विलुप्त होती हुई भाषा का प्रतीक
भाषाओं को खत्म करने की एक मुहिम
जिस किसी भी देश में भाषाओं को जबरदस्ती थोपा गया है, वहाँ यह भी देखा गया है कि यदा-कदा उस भाषा को बोलने वालों ने अपना विरोध दर्ज कराया है और उस विरोध को दबाने/ खत्म करने के लिए सरकारों ने बर्बरता भी की है। जब आप जबरदस्ती किसी को अपनी मातृभाषा को भुलाकर, विदेशी भाषा को अपनाने का जोर डालेंगे, तो कुछ ना कुछ प्रतिकार (रिएक्शन) तो होगा ही, फिर आप (सरकार) उसी प्रतिकार को, हिंसा का नाम देकर, उसे दबाने के लिए और अधिक हिंसक हो जाएँगे। क्या यह उचित है? इस सब के पीछे अमेरिका जैसे बड़े देश में प्रचलित सैकड़ों भाषाओं को खत्म करने की एक मुहिम की ओर इशारा किया गया है। और केवल अमरीका ही क्यों, भारत जैसे सैकड़ों देशों में, पुरानी और लोकप्रिय भाषाओं की हत्या की जाती रही है, और शायद एक ही भाषा को बढ़ावा दिया जाता रहा है। जब किसी लोकप्रिय क्षेत्रीय भाषा का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, तो उसके साथ-साथ क्या समाप्त हो जाता है, कभी आपने सोचा है? मैं आपको बताता हूं -
• उसके साथ समाप्त होता है आपसी संवाद का
साधन।
• उसके साथ समाप्त होता है एक साथ जुड़ा रहने
का कारण।
• उसके साथ समाप्त होती है अपनी भावनाओं को
व्यक्त करने की स्वतंत्रता।
• उसके साथ समाप्त होती है अपने सुख और दुख को
व्यक्त करने की सहजता।
• उसके साथ समाप्त होते हैं उस भाषा के गीत,
गाने, दोहे, कहावतें और
व्याकरण।
बड़ी रूखी और उदासीन- सी लगती है विदेशी भाषा
अपनी कर्ण प्रिय भाषा को मरने ना दें
अपनी प्रिय भाषा को खोने का दर्द सबसे अधिक वृद्ध लोगों को होता है, जिनका पूरा जीवन उस भाषा के सहारे ही कटा है और जब अगली पीढ़ी को उस भाषा के साथ, घटिया और नए-नए प्रयोग करते हुए देखते हैं, या उस भाषा को इस्तेमाल करने से बचते हुए देखते हैं, तो उनके मन को बहुत ठेस पहुँचती है। हमारे देश की सबसे अधिक बोले जाने वाली हिन्दी भाषा के साथ भी वर्षों तक ऐसा ही अन्याय हुआ है। अब पिछले कुछ वर्षों से हिन्दी भाषा ने, अपनी, लगभग खोई हुई पहचान को, दोबारा से प्राप्त करना प्रारंभ कर दिया है। हम सभी हिन्दी- भाषी प्रदेशों के लोगों का यह कर्तव्य है कि हम अपनी इस कर्णप्रिय (कानों को अच्छी लगने वाली) भाषा को मरने ना दें। वृद्ध लोगों ने तो अपने प्रयास कर लिए, अब युवाओं के हाथों में वह चिड़िया है (हिन्दी जैसी अनेक भाषाएँ हैं), जिनका जीना और मरना, युवाओं के हाथों में है। 14 सितंबर 1949
को संविधान सभा ने एकमत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी। इस निर्णय के बाद, हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए, साल 1953 से पूरे भारत में 14 सितंबर को हर वर्ष हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। हिन्दी भारत की राजभाषा अवश्य बनी, परन्तु राष्ट्रीय भाषा बनते- बनते रह गई। हमारा प्रयास होना चाहिए कि अपनी मातृ भाषा हिन्दी को, राष्ट्रभाषा का दर्जा मिले।प्रसिद्ध कवि श्री गोपाल दास नीरज ने लिखा था-
‘जब
तलक जिंदा कलम है, हम तुम्हें मरने न देंगे।
खो दिया
हमने तुम्हें तो, पास अपने क्या रहेगा।
कौन फिर बारूद से, सन्देश
चन्दन का कहेगा।
मृत्यु
तो नूतन जनम है, हम तुम्हें मरने न देंगे।’
कितनी सुन्दर कविता है ये। क्या मैंने ठीक कहा? अगर हाँ, तो आइए अपनी प्रिय हिन्दी भाषा को मरने ना
दें। हिन्दी, विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा
है। भारत और अन्य देशों (जैसे फ़िजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम, नेपाल,
पाकिस्तान, कैनेडा और संयुक्त अरब अमीरात) में
भी, बड़ी संख्या में लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। हिन्दी को देवनागरी लिपि में लिखा जाता है। देवनागरी
लिपि में 11 स्वर और 33 व्यंजन हैं।
इसे बाईं से दाईं ओर लिखा जाता है। आइए
अपनी प्रिय मातृभाषा हिन्दी में काम करना (लिखना एवं पढ़ना) प्रारम्भ करें, कम से कम अपने हस्ताक्षर तो आप हिन्दी भाषा में कर ही सकते हैं।
सम्पर्कः बी-120, साकेत,
मेरठ
8 comments:
बहुत विस्तृत लेख जिसमें सभी सामग्री स्पष्ट और सटीक है। प्रेरक उद्धरण
अमरेश वशिष्ठ
सुंदर और प्रेरक लेख..
अपनी भाषा को बचाया जाना निहायत ही आवश्यक है, अच्छे आलेख की बधाई।
भाषा में अंतर्मन की चेतना समायी होती है।सर! लेख पढ़ते समय ऐसा लग रहा है कि स्वयं भाषा ही अपनी गाथा कहने हेतु आपकी कलम पर आसीन हो गई है।मेरी भी चाहत है कि कक्षा बारहवीं तक हर विद्यार्थी के बस्ते में कबीर, बिहारी, प्रसाद, महादेवी जी और निराला के साहित्य की सुरभि महकती रहे।
हृदय- स्पर्शी और वाचा की महत्वपूर्ण आवश्यकता को बहुत प्रभावपूर्ण ढंग से उकेरा है।
आशीष जी का लेख अच्छा है, मगर अमेरिका से जुड़ी उनकी शुरुआती कहानी किसी भी तरह से अमेरिका की पृष्ठभूमि पर नहीं उभरती। बिना पूर्ण जानकारी के हर कहानी को विदेशी कहानी कहने से बचना चाहिए।
वाह ! बहुत सुंदर एवं सारगर्भित लेख , धन्यवाद
सुंदर सारगर्भित आलेख। अपनी भाषा को मिटाना या रखना हमारे ही हाथ में है। हिन्दी की स्थिति पहले से थोड़ी बेहतर है। हमें ही उसके अस्तित्व को बनाए रखना होगा। सुदर्शन रत्नाकर
Post a Comment