- डॉ. शिप्रा मिश्रा
डरते हैं हम अपनी आँखें खोलने से
डरते हैं हम अपनी पाँखें खोलने से
उस घूरने वाले से हम काँप जाते हैं
उसके गंदे इरादे हम भाँप जाते हैं
हमारे थरथराने पर वह ठहाके लगाता है
अपने मंसूबों को साजिशों से सजाता है
बेजान तितलियों के पंख वह मसल देता है
हमारी मासूम खिलखिलाहट में दखल देता है
हमारा चहकना उसे अच्छा नहीं लगता
वह एक दरिंदा हमें सच्चा नहीं लगता
उसकी मुट्ठियों में शिकारियों के जाल हैं
वहशी बेखौफ शैतानों से बड़े बाल है
जी चाहता है नाखूनों से चिथड़े कर दें
उसके कलूटे जिस्म के टुकड़े कर दें
इन भेड़ियों को बनाया क्यों भगवान ने
या इंसानियत ही छोड़ दी यहाँ इंसान ने
जज अंकल!! इन्हें लटका दो फाँसी पर
अरे!कुछ तो तरस खाओ मुझ रुआँसी पर
तिल-तिल मरने का दर्द क्या होता है
बेजुबान सिसकती रातें सर्द क्या होता है
हम नन्ही चिड़िया हमें बेखौफ उड़ने दो
हमारे ख्वाबों में चाँद-सितारे जड़ने दो
हमें मचलने दो हमें भी खिलने दो
इन्द्र-धनुष के रंगों में हमें घुलने दो
हम तक जो पहुँचे हाथ वो जल जाए
हमारी जलती रोशनी से वो सँभल जाए
उससे कह दो हम अबला या कमजोर नहीं
हमें छू सके उन बाजुओं में इतना जोर नहीं
3 comments:
अच्छी कविता-बधाई।
आभार आदरणीय🙏
दिल को झकझोर देनेवाली कविता । बहुत बहुत बधाई।
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