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Sep 1, 2022

चिंतनः जीवन के कुछ पल

 – साधना मदान

खुराक

आज सुबह उठते ही अलमस्त हवाओं में साँस लेने ही लगी थी कि पुरानी बात चाय की प्याली की तरह जीभ पर लहराने लगी। ये बातें कभी कड़वी दवा बनकर , कभी तपते अंगारों सी बैचेन कर देती हैं मुझे, पर सामने बैठे हंसमुख और ज़िंदादिल शख्स को देखकर मैं फिर संभली। मैने मन को आज सुबह ही हिदायत दे दी कि याद वह जो सकून बने, बातें वे जो खुशी की खुराक बन मेरे तन-मन को एक खुशहाल और हरियाली दुनिया की सैर करा दें। अब  मेरा मन फिर से कनखियों से हंसा भी और मुस्कराया भी।

पुड़िया

काला घना अँधेरा, हवा की चुप्पी मानो पेड़ों पर मौन की बेड़ियाँ डाल कहीं गुम हो गई है। लोहे के बड़े काले गेट के अंदर सितारा अपने पिता के साथ गेट की सलाखों के पीछे किसी का बेसब्री से इंतजार कर रही है। पीछे से चीखने कराहाने की आवाज़ें जैसे चुप्पी में टूटते काँच की तरह बिखरने लगी थी। सितारा रोना भी चाहती है और चीखना भी कि कब आएगा वह …..वह आ क्यूँ नहीं रहा। माँ को तड़पते देखने से अच्छा है कि पुड़िया खाए और फिर दो दिन तक दर्द से राहत मिल जाए‌। पिता अपनी लाल और सूजी आँखों से सितारा से जैसे कह रहे थे कि राहत माँ को मिलेगी या हमें।

मुलाकात

हरियाली में पत्तों की महक और पिघलती बर्फ की ठंडक  पहाड़ी रास्तों पर तेज़ दौड़ती कार से जैसे रुक जाने को कह रही थी। फिर हरियाली ने हवा के इक झोंके से कहा कारें दौड़ती ही रहती हैं, रुकती क्यों नहीं। रुकतीं तो देवदार को निहारती, चीड़ की खनकती आवाज़ को सुनती। धीरे- धीरे रिसते हुए पानी की मिट्टी को हाथ में लेकर उसकी ठंडक महसूस करतीं। पर कार अभी भी केवल रास्ते नापती अपने गंतव्य या सिर्फ़ दौड़ और होड़ में ही भाग रही है। हवा का झोंका अब कुछ इतराया और हंसते हुए कहने लगा कि मुलाकात का सलीका भी हर कोई नहीं जानता।

निगाहें

आज सुबह ही आँखे मलती योग्या अपना चश्मा ढूँढने लगी। मैंने कहा ...आज इतनी जल्दी कैसे तुम्हारी सुबह हो गई? कुछ चुस्त आवाज़ में सुनाई दिया 9 बजे मीटिंग है। थोड़ा जूस और पपीता खाने के बाद उँगलियाँ फिर काले की बोर्ड पर ऐसे हिलने लगीं जैसे पहले कभी दाल बीनते हाथ दाएँ से बाएँ घूम जाते थे।

मैं सोचने लगी ये कमसिन उम्र न जाने कौन-कौन से आँकड़ों को ढूँढती हुई नफ़ा नुकसान की रिपोर्ट तैयार करने में सक्षम हैं , उसी पल याद आया गुजरा ज़माना , जब यही उम्र बलखाती कमर, वेणी जैसी चोटी लहराते हुए मंदिर की घंटियों पर झूमती, बालों में फूल लगाते हुए इठलाती थी। वक्त बदला है, नज़ाकत के अंदाज़ भी बदले।तभी योग्या की मिश्री जैसी मीठी आवाज़ में सुनाई दिया मेरी जीन्ज़, शर्ट और कार की चाभी टेबल पर रख दो । दोस्तों के साथ देर रात तक पार्टी में शामिल होना है। मैं भी मुस्करा दी कि निगाहें कम से कम की बोर्ड और स्क्रीन से तो हटेंगी।

इनाम

बर्फ़ से ढकी पहाड़ियों को बार-बार निहारते हुए  मैं न जाने क्यूँ रिजोर्ट की हरियाली पर ही टकटकी लगाए रही। फूलों का हिलना, अपनी रंगीन अदा से हवा में झूम जाना जैसे किसी मनचले गीत की याद दिला रहा हो.. फूलों की पत्तियों को सहलाते हुए मैं फिर हैरान थी कि यह छोटी-छोटी पौध भी कितनी कोमल है। ये क्यारियां नन्हे बच्चों जैसे मुझे कह रही थीं कि हमें भी तो देखो बड़े जतन से बड़े हो रहे हैं।अभी हमारा रहनुमा आएगा हमें फिर से आकार देगा, बढ़ने की दिशा देगा, तभी पेड़ों की हिलती झालरें देख मैं सोचने लगी ये भला किसकी कीर्ति के गीत गा रही हैं? तभी मैंने  पेड़ की सबसे ऊँची डाल से पूछ लिया इतनी खुशी का, मस्ती का राज़ क्या है…..एक साथ कई लताएँ और वल्लरियाँ मुस्करा कर अपनी पलकों को झुकाने लगीं। मुझे समझते देर न लगी कि आज इनकी मुलाकात अपने प्रिय से हुई है। अचानक रुम से बाहर सामान ले जाते लड़के को देख याद आया कि अब हरियाली और चोटियों की सुनहरी यादों वाली गठरी समेटने का समय आ गया है। तभी मेरे साथियों ने सामान उठाने वाले, खाना बनाने वाले और कमरा साफ़ करने वाले को इनाम देते हुए अलविदा कहा। रिसेप्शन पर रिजोर्ट की प्रशंसा में कमेंट लिखते हुए मेरी कलम रिजोर्ट के माली पर कविता लिखने लगी, तभी कलम रोककर सोचने लगी यहाँ का माली भी तो किसी बड़े इनाम का हकदार है।

ओ! नादान

यूँ ही सुबह खुली हवा में चाय पीते -पीते सोचने लगी कि आज घर में बिखरी चीज़ों को सहेज दूँगी। बस आवश्यक काम खत्म करते ही उलझ गई कपड़ों की अलमारी से, बस अब तो कपड़े इकट्ठा करती तो वहीं पड़ी असंख्य फ़ोटोज़ भी सहेज दीं। वहीं साथ में पड़े दोहर, चादरें और मेकअप का सामान भी दया की भीख सी माँगता गुहार कर हिलने लगा। मैंने भी मुसकरा कर सब सहेज दिया। मुझे अच्छा लगा सबको यथास्थान रखना। दो दिन बाद  दालों के पैकेट समेट रही थी तो सोचा उस दिन सहेज कर रखे सामान को समेट भी दूँ। होश और जोश दोनों प्रबल उछाल भर ही रहे थे कि सोचा समेटा है तो सीमित भी कर दूँ।  अब सार- सार गहि करो तो आवश्यक चीज़ें रखी रहीं बाकी सहयोग के आवेग से दूसरों को देने या बाँटने के भाव से  बैग में भर दीं कि, लगाव, मोह, ममत्व और मेरी है, मेरी चीज़ें सब को तिलांजलि दे  बाँट दीं। दो एक दिन तो हलके पन का एहसास था पर फिर वही व्यर्थ प्रलाप जैसे अभी तो कपड़े नए ही थे, न जाने ये भिखारी भी बेच देते हों चीज़ें, सामान रख ही लेती, क्या था बैग में ही तो पड़ा रहता… बस ऐसा व्यर्थ संकल्प मुझे अपनी चपेट में लेने ही वाला था कि मेरे अंतर की एलईडी ने मुझे फिर से रोशन किया कि ममत्व नहीं महत्त्व का मूल्य समझ… क्योंकि महत्त्व देने और बाँटने का है, इकट्ठा करना तो ममत्व है… ओ नादान

हिलोरे

दादी तख्तपोश पर बैठे- बैठे ही आस- पास बिखरे सामान को समेट ही रहीं थीं कि मैं उनके लिए गुड़ वाला दलिया कटोरे में लेकर आ गई। अपनी दादी की मुसकान और मुख की मिठास को महसूस करना मुझे सबसे प्रिय लगता।  दादी की महकती साड़ी और कसकर बंधी चोटी में उनके व्यक्तित्त्व का सिमटना समाया हुआ था। दादी की न तो किसी वार्ता में, न आवाज़ में, न वाणी में, न बिस्तर पर पड़ी सिलवटों में, न हाव- भाव में और न रिश्तों की माला में …कहीं भी तो बिखराव नहीं था। दादी बुढ़ापे के सच्चे नुस्खे जान चुकी हैं। अरे! यह क्या मैं फिर से दादी को अपने में समाने ही लगी थी कि देखते ही देखते चाचा, चाची, सौम्य भाई और भाभी के संग उनके जुड़वा बेटे और बुआ की दोनों बेटियाँ… हम सभी दादी के वट वृक्ष की छांव में बैठ चुके थे। सारे दिन के हवाले की आवाजें और दादी के ओठों की मुसकान जैसे नसीहतों से परे, अपने ज़माने के हवाले से दूर। हम सबके काम, तौर-तरीकों को सराहाते हुए, हर एक को महत्त्व देते हुए सबकी प्रशंसा के पत्ते अपने स्पर्श और स्नेह से बिखेरते हुए ऐसे लग रहीं थीं मानो छतनार पेड़ अपनी लताओं की झालर में सभी को ठंडी हवा के हिलोरे दे रहा हो।  शायद दादी आज भी सब संग जुड़ने की जड़ों को अपने झुर्रियों वाले हाथों से पकड़े हुए हैं।

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