कृपया क्षमा कीजिए
- लोकेन्द्र सिंह कोट
एक लोककथा के अनुसार दो व्यक्तियों में एक ऑंगन के पेड़ को लेकर झगड़ा हुआ। ऑंगन का पेड़ न हुआ प्रतिष्ठा का सूचक बन गया। कुछ समय बाद बेचारा पेड़ हाशिये पर था और मध्य में था सिर्फ, झगड़ा ! झगड़ा बढ़ता गया....और झगड़े का अन्त दोनों के अन्त के साथ हुआ। दोनों परिवारों में दुश्मनी की गांठे बंध गई। कहते हैं, उनका यह झगड़ा पीढ़ी-दर-पीढ़ी चता रहा और कलयुग में आकर सारे समाज में व्याप्त हो गया और आज के समाज की वास्तविकता हमारे समक्ष है। हम लोककथा की काल्पनिकता को झुठला नहीं सकतें। उतरोत्तर प्रगति के साथ हमने चांद-तारे तो छू लिये मगर सांमजस्य को अपने पास नहीं रख पाये। बिगड़ते सामंजस्य ने विवादों की एक नई श्रृंखा को जन्म दे दिया है। ज्यादा दूर नहीं, अपने आस-पास ही यदि हम एक संवेदनशील नजर दौड़ायें तो पाते हैं कि हर तीसरे की भौंहें तनी हुई हैं। कई विवाद तो धैर्य की कमी की वजह से ही सम्पन्न हो जाते हैं।
आम जन को थोड़ा अगल कर लें, तो भी हम देखते हैं कि श्रेष्ठ और उदात्त भावनाओं वाले लोग भी इन्हीं सब पचड़ों में पड़े मिलते हैं। श्रेष्ठ विचारों के लिहाज से हमारे दोनों कंधों पर लटके झोले ठसाठस भरे हुए हैं, लेंकिन हमारी जेबों में आधुनिक जमाने का 'इगो’ बैठा हुआ है। वक्त के अनुसार हमें जब जिसका प्रयोग करना होता है, तब कर बैठते हैं। आज एक आदमी किसी दूसरे आदमी से मिलने में थोड़ा सहमता है, सोचता है....ठीक उसी तरह जिस तरह जंग में एक जानवर, दूसरे से मिलने से पहले करता है। हमारे मध्य बियावान जंगल आ गया है और विवादों की प्रदूषणयुक्त हवा उसमें बह रही हैं। विवादों के तले समझ तो पहले ही दब जाती है, साथ ही जीवन का रस, महत्व भी झुंझाहठ में बदल जाता है।
बहुत कुछ पाने का नाम है क्षमा
कहते हैं, प्रत्येक समस्या का हल उसी समस्या के घर में किसी कोने में दुबका पडा रहता है। झगड़ों के साथ भी ऐसा ही कुछ है। उन्हीं की जड़ों में उनका हल विद्यमान है -'क्षमा’ किसी पेड़ की जड़े भी पेड़ को इसी आशा के साथ भोजन देती हैं कि वह 'पत्थर’ की प्रतिक्रिया 'फल’ के रूप में दे। क्षमा भी यही कहती है। आतंरिक और वास्तविक सुखद प्रेम का प्रतीक है, क्षमा! हमारे द्वारा निर्मित अविश्वास, फसाद, संवेदनहीनता और संवादहीनता के घटाटोप भरे अंधेरे बियावान जंग में आशा की किरण बिखेरता एक दिया है, क्षमा! सामंजस्य और जीवन का रस है क्षमा!
बहुत कुछ पा लेंने का नाम है, क्षमा! हमारे आसपास भी कई विवाद लिपटे हुये होते हैं, कुछ हमारी गलती से, कुछ सामने वाले की, जो लम्बे समय से हमे परेशान किये रहते हैं या फिर हो सकता है, ऐसी ठेस जो हृदय में धंसी हुई है, टीसती रहती है..... इस मामले में हम कोई अलग नहीं हैं, ऐसा आम होता है और इन सभी का सुखांत यही है कि क्षमा के मूल बिंदु को पहचान लिया जाए। एक विशिष्ट घटना इस तथ्य को और बल प्रदान करती है। दिसम्बर १९८३ में किसी धार्मिक कार्य के लिये पोप जॉन पाल द्वितीय रवाना हुये, तभी उन पर किसी ने गोली चलाई वे बच गये। गोली चलाने वले को जेल में डाल दिया गया। पोप एक दिन स्वयं उसी से मिलने काल कोठरी गए और उन्होंने अपराधी को क्षमा कर दिया, अपराधी नतमस्तक था, उसने अपना जीवन ही बदल लिया।
क्षमा करना आसान नहीं है
साधारण व्यक्ति के लिये क्षमा कर देना इतना आसान नहीं होता है। हमारी विवेक, बुद्घि और तन-मन में लगी आग हमेशा प्रेरित करती है कि ‘उसे अपने किये की सजा मिलनी चाहिए।' किसी के द्वारा अन्याय, धोखे, गलत व्यवहार की तीव्र प्रतिक्रिया यही होती है कि उसे दोगुनी सजा मिेले। वास्तव में यह सब विचार ऐसे बीज हैं जो कैंसर की भॉंति फैलते हैं। इन्हीं सब चक्कर में पडक़र हम अपनी खुशियों का गला तो घोटते ही हैं, साथ ही आपसी माहौल को भी घुटन-भरा बना लेंते हैं। इससे तो अच्छा है कि हम सामने वाले को क्षमा कर दें, नतमस्तक कर दें और खुद भी जीवन का मजा लें। कुल मिलाकर विवाद, नफरत के गणित में विवाद, नफरत को मन में पाले रखने वाला ही घाटे में रहता है।
अक्सर विवाद होने पर हममें नफरत, गुब्बारे में हवा की तरह भर जाती है और हमे स्वयं इसका पता नहीं होता है कि हम ‘उसे' नीचा दिखाने, हराने की कुसंरचनाओं को रचने में ही अधिकतम समय दे रहे होते हैं। इस मामले में हम स्वयं से ही छिपाते हैं, हम स्वीकार नहीं कर पाते है कि हम नफरत के जाल में फँस चुके हैं। वास्तव में उस स्थिति में हम स्वयं से लड़ भी रहे होते हैं। इस नफरत, विवाद का अंत संभव है, बशर्ते हम अपने आप से लडऩा बंद कर दें, दोषी से सीधे मिलें और कहें कि ‘तुमने मेरे साथ यह गलत व्यवहार किया है।' हो सकता है यह सब तत्काल प्रभाव न करे, परन्तु उसके विचारों के तंतुओं को हल्का सा स्पन्दन तो मिल ही जाएगा, उसे इस दिशा में सोचने पर मजबूर किया जा सकेगा। मुझे याद है कालेज के दिनों में कुख्यात लडक़े ने परीक्षा के नकल के केस में मेरे सहपाठी मित्र को धोखे से फँसवा दिया। प्रतिक्रिया स्वरूप उसमें नफरत उत्पन्न हुई और रात दिन उन्हीं बातों में उलझा रहने लगा। फिर एक दिन शाम को उसने उसी कुख्यात लडक़े से मुलाकात की और सीधे उससे पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया। इस पर उसने तत्काल तो कुछ नहीं कहा, पंरतु दूसरे दिन उसने अपना सारा गुनाह स्वीकार कर लिया और मित्र से सभी के सामने माफी भी मांगी।
क्षमा कायरता नहीं है
कई ऐसे विवाद होते हैं, जिनमें क्षमा कर देना आसान नहीं होते हुए कायरता लगती है। लगता है कि हमने किसी डर की वजह से क्षमा कर दिया है। विश्व प्रसिद्घ नाटककार बनार्ड शा तो क्षमा को ‘भिखारी की बहानेबाजी' तक मानते हैं कुछ विद्यानों का कहना है कि क्षमा अपने आप में अन्याय है, क्योंकि न्यायत: अपराधी को दंड मिलना ही चाहिए। फिर भी इन सबसे इसलिये सहमत नहीं हुआ जा सकता है, क्योंकि हम भी गुनाह करते हैं, उसी तरह का नहीं, तो दूसरी तरह का और देव स्थलों पर जाकर इसी आशा में शीश नवाते हैं कि हमारे पापों को देवता हर लें और हमें वांछित फल प्रदान करें। जब हम एक तरफ अपने लिये क्षमा की आशा रखते है तो हम दूसरे को क्षमा क्यों नहीं कर सकते हैं? हम किस तरह से क्षमा किए बगैर क्षमा लेंने की बात कर सकते हैं?क्षमा कीजिए, अच्छा है !किसी अपराध का बदला लें लेंने से जीवन की तराजू का पड़ला बराबर नहीं हो जाता है। वास्तव में हम अपने आपको ही कम तोलते हैं और हमारी विचारधारा भी अपराधी के समानांतर हो जाती है। अपराध करने वाला व सहन करने वाले दोनों ही प्रतिहिंसा के अंतहीन चक्र में फँस जाते हैं। गांधी जी ने एक जगह ठीक लिखा है - अगर हम सभी ‘ऑंख के बदले ऑंख' वो सिद्घांत पर चलें तो सारी दुनिया ही अंधी हो जाएगी। किसी से नफरत हो और उस नफरत को दूसरे पल ही भुला दें, यह एक कठिन प्रक्रिया है, जिस तरह से कोई बुरी आदत को छोडऩे में कठिनाई महसूस होती है, उसी तरह नफरत भी उन्हीं में आती है। कई बार हमें भ्रम होता है कि हम किसी से नफरत नहीं करते हैं, परन्तु ठेस जितनी गहरी होती है उतना ही उसे मन से निकाने में समय लगता है। इसके बाद भी निरन्तर सकारात्मक एवं क्षमा के विषय में सोचते रहेंगे तो समय के चलते एक दिन हम उस ठेस को क्षमा में बदल सकते हैं। व्यवहारगत अनुभव भी यही कहता है कि इंसान के निरन्तर संपर्क में रहने पर जानवरों तक में समझ की दृष्टि आना प्रारम्भ हो जाती है। क्षमा हमारे मन पर पीड़ा की जकड़ को दूर करके सम्भावनाओं के द्वार खोल देती है। क्षमा वास्तव में दृढ़ता का प्रतीक है, न कि निर्बलता का। निर्बल व्यक्तित्व क्षमा जैसा कार्य कर ही नहीं सकता है और अपने प्रति की गई दुष्टता से निपटने के लिये धैर्य और साहस की जरूरत होती है, साथ ही प्रेम की, जो क्षमा की वास्तविक प्रेरक शक्ति है। क्षमा के साथ दो सशक्त घटक जुड़े होते हैं सम्मान और प्रतिबद्घता। श्रेष्ठ जीवन के लिये यही दो प्रमुख आधार स्तम्भ भी होते हैं, इसलिये कृपया सदैव क्षमा कीजिए।
- लोकेन्द्र सिंह कोट
एक लोककथा के अनुसार दो व्यक्तियों में एक ऑंगन के पेड़ को लेकर झगड़ा हुआ। ऑंगन का पेड़ न हुआ प्रतिष्ठा का सूचक बन गया। कुछ समय बाद बेचारा पेड़ हाशिये पर था और मध्य में था सिर्फ, झगड़ा ! झगड़ा बढ़ता गया....और झगड़े का अन्त दोनों के अन्त के साथ हुआ। दोनों परिवारों में दुश्मनी की गांठे बंध गई। कहते हैं, उनका यह झगड़ा पीढ़ी-दर-पीढ़ी चता रहा और कलयुग में आकर सारे समाज में व्याप्त हो गया और आज के समाज की वास्तविकता हमारे समक्ष है। हम लोककथा की काल्पनिकता को झुठला नहीं सकतें। उतरोत्तर प्रगति के साथ हमने चांद-तारे तो छू लिये मगर सांमजस्य को अपने पास नहीं रख पाये। बिगड़ते सामंजस्य ने विवादों की एक नई श्रृंखा को जन्म दे दिया है। ज्यादा दूर नहीं, अपने आस-पास ही यदि हम एक संवेदनशील नजर दौड़ायें तो पाते हैं कि हर तीसरे की भौंहें तनी हुई हैं। कई विवाद तो धैर्य की कमी की वजह से ही सम्पन्न हो जाते हैं।
आम जन को थोड़ा अगल कर लें, तो भी हम देखते हैं कि श्रेष्ठ और उदात्त भावनाओं वाले लोग भी इन्हीं सब पचड़ों में पड़े मिलते हैं। श्रेष्ठ विचारों के लिहाज से हमारे दोनों कंधों पर लटके झोले ठसाठस भरे हुए हैं, लेंकिन हमारी जेबों में आधुनिक जमाने का 'इगो’ बैठा हुआ है। वक्त के अनुसार हमें जब जिसका प्रयोग करना होता है, तब कर बैठते हैं। आज एक आदमी किसी दूसरे आदमी से मिलने में थोड़ा सहमता है, सोचता है....ठीक उसी तरह जिस तरह जंग में एक जानवर, दूसरे से मिलने से पहले करता है। हमारे मध्य बियावान जंगल आ गया है और विवादों की प्रदूषणयुक्त हवा उसमें बह रही हैं। विवादों के तले समझ तो पहले ही दब जाती है, साथ ही जीवन का रस, महत्व भी झुंझाहठ में बदल जाता है।
बहुत कुछ पाने का नाम है क्षमा
कहते हैं, प्रत्येक समस्या का हल उसी समस्या के घर में किसी कोने में दुबका पडा रहता है। झगड़ों के साथ भी ऐसा ही कुछ है। उन्हीं की जड़ों में उनका हल विद्यमान है -'क्षमा’ किसी पेड़ की जड़े भी पेड़ को इसी आशा के साथ भोजन देती हैं कि वह 'पत्थर’ की प्रतिक्रिया 'फल’ के रूप में दे। क्षमा भी यही कहती है। आतंरिक और वास्तविक सुखद प्रेम का प्रतीक है, क्षमा! हमारे द्वारा निर्मित अविश्वास, फसाद, संवेदनहीनता और संवादहीनता के घटाटोप भरे अंधेरे बियावान जंग में आशा की किरण बिखेरता एक दिया है, क्षमा! सामंजस्य और जीवन का रस है क्षमा!
बहुत कुछ पा लेंने का नाम है, क्षमा! हमारे आसपास भी कई विवाद लिपटे हुये होते हैं, कुछ हमारी गलती से, कुछ सामने वाले की, जो लम्बे समय से हमे परेशान किये रहते हैं या फिर हो सकता है, ऐसी ठेस जो हृदय में धंसी हुई है, टीसती रहती है..... इस मामले में हम कोई अलग नहीं हैं, ऐसा आम होता है और इन सभी का सुखांत यही है कि क्षमा के मूल बिंदु को पहचान लिया जाए। एक विशिष्ट घटना इस तथ्य को और बल प्रदान करती है। दिसम्बर १९८३ में किसी धार्मिक कार्य के लिये पोप जॉन पाल द्वितीय रवाना हुये, तभी उन पर किसी ने गोली चलाई वे बच गये। गोली चलाने वले को जेल में डाल दिया गया। पोप एक दिन स्वयं उसी से मिलने काल कोठरी गए और उन्होंने अपराधी को क्षमा कर दिया, अपराधी नतमस्तक था, उसने अपना जीवन ही बदल लिया।
क्षमा करना आसान नहीं है
साधारण व्यक्ति के लिये क्षमा कर देना इतना आसान नहीं होता है। हमारी विवेक, बुद्घि और तन-मन में लगी आग हमेशा प्रेरित करती है कि ‘उसे अपने किये की सजा मिलनी चाहिए।' किसी के द्वारा अन्याय, धोखे, गलत व्यवहार की तीव्र प्रतिक्रिया यही होती है कि उसे दोगुनी सजा मिेले। वास्तव में यह सब विचार ऐसे बीज हैं जो कैंसर की भॉंति फैलते हैं। इन्हीं सब चक्कर में पडक़र हम अपनी खुशियों का गला तो घोटते ही हैं, साथ ही आपसी माहौल को भी घुटन-भरा बना लेंते हैं। इससे तो अच्छा है कि हम सामने वाले को क्षमा कर दें, नतमस्तक कर दें और खुद भी जीवन का मजा लें। कुल मिलाकर विवाद, नफरत के गणित में विवाद, नफरत को मन में पाले रखने वाला ही घाटे में रहता है।
अक्सर विवाद होने पर हममें नफरत, गुब्बारे में हवा की तरह भर जाती है और हमे स्वयं इसका पता नहीं होता है कि हम ‘उसे' नीचा दिखाने, हराने की कुसंरचनाओं को रचने में ही अधिकतम समय दे रहे होते हैं। इस मामले में हम स्वयं से ही छिपाते हैं, हम स्वीकार नहीं कर पाते है कि हम नफरत के जाल में फँस चुके हैं। वास्तव में उस स्थिति में हम स्वयं से लड़ भी रहे होते हैं। इस नफरत, विवाद का अंत संभव है, बशर्ते हम अपने आप से लडऩा बंद कर दें, दोषी से सीधे मिलें और कहें कि ‘तुमने मेरे साथ यह गलत व्यवहार किया है।' हो सकता है यह सब तत्काल प्रभाव न करे, परन्तु उसके विचारों के तंतुओं को हल्का सा स्पन्दन तो मिल ही जाएगा, उसे इस दिशा में सोचने पर मजबूर किया जा सकेगा। मुझे याद है कालेज के दिनों में कुख्यात लडक़े ने परीक्षा के नकल के केस में मेरे सहपाठी मित्र को धोखे से फँसवा दिया। प्रतिक्रिया स्वरूप उसमें नफरत उत्पन्न हुई और रात दिन उन्हीं बातों में उलझा रहने लगा। फिर एक दिन शाम को उसने उसी कुख्यात लडक़े से मुलाकात की और सीधे उससे पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया। इस पर उसने तत्काल तो कुछ नहीं कहा, पंरतु दूसरे दिन उसने अपना सारा गुनाह स्वीकार कर लिया और मित्र से सभी के सामने माफी भी मांगी।
क्षमा कायरता नहीं है
कई ऐसे विवाद होते हैं, जिनमें क्षमा कर देना आसान नहीं होते हुए कायरता लगती है। लगता है कि हमने किसी डर की वजह से क्षमा कर दिया है। विश्व प्रसिद्घ नाटककार बनार्ड शा तो क्षमा को ‘भिखारी की बहानेबाजी' तक मानते हैं कुछ विद्यानों का कहना है कि क्षमा अपने आप में अन्याय है, क्योंकि न्यायत: अपराधी को दंड मिलना ही चाहिए। फिर भी इन सबसे इसलिये सहमत नहीं हुआ जा सकता है, क्योंकि हम भी गुनाह करते हैं, उसी तरह का नहीं, तो दूसरी तरह का और देव स्थलों पर जाकर इसी आशा में शीश नवाते हैं कि हमारे पापों को देवता हर लें और हमें वांछित फल प्रदान करें। जब हम एक तरफ अपने लिये क्षमा की आशा रखते है तो हम दूसरे को क्षमा क्यों नहीं कर सकते हैं? हम किस तरह से क्षमा किए बगैर क्षमा लेंने की बात कर सकते हैं?क्षमा कीजिए, अच्छा है !किसी अपराध का बदला लें लेंने से जीवन की तराजू का पड़ला बराबर नहीं हो जाता है। वास्तव में हम अपने आपको ही कम तोलते हैं और हमारी विचारधारा भी अपराधी के समानांतर हो जाती है। अपराध करने वाला व सहन करने वाले दोनों ही प्रतिहिंसा के अंतहीन चक्र में फँस जाते हैं। गांधी जी ने एक जगह ठीक लिखा है - अगर हम सभी ‘ऑंख के बदले ऑंख' वो सिद्घांत पर चलें तो सारी दुनिया ही अंधी हो जाएगी। किसी से नफरत हो और उस नफरत को दूसरे पल ही भुला दें, यह एक कठिन प्रक्रिया है, जिस तरह से कोई बुरी आदत को छोडऩे में कठिनाई महसूस होती है, उसी तरह नफरत भी उन्हीं में आती है। कई बार हमें भ्रम होता है कि हम किसी से नफरत नहीं करते हैं, परन्तु ठेस जितनी गहरी होती है उतना ही उसे मन से निकाने में समय लगता है। इसके बाद भी निरन्तर सकारात्मक एवं क्षमा के विषय में सोचते रहेंगे तो समय के चलते एक दिन हम उस ठेस को क्षमा में बदल सकते हैं। व्यवहारगत अनुभव भी यही कहता है कि इंसान के निरन्तर संपर्क में रहने पर जानवरों तक में समझ की दृष्टि आना प्रारम्भ हो जाती है। क्षमा हमारे मन पर पीड़ा की जकड़ को दूर करके सम्भावनाओं के द्वार खोल देती है। क्षमा वास्तव में दृढ़ता का प्रतीक है, न कि निर्बलता का। निर्बल व्यक्तित्व क्षमा जैसा कार्य कर ही नहीं सकता है और अपने प्रति की गई दुष्टता से निपटने के लिये धैर्य और साहस की जरूरत होती है, साथ ही प्रेम की, जो क्षमा की वास्तविक प्रेरक शक्ति है। क्षमा के साथ दो सशक्त घटक जुड़े होते हैं सम्मान और प्रतिबद्घता। श्रेष्ठ जीवन के लिये यही दो प्रमुख आधार स्तम्भ भी होते हैं, इसलिये कृपया सदैव क्षमा कीजिए।
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