1. मनीऑर्डर
घर का
बँटबारा और बोलचाल बंद हुए कई वर्ष बीत चुके थे।
"पाँच हजार रुपये चाहिए।" एक दिन
बड़े भाई की पत्नी बोली-"माँ बीमार है। गाँव मनीऑर्डर करना है।"
बड़े भाई ने कुछ नहीं कहा। शान्त भाव से पैसे दे
दिए। पैसे लेकर बड़े भाई की पत्नी फिर सीधे अपने देवर-देवरानी के घर पहुँच गई। वह
उनके आर्थिक संकट से विचलित थी। पैसे दिए तो दोनों संकोच से गड़ गए।
"लेकिन दीदी!" देवरानी ने कुछ कहना
चाहा। देवर भी हैरान था।
"कुछ भी नहीं सुनूँगी।" बड़े भाई की
पत्नी बोली-"मुझे पता है छोटे इन दिनों एक-एक पैसे के लिए परेशान है। तुम भी
अभी पेट से हो। बच्चे छोटे-छोटे हैं। मैं अब चलती हूँ।"
यह सब कुछ बडे़ भाई ने देख लिया, परन्तु बोले कुछ नहीं। सम्भवतः वह अच्छी तरह जानते थे कि छोटा भाई आजकल
घोर विपत्ति में है। घर में खाने-पीने, ओढ़ने की किल्लत है।
"मनीऑर्डर करा दिया?" रात को बड़े भाई ने अपनी पत्नी से पूछा।
"जी हाँ!" पत्नी बोली-"आज
दोपहर में करा दिया था।"
"ठीक है। समय-समय पर इसी तरह मनीऑर्डर
करा दिया करो।" बड़े भाई लगभग रो पड़े। कमरे से निकलते हुए बोले-"अपना ही
खून है।"
पत्नी सब कुछ समझ गई। वह अपने आँखों से आँसू
बहने से रोक न सकी।
वह लड़की है। वह जानती थी कि वह लड़की है। घर वाले
भी जानते थे कि वह लड़की है। इसके अलावा आसपास के लोग भी जानते थे कि वह लड़की है।
गली-मोहल्ला, दुनिया-जहान भी जानते थे कि वह लड़की है।
कहाँ से आती है?
क्या खाती है?
क्या पीती है?
क्या पहनती है?
क्या ओढ़ती है?
अकसर उसके कानों में कुछ-कुछ एहसास कराने वाला
यह वाक्य पहुँचता, "याद रख तू लड़की है।"
एक दिन उसने सोचा कि यह वाक्य-"याद रख तू
लड़की है,
मेरा मनोबल बढ़ा रहा है या घटा रहा है?"
खैर, इस बारे में
उसने ज्यादा न सोचा। बस पढ़ाई, खूब पढ़ाई करने में ही मगन रही
और...!
और आज देखिए कि आज के सारे अखबारों के पहले
पन्ने पर बस वही छायी है! आखिर... सिविल सेवा परीक्षा में उसने प्रथम स्थान
प्राप्त किया है।
उसके माता-पिता तो समझ ही नहीं पा रहे थे कि यह
हो क्या रहा है? बधाई और शुभकामनाएँ देने वालों का ऐसा तांता
लगा कि... फिलहाल अब वे बहुत खुश हैं।
पत्रकारों ने इण्टरव्यू में
पूछा-"दिव्यदर्शिनी जी बधाई! लेकिन इतना बड़ा काम आपने किया कैसे?"
वह बोली-"बस यही याद रखती रही कि मैं एक
लड़की हूँ।"
बातचीत अभी भी चलती रहती है। लोग कहते हैं-"वाकई, वह एक लड़की है।"
कुछ लोग कहते हैं-"भाई, हमने देखा है-उसका आना-जाना, खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना।"
सभी लड़कियाँ सड़क किनारे बैठ गईं। कुछ इधर देखने
लगीं,
कुछ उधर देखने लगीं। कुछ आपस में वार्तालाप करने लगीं, तो कुछ अपने सामने उगी घास नोंचने लगीं। इस तरह पन्द्रह-बीस मिनट व्यतीत
हुए।
वहाँ से थोड़ी दूरी पर स्थित बिल्डिंग से कुछ
लड़के,
बहुत ध्यान से उनकी गतिविधियाँ देख रहे थे। एक लड़के ने गम्भीरता से
कहा, "उन्हें देखकर क्या लग रहा है?"
"यही कि..." दूसरा लड़का बोला,
"सब हमारे कॉलेज की लड़कियाँ हैं।"
"और..."
"यही कि सब न्यारी हैं, प्यारी हैं, खूबसूरत हैं!"
"और..."
"और, बस यही
कि...उनकी चाल-ढाल में आज कुछ सुस्ती दिख रही है। उनके चेहरे भी कुछ थके-थके से लग
रहे हैं। हालांकि ये सब तितलियों की तरह उड़ान भरने वाली और हमेशा पढ़ाई-लिखाई की
बात करने वाली लड़कियाँ है, परन्तु उन्हें देखकर आज ऐसा लग
रहा है कि उनका अन्तर्मन कुछ-कुछ व्यथित हैं। सम्भवतः कहीं कोई जहरीली घास उग आई
है, जिन्हें शायद ये नोंचना चाह रही हैं।"
"और..."
"और बस यही कि...हमें तुरन्त जहरीली घास
तक पहुँचना होगा! ताकि हम उन्हें जड़ से उखाड़ सके! नोंच सके! फेंक सके।"
"तो चलो..."
फिर अभावग्रस्त घर की होनहार लड़कियों ने अपनी जो
दारुण-दास्तान सुनाईं, उन्हें सुनकर लड़कों की आँखें
लाल हो गईं। शरीर की नसें तनने लगीं। खून में उतार-चढ़ाव आने लगा। सब लड़के एक-दूसरे
की ओर देखने लगे, परन्तु चुप्प रहना ही बेहतर समझा!
उनमें से वही पहले लड़के ने संयमित स्वर में कहा,
"गुंजन, आप सभी लड़कियाँ प्लीज... कल वहाँ
अवश्य आइए।"
फिर अपने दोस्तों से बोला,
"दोस्तों, जिन्दगी में फिर महसूस हो रहा
है कि हॉकी का असली मैच कल है। कॉलेज में खेला तो क्या खेला! कल कुछ जहरीली घास उखाड़-फेंककर
ही दम लेंगे!"
दूसरे दिन सभी लड़कियाँ जिला समाज कल्याण विभाग
में थीं। साथ में बीस-बाईस लड़के भी, जिनके हाथों
में हॉकियाँ थीं। कुछ लड़के इधर-उधर बैठकर, तो कुछ दीवारों के
सहारे खड़े होकर कार्यालय का कामकाज देखने लगे।
अलग-अलग वर्गों की छात्रवृत्ति का चेक बाँट रहे
बाबू,
अपनी ओर मुस्कुराते लड़कों को देखकर बार-बार पानी गटकते! एक प्रकार
से उनकी तो घिग्घी ही बंद हो गई थी। आने-जाने वाले कर्मचारी भी लड़कों को हैरत से
देख रहे थे, पर उन्होंने शान्त रहना ही उचित समझा।
इस प्रकार विगत तीन माह तक निरन्तर टरकाने के
बाद,
आज मात्र आधे घण्टे के अन्दर सभी लड़कियों के हाथों में उनकी
छात्रवृत्ति का चेक था। चेक मिलने के पश्चात ऊर्जा का ऐसा संचार हुआ कि उनके खिले
हुए चेहरे निस्संदेह देखने योग्य थे।
4 comments:
इससे मेरा उत्साह बढ़ा,
बहुत-बहुत धन्यवाद।
खेमकरण 'सोमन' जी की तीनों लघुकथाएँ उत्कृष्ट हैं।वस्तु एवं शिल्प दोनो ही दृष्टियों से लघुकथाएँ महत्त्वपूर्ण हैं।इतनी सशक्त लघुकथाओं हेतु खेमकरण जी को बधाई।
हार्दिक धन्यवाद सर।
अति उत्तम !!
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