी गरीब लड़कियों के माँ बनने से उनके बच्चे कमजोर होते हैं और उनकी मृत्यु-दर भी अधिक होती है। बड़ा होने पर ऐसे बच्चे चिड़चिड़े और अस्वस्थ रहने लगते हैं।
गरीबी में जन्में बालकों को होश होने पर जब भूख सताती है तो रोटी की तलाश में वे घर से बाहर निकल पड़ते हैं। चूँकि माता-पिता उनकी भूख मिटाने में सक्षम नहीं होते, इसलि उन बालकों पर उनका नियंत्रण भी नहीं रह पाता अथवा कम रहता है। बिना नियंत्रण या कम नियंत्रण के ऐसे बच्चे कुसंगत में पड़ जाते हैं और इसका परिणाम होता है कि वे भीख माँगते हैं, छोटा-बड़ा अपराध करते हैं या कुछ मजदूरी की तलाश कर लेते हैं। ये स्थितियाँ बाल-विकास के लि बाधक होती हैं और इससे बालकों तथा आगे चल कर देश का भविष्य प्रभावित होता है। देखरेख के अभाव में ऐसे बच्चे गलत संगत में पड़ जाते हैं और बड़ा होने पर समाज और देश में तरह-तरह की विसंगतियाँ फैलाते हैं। बच्चों का जन्म और समयानुसार उनका बड़ा हो जाना उनका विकास नहीं है। ऐसे विकास के कारण भी समाज अथवा देश में अपराध, उग्रवाद और आतंक फैला हुआ है।
देश की आधी आबादी गरीबी के कारण न्यूनतम कैलोरी और प्रोटीन ले पाने में सक्षम नहीं है। आबादी का दसवाँ हिस्सा कुपोषण के कारण किसी न किसी बीमारी से पीडि़त है। इसमें बालक भी शामिल हैं। बल्कि बालकों को ही कैलोरी, प्रोटीन और पोषण की अत्यधिक आवश्यकता है ; लेकिन पोषण की कमी बालकों के लिये बहुत बाधक और उनके विकास के लि घातक है।
बालकों के विकास में माँ का सबसे अधिक हाथ होता है. यदि माँ चाहे तो उसका बालक चरित्रवान बन सकता है। सवाल उठता है कि कोई माँ अपने बालक को चरित्रवान बनाना क्यों नहीं चाहेंगी ; लेकिन कुछ माताएँ हैं, जो अपने बालक को चरित्रवान बनाने में मदद नहीं कर पा रही हैं। ऐसी माताएँ अपने बालक द्वारा जायज-नाजायज ढंग के उपार्जन को भी चुपचाप स्वीकार कर लेती हैं। इसका कारण गरीबी और लालच दोनों है। ऐसी माँ सोचती है कि उनका बेटा कमा हो गया है। अपनी आवश्यकताओं को कम कर और सृजनात्मक बुद्धि देकर ऐसी माताएँ भी अपने बालकों को सही दिशा दे सकती हैं। इस दिशा में सात्विक मार्गदर्शन अधिक कारगर हो सकता है।
मनुष्य का पिताकहलाने वाले बालक भावी राष्ट्र की पीढ़ी हैं। आज जो बालक हैं, उन्हीं के हाथ में कल का देश होगा; इसलि बालकों में राष्ट्रीय भावना भरना किसी भी राष्ट्र का पहला कर्तव्य होना चाहि। यदि बालकों का सर्वांगीण विकास हो तो देश में अनेक समस्याएँ पैदा ही नहीं लें।
अपराध और भष्टाचार किसी भी राष्ट्र के लिये सर्वाधिक बाधक और घातक है। इन दोनों की स्थिति के अनुसार ही किसी राष्ट्र का विकास संभव है। सारी योजनाओं की सफलता उसके कार्यान्वयन पर निर्भर करती है। जब कार्यान्वयन में ही भ्रष्टाचार आ जा तो अपराधियों का वर्चस्व हो जाना अस्वाभाविक नहीं है। यहीं से सारी प्रगति बाधित हो जाती है।
विश्व बाल वर्ष-1979 में संयुक्त राष्ट्रसंघ ने नारा दिया था- बच्चे की मुस्कान, राष्ट्र की शान।आज के बच्चे कल के भविष्य हैं। मगर इस भविष्य का वर्तमान बहुत बुरा है। अशिक्षा और बेरोजगारी के कारण बाल मजदूरों, बाल भिखारियों और बाल अपराधियों की संख्या में कमी नहीं आ पा रही है। कागजी आँकड़ेबाजी की बात दीगर है। मगर वास्तविकता देश के कोने-कोने में मुखर है।
बच्चे रोज बड़े हो रहे हैं। विश्व बाल वर्ष के समय जन्मे बच्चे जल्द ही दादा बन जाएँगे। मगर उस अवसर पर दिया गया नारा सिर्फ नारा ही रह गया है। बच्चों के चेहरे पर फैली लेमनचूसी मुस्कान से उनकी छवि की छाप को सुधार कर दिखाया भले जा सकता है, मगर इससे राष्ट्र की शान की बात नहीं सोची जा सकती।
सम्पर्क: सिदरौल, प्रेस कॉलोनी, पोस्ट बॉक्स 28, नामकुम, राँची- 834 010

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