न टीका चाहिए, न
सामूहिक प्रतिरोध
-मिलिंद वाटवे
मैंने पहले एक लेख में कहा था कि इस बात की प्रबल संभावना है
कि वर्तमान महामारी के लिए ज़िम्मेदार वायरस (SARS-Cov-2) का विकास इस तरह होगा कि उसकी उग्रता या अनिष्टकारी प्रवृत्ति कम होती
जाएगी। मुझे ऐसी उम्मीद इसलिए है कि एक ओर तो लगभग सारे देश सारे ज्ञात
कोरोना-पॉज़िटिव प्रकरणों में सख्त क्वारेंटाइन लागू कर रहे हैं; लेकिन दूसरी ओर, हम बहुत व्यापक परीक्षण नहीं करवा पाएँगे, जिसका
परिणाम यह होगा कि बहुत सारे प्रकरणों में लक्षण-रहित व्यक्तियों की जाँच नहीं हो
पाएगी। ये लोग घूमते-फिरते रहेंगे और वायरस को फैलाते रहेंगे।
वायरस बड़ी आबादी तक
पहुँचता है और इसकी उत्परिवर्तन की दर भी काफी अधिक होती है। इस वजह से तमाम
परिवर्तित रूप उभरते रहेंगे। जो किस्में अधिक उग्र व अनिष्टकारी होंगी, वे गंभीर संक्रमण पैदा करेंगी, जिसके चलते ऐसे मरीज़ों की जांच होगी और उन्हें क्वारेंटाइन किया जाएगा।
दूसरी ओर, कम उग्र रूप लक्षण-रहित या हल्के-फुल्के लक्षणों
वाले संक्रमण पैदा करेंगे, जो शायद स्क्रीनिंग और उसके बाद
होने वाले क्वारेंटाइन से बच निकलेंगे। इसका मतलब है कि ये फैलते रहेंगे। वायरस की
कई पीढ़ियों, जो बहुत लंबी अवधि नहीं होती, में प्राकृतिक चयन कम उग्र रूपों को तरजीह देगा।
जहाँ वायरस सम्बन्धी
सारा अनुसंधान टीके के विकास, उसकी रोगजनक पद्धति या उपचार विकसित करने पर है, वहीं
वायरस के जैव विकास पर कोई बात नहीं हो रही है। इसके दो कारण हैं। एक तो यह है कि
चिकित्सा के क्षेत्र में कार्यरत लोगों को जैव विकास के लिहाज़ से सोचने की तालीम
ही नहीं दी जाती। दूसरा कारण यह है कि उग्रता/अनिष्टकारी प्रवृत्ति को नापना सम्भव नहीं है। वायरस के डीएनए का अनुक्रमण करना, उसके
द्वारा बनाए गए प्रोटीन्स का अध्ययन करना, संक्रमित व्यक्ति
में एंटीबॉडी खोजना वगैरह आसान है। शोधकर्ता आम तौर वही करते हैं, जो सरल हो, न कि वह जो वैज्ञानिक दृष्टि से ज़्यादा
प्रासंगिक हो।
चूंकि आप उग्रता
में परिवर्तन को आसानी से नाप नहीं सकते,
इसलिए इस पर आधारित परिकल्पना की कोई बात भी नहीं करता। मैं इसे
विज्ञान में ‘प्रमाण-पूर्वाग्रह’ कहता हूँ। यदि किसी परिकल्पना को सिद्ध करने या
उसका खंडन करने के लिए प्रमाण जुटाना मुश्किल हो, तो लोग
उसके बारे में चर्चा करने से कतराते हैं, क्योंकि उसके आधार
पर शोध पत्र तो तैयार नहीं हो सकता। महत्त्व इस बात का नहीं होता कि कोई परिकल्पना
जन-स्वास्थ्य के लिहाज़ से वैज्ञानिक महत्त्व रखती है या नहीं;
बल्कि इस बात का होता है कि क्या आप शोधपत्र प्रकाशित कर पाएँगे।
अलबत्ता, विश्व स्तर पर रोग प्रसार के रुझान और
भारतीय परिदृश्य से भी निश्चित संकेत मिल रहे हैं कि वायरस की उग्रता कम हो रही
है। यद्यपि संक्रमण बढ़ रहा है, लेकिन समय के साथ मृत्यु दर
लगातार कम हो रही है। पैटर्न पर नज़र डालिए। मध्य अप्रैल से, हालाँकि प्रतिदिन नए संक्रमित व्यक्तियों की संख्या बढ़ी है, लेकिन प्रतिदिन मौतों की संख्या कम हुई है।
यही भारत में भी
दिख रहा है। दरअसल, भारत
में रोगी मृत्यु दर (यानी कोविड-19 के मरीज़ों की संख्या के अनुपात में मौतें) पहले
से ही कम थी और यह दर लगातार कम हो रही है, हालांकि प्रतिदिन
कुल मौतों की संख्या में गिरावट आना शेष है।
मैंने यहां भारत
में प्रतिदिन रिपोर्टेड पॉज़िटिव केसेस को प्रतिदिन रिपोर्टेड मौतों के अनुपात के
रूप में प्रस्तुत किया है। यह ग्राफ़ उस दिन से शुरू किया है, जिस दिन प्रतिदिन मृत्यु
का आँकड़ा 50 से ऊपर हो गया था। यह सही है कि दिन-ब-दिन
उतार-चढ़ाव दिखते हैं लेकिन फिर भी मृत्यु में लगातार कमी की प्रवृत्ति स्पष्ट है।
अब यदि हम एक सरल सी मान्यता लेकर चलें कि यही प्रवृत्ति
जारी रहेगी, तो हम कह सकते
हैं कि भारत में 35 दिनों में कोविड-19 साधारण फ्लू जितना खतरनाक रह जाएगा। ज़ाहिर है,
यह सरल मान्यता थोड़ी ज़्यादा ही सरल है, क्योंकि
ग्राफ लगातार एक सरीखा नहीं रहेगा।
दूसरी शर्त यह है
कि केस-मृत्यु दर को मृत्यु दर के तुल्य नहीं माना जा सकता। किसी बढ़ती महामारी में
केस-मृत्यु दर मृत्यु दर को कम करके आँकती है। 35 दिन का उपरोक्त अनुमान थोड़ा आशावादी हो सकता है। हो सकता है
थोड़ा ज़्यादा समय लगे लेकिन दिशा तसल्ली देती है। मैंने अपने कुछ चिकित्सक दोस्तों
से यह भी सुना है कि अब सघन देखभाल की ज़रूरत वाले मरीज़ों की संख्या भी कम हो रही
है।
के के परीक्षण और
बड़े पैमाने पर उत्पादन में कई महीने लग जाएगे और यह तत्काल उपलब्ध नहीं हो पाएगा।
और शायद यह जन साधारण के लिए बहुत महँगा साबित हो।
भारत जैसे विशाल
देश के लिए सामूहिक प्रतिरोध (हर्ड इम्यूनिटी) हासिल करना दूर की कौड़ी है और यह
शायद एक-दो सालों में संभव न हो।
लेकिन इन दोनों
चीज़ों से पहले संभवत: जैव विकास इस वायरस की जानलेवा प्रवृत्ति से निपट लेगा।
इसमें कोई शक नहीं कि हमें क्वारेंटाइन को जारी रखना होगा और लक्षण-सहित मरीज़ों की
बढ़िया चिकित्सकीय देखभाल करनी चाहिए;
लेकिन लक्षण-रहित
व्यक्तियों को लेकर ज़्यादा हाय-तौबा करने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि
वही हमें बचाने वाले हैं। हमें एकाध महीने इन्तज़ार करके देखना चाहिए कि क्या यह
भविष्यवाणी सही होती है या नहीं। यदि यह गुणात्मक या मात्रात्मक रूप से सही साबित
होती है, तो
चिकित्सा विज्ञान के लिए अच्छी दूरगामी सीख होगी। उग्रता प्रबंधन की रणनीति
सार्वजनिक स्वास्थ्य नियोजन का एक अभिन्न अंग होना चाहिए। यह पहली या आखरी बार
नहीं है कि कोई नया वायरस प्रकट हुआ है। ऐसा तो होता रहेगा। सार्वजनिक स्वास्थ्य
के प्रबंधन हेतु जैव विकास की गतिशीलता को समझना निश्चित रूप से ज़रूरी है।(स्रोत
फीचर्स)
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