कोविड-19- वैकल्पिक
समाधान
वैश्विक
संकट का सामना
-भारत डोगरा
विश्व स्तर पर कोविड-19 के कारण कई देशों में लॉकडाउन लगने व इस कारण बढ़ते
आजीविका संकट व अन्य समस्याओं को ध्यान में रखते हुए भारत सहित विश्व के कई वरिष्ठ
वैज्ञानिकों ने इस वैश्विक संकट का सामना करने के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण वैकल्पिक
सुझाव दिए हैं।
आठ वरिष्ठ भारतीय
वैज्ञानिकों ने प्रतिष्ठित इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में एक समीक्षा लेख कोविड-19 पेंडेमिक - ए रिव्यू ऑफ दी करंट एविडेंस शीर्षक से लिखा
है। इन वैज्ञानिकों में डॉ. प्रणब चटर्जी, नाजिया नागी, अनूप अग्रवाल, भाबातोश दास, सयंतन बनर्जी, स्वरूप सरकार, निवेदिता गुप्ता और रमन आर. गंगाखेड़कर शामिल हैं। सभी आठ
वैज्ञानिक प्रमुख संस्थानों से जुड़े हैं। यह समीक्षा लेख वैश्विक संदर्भ में लिखा
गया है व विकासशील देशों की स्थितियों के लिए विशेष रूप से उपयुक्त है।
ऊपर से आए आदेशों
पर आधारित समाधान के स्थान पर इस समीक्षा लेख ने समुदाय आधारित,
जन- केन्द्रित उपायों में अधिक विश्वास जताया है। लॉकडाउन आधारित समाधान को एक अतिवादी
सार्वजनिक स्वास्थ्य का कदम बताते हुए इस समीक्षा लेख में
कहा है कि इसके लाभ तो अभी अनिश्चित हैं, पर इसके दीर्घकालीन नकारात्मक असर को कम नहीं आँकना चाहिए। ऐसे अतिवादी कदमों का सभी लोगों
पर सामाजिक, मनौवैज्ञानिक व आर्थिक तनाव बढ़ाने वाला असर पड़ सकता है, जिसका स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल असर
पड़ेगा। अत: ऊपर के आदेशों से जबरन लागू किए गए क्वारंटाइन के स्थान पर समुदायों व
सिविल सोसायटी के नेतृत्व में होने वाले क्वारंटाइन व मूल्यांकन की दीर्घकालीन
दृष्टि से कोविड-19 जैसे पेंडेमिक के समाधान में अधिक सार्थक भूमिका है।

इन वैज्ञानिकों ने
कहा है कि अब आगे के लिए विश्व को संक्रामक रोगों से अधिक सक्षम तरीके से बचाना है, तो हमें ऐसी तैयारी करनी होगी। जो केवल प्रतिक्रिया आधारित न हो; अपितु पहले से व
आरंभिक स्थिति में खतरे को रोकने में सक्षम हो। यदि ऐसी तैयारी विकसित होगी,
तो लोगों की कठिनाइयों व
समस्याओं को अधिक बढ़ाए बिना समाधान संभव होगा।
इस समीक्षा लेख में
दिए गए सुझाव निश्चय ही महत्त्वपूर्ण है व इन पर चर्चा भी हो रही है। मौजूदा
नीतियों को सुधारने में ये सुझाव महत्त्वपूर्ण हैं। जन- केन्द्रित,
समुदाय आधारित नीतियां अपनाकर बहुत-सी हानियों और क्षतियों
से बचा जा सकता है।
जर्मनी के
इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल माइक्रोबॉयोलॉजी एंड हाइजीन के प्रतिष्ठित वैज्ञानिक डा.
सुचरित भाकड़ी ने हाल ही में जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल को एक खुला पत्र लिखा है, जिसमें उन्होंने कोविड-19 के संक्रमण से निबटने के उपायों पर अति शीघ्र पुन: विचार
करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है। उन्होंने अपने पत्र में कहा है कि बहुत घबराहट की
स्थिति में जो बहुत कठोर कदम उठाए गए हैं,
उनका वैज्ञानिक औचित्य ढूँढ पाना कठिन है।
मौजूदा आंकड़ों पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा है कि किसी मृत व्यक्ति में कोविड-19 के वायरस की उपस्थिति मात्र के आधार पर इसे ही मौत का कारण
मान लेना उचित नहीं है।
इससे पहले वैश्विक
संदर्भ में बोलते हुए उन्होंने कहा कि कोविड-19 के विरुद्ध जो बेहद कठोर कदम उठाए गए हैं उनमें से कुछ
बेहद असंगत, विवेकहीन
और खतरनाक हैं, जिसके कारण
लाखों लोगों की अनुमानित आयु कम हो सकती है। इन कठेर कदमों का विश्व अर्थव्यवस्था
पर बहुत प्रतिकूल असर हो रहा है, जो अनगनित व्यक्तियों के
जीवन पर बहुत बुरा असर डाल रहा है। स्वास्थ्य देखभाल पर इन कठोर उपायों के गहन
प्रतिकूल प्रभाव पड़े हैं। पहले से गम्भीर रोगों से ग्रस्त
मरीज़ों की देखभाल में कमी आ गई है या उन्हें बहुत उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा
है। उनके पहले से तय ऑपरेशन टाल दिए गए हैं व ओपीडी बंद कर दिए गए हैं।

सेंटर फॉर
इन्फेक्शियस डिसीज़ रिसर्च एंड पॉलिसी, मिनेसोटा विश्वविद्यालय के निदेशक मिशेल टी. आस्टरहोम ने
वाशिंगटन पोस्ट में 21 मार्च 2020 के फेसिंग कोविड-19 रिएलिटी - ए नेशनल लॉकडाउन इज़ नो क्योर में कहा है कि
"यदि हम सब कुछ बंद कर देंगे तो बेरोजग़ारी बढ़ेगी,
डिप्रेशन आएगा, अर्थव्यस्था लडख़ड़ाएगी। वैकल्पिक समाधान यह है कि एक ओर
संक्रमण का कम जोखिम रखने वाले व्यक्ति अपना कार्य करते रहें,
व्यापार एवं औद्योगिक गतिविधियों को जितना सम्भव हो चलते रहने दिया जाए; लेकिन जो व्यक्ति संक्रमण की
दृष्टि से ज़्यादा जोखिम की स्थिति में हैं वे सामाजिक दूरी बनाए रखने जैसी तमाम
सावधानियाँ अपना कर अपनी रक्षा करें। इसके साथ स्वास्थ्य व्यवस्था की क्षमताओं को
बढ़ाने की तत्काल ज़रूरत है। इस तरह हम धीरे-धीरे प्रतिरोधक क्षमता का विकास भी कर
पाएँगे और हमारी अर्थव्यवस्था भी बनी रहेगी,जो हमारे जीवन का
आधार है।"
जर्मन मेडिकल
एसोशिएसन के पूर्व अध्यक्ष डॉ. फ्रेंक उलरिक मोंटगोमेरी ने कहा है,
"मैं लॉकडाउन का प्रशंसक नहीं
हूँ। जो कोई भी इसे लागू करता है, उसे यह भी बताना चाहिए कि पूरी व्यवस्था कब इससे बाहर निकलेगी। चूँकि हमें मानकर यह चलना है कि यह वायरस तो हमारे साथ लंबे समय तक रहेगा,
अत: मेरी चिंता है कि हम कब सामान्य जीवन की ओर लौट
सकेंगे।"
वर्ल्ड मेडिकल
एसोशिएसन के पूर्व अध्यक्ष डॉ. लियोनिद इडेलमैन ने हाल ही में वर्तमान संकट के
संदर्भ में कहा कि सम्पूर्ण लॉकडाउन से फायदे की अपेक्षा नुकसान अधिक होगा। यदि
अर्थव्यवस्था बाधित होगी, तो बेशक स्वास्थ्य रक्षा के संसाधनों में भी कमी
आएगी। इस तरह समग्र स्वास्थ्य व्यवस्था को फायदे की जगह नुकसान ही होगा।
जाने-माने
वैज्ञानिकों के इन बयानों का एक विशेष महत्त्व यह है कि अति कठोर उपायों के स्थान
पर ये हमें संतुलित समाधान की राह दिखाते हैं। विशेषकर समुदाय आधारित व
जन-केंद्रित समाधानों के जो सुझाव हैं वे बहुत महत्त्वपूर्ण हैं और उन पर अधिक
ध्यान देना चाहिए।
स्वास्थ्य क्षेत्र
की व्यापक चुनौतियाँ
हाल ही में
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने अस्पतालों को विशेष निर्देश दिए कि
गैर-कोविड गंभीर मरीज़ों के समुचित इलाज की व्यवस्था इन दिनों भी बनाए रखी जाए और
उसमें कोई कमी न आए। उनके इस निर्देश को इस संदर्भ में देखना चाहिए कि देश के
विभिन्न भागों से कोविड-19 के दौर में गैर-कोविड मरीज़ों की बढ़ती समस्याओं के समाचार
प्राप्त हो रहे हैं।
इतना ही नहीं विश्व
स्वास्थ्य संगठन ने भी दिशानिर्देश जारी किए थे कि सभी देशों में कोविड-19 के दौर में गैर-कोविड स्वास्थ्य समस्याओं व बीमारियों के
इलाज के लिए सुचारु व्यवस्था बनाए रखना कितना ज़रूरी है। चेतावनी के तौर पर विश्व
स्वास्थ्य संगठन ने यह भी बताया कि 2014-15 के एबोला प्रकोप के दौरान पश्चिम अफ्रीका में जब पूरा
स्वास्थ्य तंत्र एबोला का सामना करने में लगा था, तो खसरा,
मलेरिया, एचआईवी और तपेदिक से मौतों में इतनी वृद्धि हुई कि इन चार
बीमारियों से होने वाली अतिरिक्त मौतें एबोला से भी अधिक थीं। अत: यदि गैर-कोविड
गंभीर मरीज़ों की उपेक्षा हुई तो यह बहुत महँगा पड़ सकता है।
यदि हम आँकड़े
देखें तो,
जब से भारत में कोविड-19 की मौतों का सिलसिला शुरू हुआ तब से लेकर 1 जून तक कोविड-19 से लगभग 93 दिनों में 5500 मौतें हुर्इं। दूसरे शब्दों में तो कोविड-19 से प्रतिदिन औसतन 60 मौत हुर्इं। इसी दौरान अन्य कारणों से प्रतिदिन औसतन लगभग 27,000 मौतें हुर्इं। दूसरे शब्दों में इन मौतों की तुलना में
कोविड-19 मौतें मात्र 0.2 प्रतिशत हैं। इन आँकड़ों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि
स्वास्थ्य क्षेत्र की अन्य गंभीर समस्याओं पर समुचित ध्यान देते रहना कितना ज़रूरी
है।
आज विश्व स्तर पर
जो स्थिति है उसमें गैर-कोविड मरीज़ों की समस्याएं अनेक कारणों से बढ़ सकती हैं।

आपातकालीन स्थिति
में अस्पताल जाने के लिए किसी परिवहन के मिलने में लॉकडाउन के समय बहुत कठिनाई
होती है और कर्फ्यू या लॉकडाउन पास बनवाने में अच्छा खासा समय लगता है। अब अगर
जैसे-तैसे गैर-कोविड मरीज़ अस्पताल पहुँच भी जाता है तो कई बार पता लगता है कि
कोविड-19 की प्राथमिकताओं के बीच अन्य स्वास्थ्य सेवाएँ आधी-अधूरी
हैं या चालू ही नहीं हैं। यहाँ तक कि कुछ गंभीर मरीज़ों को कोविड प्राथमिकताओं के
कारण उपचार के बीच ही अस्पताल छोडऩे को कहा जाता है। कई मरीज़ों की गंभीर सर्जरी
को या अन्य चिकित्सा प्रक्रियाओं को स्थगित कर दिया जाता है। निर्धनता,
बेरोजग़ारी, भूख एवं कुपोषण ने बीमार पडऩे की संभावना को वैसे ही और
बढ़ा दिया है।
नौकरी खोने,
अनिश्चित भविष्य, बढ़ती निर्धनता और भूख व साथ ही अपने दोस्तों व रिश्तेदारों
से संपर्क न होने की स्थिति में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ बढ़ती हैं और इसके कारण
अन्य बीमारियों की संभावना बहुत बढ़ जाती है। ऐसी स्थितियों में हिंसक व्यवहार व
आत्महत्या करने के प्रयास की संभावना भी बढ़ जाती है।
कुछ स्थानों पर
आवश्यक जीवन रक्षक दवाइयों और चिकित्सा उपकरणों की आपूर्ति की शृंखला टूट जाती है।
यहाँ तक कि जब दवाओं की ऐसी गंभीर कमी नहीं होती तब भी स्थानीय स्तर पर,
विशेषकर दूर-दराज गाँवों में मरीज़ों को दवाएँ और चिकित्सा
साज-सामान नहीं मिलते हैं।
कुछ अस्पतालों में
बाह्य रोगी विभागों (ओपीडी) के बंद हो जाने के कारण गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से
पीड़ित रोगियों को समय पर रोगों के निदान एवं उपचार मिलने की संभावना भी कम हो
जाती है। इसके अतिरिक्त ब्लड बैंक में रक्त व रक्त दाताओं की कमी भी लॉकडाउन के
कारण हो जाती है। लॉकडाउन के चलते प्रवासी मज़दूर परिवारों को बच्चों सहित दूर-दूर
तक पैदल जाने की मजबूरी हुई। इस कारण उनमें स्वास्थ्य समस्याओं के बढऩे की संभावना
अधिक है।
इन समस्याओं से स्पष्ट है कि गैर-कोविड मरीज़ों पर
ध्यान देना कितना ज़रूरी है। साथ में इस ओर भी ध्यान देना ज़रूरी है कि अस्पतालों, डाक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों द्वारा इस व्यापक जि़म्मेदारी को निभाने के लिए
अनुकूल संसाधन और सुविधाएँ बढ़ाना भी आवश्यक है। सामान्य समय में भी देश के अनेक
भागों में स्वास्थ्य का ढांचा कमज़ोर होने के कारण गंभीर मरीज़ों को अनेक
कठिनाइयाँ आती रही हैं जो कोविड के दौर में तो निश्चय ही बढ़ गई हैं। (स्रोत
फीचर्स)
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सामयिक उपयोगी जानकारी देता आलेख ।
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