अब तो घर लौटना है
- शशि पाधा
न छत बची न छप्परी
घोर विपदा की घड़ी
मीलों तक दौड़ना है
अब तो घर लौटना है ।
बहुत दूर मंजिलें
राहें
सुनसान है
धूप के दंश हैं
देह परेशान है
फिर भी कुछ सुकून है
कि घर को लौटना है ।
अंग अंग भेदती
भूख की बर्छिया
रीत गई बूँद- बूँद
हाँडियाँ कल्छियाँ
बचा न तेल नून अब
अब तो घर लौटना है।
रोक न सकें हमें
पैर की बिवाइयाँ
आस
देह घसीटती
काँपती परछाइयाँ
अभी तो गर्म खून है
चलो तो, घर लौटना है।
पता नहीं गाँव में
द्वार कोई खोलेगा
या बंद किवाड़ से
हाथ कोई जोड़ेगा
वहाँ का क्या क़ानून है
फिर भी घर लौटना है।
हमें तो घर लौटना है।
6 comments:
कोरोना के कारण अपने येन केन प्रकारेण घर लौटने का विचार ही मजदूरों को ऊर्जा देता रहा,फिर भी पीड़ा एवम द्वंद्व स्वाभाविक है,इसी मनःस्थिति को चित्रित करता प्रभावी गीत।बधाई शशि पाधा जज
आभार शिव जी | बहुत कष्ट हो रहा था उनकी असहाय स्थिति देख कर | और यह भी मन में था कि गाँव में स्वागत होगा कि नहीं | बस यही भाव हैं इस रचना में |
बहुत मर्मस्पर्शी और भावपूर्ण रचना, आपको बधाई शशि जी!💐
मज़दूरों के घर लौटने के जज़्बे का भावपूर्ण ,मर्मस्पर्शी चित्रण करती सुंदर कविता।
मार्मिक भावों का चित्रण करता हुआ सृजन 👍
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