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Sep 1, 2022

अनकहीः योजनाओं के मकड़जाल में देश

डॉ. रत्ना वर्मा

समग्र विकास के लिए देश में बहुत सारी योजनाएँ चलाई जाती हैं। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो केंद्र से लेकर राज्य और ब्लॉक स्तर से लेकर पंचायत स्तर तक चलाई जा रही इन योजनाओं का उद्देश्य देश की जनता की खुशहाली, तरक्की और उनके जीवन स्तर को ऊँचा उठाना तथा क्षेत्र का विकास करना ही होता है। इनमें से कुछ योजनाओं का लाभ सीधे जनता को मिलता है और कुछ किसी क्षेत्र विशेष के विकास के लिए होती हैं, वह भी परोक्ष या अपरोक्ष रूप में जनता से ही जुड़ी होती है। लेकिन जब हम इन योजनाओं के बनने से लेकर उनसे मिलने वाले फायदे तक की बात करते हैं,  तो अंत तक आते आते पता चलता है कि बहुत सारी योजनाओं ने कागजों में ही दम तोड़ दिया है, अनेक योजनाएँ आरंभ तो होती हैं;  पर भ्रष्टाचार, घोटालों और कमीशनखोरी के जाल में फँसकर आधी अधूरी रह जाती हैं और बहुत सी योजनाएँ बनते- बनते सरकारें बदल जाती हैं। फायदा उठा ले जाते है बीच के लोग और जनता है कि देखती रह जाती है फिर एक नई योजना के इंतजार में।

जब सरकार इन योजनाओं की रूपरेखा बनाती है तो कागजों में इसे देखकर लगता है कि जिनके लिए या जिस भी क्षेत्र के विकास के लिए यह योजना बनाई गई है, उसके पूरी होते ही चारों ओर खुशहाली छा जाएगी, जनता अपनी चुनी हुई सरकार पर गर्व करेगी। परंतु आजादी के 75 साल बीत जाने के बाद भी हम गर्व के साथ यह नहीं कह पाते कि हमने वे सारी खुशियाँ पा ली हैं, जिनका सपना आजाद भारत ने देखा था।

हम यह नहीं कहते कि विकास के नाम पर देश में कुछ भी नहीं हुआ है हुआ है,  गुलाम भारत और आजादी के 75 साल के भारत में जमीन- आसमान का अंतर आया है;  लेकिन बात अंतर की नहीं है बात इन 75 वर्षों में देश सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्तर पर जो उपलब्धि दिखाई देनी चाहिए, वह नहीं दिखाई देती। विकास के नाम पर विनाश ही अधिक नजर आता है। हमने विकास के नाम पर अपनी संस्कृति, सभ्यता, जीवन मूल्य और पर्यावरण को इतना अधिक नुकसान पहुँचाया है कि समूची धरती ही खतरे में दिखाई देने लगी है। विकास के नाम पर बनाई गई ऐसी योजनाओं का क्या औचित्य, जो भ्रष्टाचार और कालाबाजारी को बढ़ावा देती हों, जो गरीबी और बेरोजगारी पैदा करती हो?

योजनाकार जमीनी हकीकत से दूर बंद कमरे में बैठकर कागज़ों पर ये योजनाएँ बनाते हैं ; पर जैसे ही इन्हें लागू करने की बात आती है अनेक अड़चनों का अम्बार खड़ा हो जाता है परिणाम योजनाएँ कागजों पर ही दम तोड़ देती हैं। सन् 1951 को भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संसद में पहली पंचवर्षीय योजना की शुरूआत की थी। जिसका मुख्य उद्देश्य देश की आर्थिक स्थिति में सुधार लाना तथा देशवासियों के जीवन स्तर में सुधार लाना है। इस तरह अब तक 13 पंचवर्षीय योजनाएँ भारत में चलाई जा चुकी हैं। कृषि, उद्योग, ग्राम विकास, शिक्षा, घरेलू उद्योग को बढ़ावा देने जैसी अनेक योजनाएँ प्रत्येक पाँच साल के लिए बनाते हैं। प्रत्येक पाँच साल बाद जब नई योजना बनती है, तो पिछली योजना को भुला दिया जाता है। बगैर कोई समीक्षा के उसे बंद भी कर दिया जाता है।

दु:खद स्थिति ये है कि आजादी के बाद से जो भी योजना बनती है, उसमें राजनीतिक दल ऐसी योजनाओं को लागू करना पसंद करते हैं, जो उन्हें वोट दिला सके। इसी प्रकार केंद्र सरकार प्रधानमंत्री योजना का नाम देकर अनेक योजनाएँ शुरू करती है और राज्य सरकार मुख्यमंत्री के नाम से योजना शुरू कर मतदाताओं को अपने- अपने पक्ष में करने का प्रयास करती रहती हैं। सरकार अनेक कल्याणकारी योजनाएँ चलाकर गरीब जनता को अपने पक्ष करके राजनीति के दाँव- पेंच खेलती है। इस राजनीतिक उठापटक में जनता पिसती चली जाती है और इस उम्मीद में कभी इस दल को कभी दूसरे दल को अपना बहुमूल्य वोट देकर भ्रम जाल में फँसी रहती है।

जो भी योजनाएँ बनाई जाएँ, उनको लागू किया जाए  तथा उसकी समीक्षा भी की जाए। किसी भी योजना को सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करके लागू न किया जाए। जिस वर्ग के कल्याण के लिए  योजना बनाई गई है, उस तक योजना  का लाभ पहुँचना चाहिए।

7 comments:

विजय जोशी said...

आदरणीया,
बहुत सटीक और सारगर्भित बात कही है आपने. हमारे यहां योजना (Planning) उसके सही तरह लागू (Execution) हो पाने के बीच आज भी वही अंतर है जो पूर्व प्रधानमंत्री ने कहा था - 100 पेसे घटकर रह जाते हैं 15 पैसे. शेष सब भ्रष्टाचार की भेंट.
हालांकि डिजिटल युग में केंद्रिय योजनाओं में कम हुआ है, पर प्रदेश स्तर पर वही अत्याचार रूपी भ्रष्टाचार.
देश के सामने यही यक्ष प्रश्न सुरसा के समान खड़ा है. और अब तो फ्री बीज़ की लालची राजनीति से ग्रस्त देश बर्बादी की ओर अग्रसर है.
आज़ादी के उपरांत की सबसे बड़ी नासूरी समस्या पर साहस के साथ कलम चलाने के लिये हार्दिक बधाई एवं आभार. सादर

Anonymous said...

डॉ रत्ना जी आपकी जन साधारण की समस्याओं के प्रति संवेदनशीलता सराहनीय है। काफी हद तक आपके द्वारा उठाई गया समस्यायें दूर हो सकती हैं, यदि वित्तीय साधन सभी प्रकार की परमिशन मिलने के बाद उपलब्ध कराये जाएं।

Anonymous said...

हर बार की तरह सटीक और निर्भीकतापूर्वक कही गई बात। सरकारें योजनाएँ तो ज़ोरदार तरीक़े से बनाती हैं। लेकिन क्रियान्वयन होने का समय ही नहीं आता। जब तक भ्रष्टाचार है ऐसा ही होता रहेगा। बहुत सुंदर सम्पादकीय। बधाई रत्ना जी। सुदर्शन रत्नाकर

srijan said...
This comment has been removed by the author.
Sadhna Madan said...

आदरणीया
सारगर्भित लेख , देशप्रेम -भाव को प्रदर्शन या नारेबाजी से नहीं अपितु देश के शक्तिबोध और सौंदर्यबोध को संवारने के लिए कथनी-करनी एक हो पर बल दिया है।
प्रशंसनीय प्रयास।

शिवजी श्रीवास्तव said...

सारगर्भित आलेख,सच है योजनाएँ बहुत बनती हैं पर उनका क्रियान्वयन या तो होता नहीं,या सही ढंग से नहीं होता,लोक कल्याणकारी योजनाओं के बनाने के पीछे वोट बैंक की मनोवृत्ति कार्य कर रही होती है इसीलिए हर वर्ग का विकास नही हो पाता।सुंदर आलेख।

रत्ना वर्मा said...

आप सबने सराहा और मेरे विचारों से सहमत हुए इसके लिए आप सभी का हार्दिक आभार... शुक्रिया