- ज़ुबैर सिद्दिकी
जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग जैसे शब्द
अब हमारे लिए अनजाने नहीं हैं। बढ़ते हुए वैश्विक तापमान से निकट भविष्य में होने
वाली समस्याओं के संकेत दिखने लगे हैं। इनको सीमित करने के लिए समय-समय पर सम्मेलन
आयोजित होते रहे हैं। हाल ही में ग्लासगो में ऐसा सम्मेलन हुआ था। आम तौर पर इन
सम्मेलनों में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, वनों की कटाई,
पारिस्थितिक तंत्र आदि मुद्दे सुर्खियों में रहते हैं; लेकिन कुछ ऐसे क्षेत्र हैं,
जिन पर चर्चा नहीं होती है। हाल ही में कुछ शोधकर्ताओं ने
हमारे खानपान के तरीकों से पृथ्वी पर होने वाले प्रभावों का अध्ययन किया है।
तथ्य यह है कि विश्व में लगभग दो अरब लोग
(अधिकतर पश्चिमी देशो में) अधिक वज़न या मोटापे से ग्रस्त हैं। इसके विपरीत करीब 80
करोड़ ऐसे लोग (अधिकतर निम्न व मध्यम आमदनी वाले देशों में) भी हैं जिनको पर्याप्त
पोषण नहीं मिल रहा है। 2017 में अस्वस्थ आहार से विश्व स्तर पर सबसे अधिक मौतें
हुई थीं। राष्ट्र संघ खाद्य व कृषि संगठन के अनुसार जनसंख्या में वृद्धि और
पश्चिमी देशों के समान अधिक से अधिक भोजन का सेवन करने के रुझान को देखते हुए
अनुमान है कि वर्ष 2050 तक मांस, डेयरी और अंडे के उत्पादन
में लगभग 44 प्रतिशत वृद्धि ज़रूरी होगी।
यह स्वास्थ्य के साथ-साथ पर्यावरण की भी समस्या
है। गौरतलब है कि वर्तमान औद्योगीकृत खाद्य प्रणाली वैश्विक ग्रीनहाउस उत्सर्जन के
लगभग एक-चौथाई के लिए ज़िम्मेदार है। इसके लिए विश्व भर के 70 प्रतिशत मीठे पानी
और 40 प्रतिशत भूमि का उपयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसके लिए इस्तेमाल किए
जाने वाले उर्वरक नाइट्रोजन और फॉस्फोरस चक्र को बाधित करते हैं और नदियों तथा
तटों को भी प्रदूषित करते हैं।
वर्ष 2019 में 16 देशों के 37 पोषण विशेषज्ञों, पारिस्थितिकीविदों और अन्य विशेषज्ञों के एक समूह - लैंसेट कमीशन ऑन फूड,
प्लेनेट एंड हेल्थ - ने एक रिपोर्ट जारी की है जिसमें पोषण और
पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए व्यापक आहार परिवर्तन का आह्वान किया गया है।
लैंसेट समूह द्वारा निर्धारित आहार का पालन करने वाले व्यक्ति को लचीलाहारी कहा
जाता है जो अधिकतर दिनों में तो पौधों से प्राप्त आहार लेता है और कभी-कभी थोड़ी
मात्रा में मांस या मछली का सेवन करता है।
इस रिपोर्ट ने निर्वहनीय आहार पर ध्यान तो
आकर्षित किया है; लेकिन यह सवाल भी उठा है कि क्या यह सभी के लिए व्यावहारिक है। इस संदर्भ
में कुछ वैज्ञानिक पोषण और आजीविका को नुकसान पहुँचाए बिना स्थानीय माहौल के हिसाब
से पर्यावरणीय रूप से निर्वहनीय आहार का परीक्षण करने का प्रयास कर रहे हैं।
खानपान से होने वाला उत्सर्जन
खाद्य उत्पादन से होने वाला ग्रीनहाउस उत्सर्जन
इतना अधिक है कि वर्तमान दर पर सभी राष्ट्र गैर-खाद्य उत्सर्जन को पूरी तरह खत्म
भी कर देते हैं, तब
भी तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित नहीं किया जा सकता है। खाद्य
प्रणाली उत्सर्जन का 30 से 50 प्रतिशत हिस्सा तो केवल जंतु सप्लाई चेन से आता है।
इसके अतिरिक्त कुछ विशेषज्ञों के अनुसार 2050 तक शहरीकरण और जनसंख्या वृद्धि के
कारण भोजन सम्बंधी उत्सर्जन में 80 प्रतिशत तक वृद्धि होने की सम्भावना है।
यदि सभी लोग अधिक वनस्पति-आधारित आहार का सेवन
करने लगें और अन्य सभी क्षेत्रों से उत्सर्जन को रोक दिया जाए, तो वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री
सेल्सियस तक सीमित करने के लक्ष्य को पूरा करने की 50 प्रतिशत उम्मीद होगी। यदि
भोजन प्रणाली में व्यापक बदलाव के साथ आहार में भी सुधार किया जाता है तो यह
संभावना बढ़कर 67 प्रतिशत हो जाएगी।
यूके-आधारित वेलकम संस्थान द्वारा वित्तपोषित EAT-लैंसेट कमीशन ने एक मज़बूत केस प्रस्तुत किया। पोषण विशेषज्ञों ने संपूर्ण
खाद्य पदार्थों से बना एक बुनियादी स्वस्थ आहार तैयार किया जिसमें कार्बन उत्सर्जन,
जैव-विविधता हानि और मीठे पानी, भूमि, नाइट्रोजन तथा फॉस्फोरस के उपयोग को शामिल किया गया। इस प्रकार से टीम ने
आहार की पर्यावरणीय सीमाएँ निर्धारित की। टीम के अनुसार इन पर्यावरणीय सीमाओं का
उल्लंघन करने का मतलब इस ग्रह को मानव जाति के लिए जीवन-अयोग्य बनाना होगा।
इस आधार पर उन्होंने एक विविध और मुख्यतः
वनस्पति आधारित भोजन योजना तैयार की है। इस योजना के तहत औसत वज़न वाले 30 वर्षीय
व्यक्ति के लिए 2500 कैलोरी प्रतिदिन के आहार के हिसाब से एक सप्ताह में 100 ग्राम
लाल मांस खाने की अनुमति है। यह एक आम अमेरिकी की खपत से एक-चौथाई से भी कम है। यह
भी कहा गया है कि अत्यधिक परिष्कृत खाद्य पदार्थ (शीतल पेय, फ्रोज़न फूड और पुनर्गठित मांस, शर्करा और वसा) के
सेवन से भी बचना चाहिए।
आयोग का अनुमान है कि इस प्रकार के आहार के
ज़रिए पारिस्थितिकी तंत्र को क्षति पहुँचाए बिना 10 अरब लोगों को अधिक स्वस्थ भोजन
दिया जा सकता है। कई वैज्ञानिकों ने EAT-लैंसेट
द्वारा तैयार किए गए आहार प्लान की सराहना की है; लेकिन एक
सवाल यह भी है कि क्या यह आहार कम संसाधन वाले लोगों के लिए भी पर्याप्त पोषण
प्रदान करेगा। जैसे वाशिंगटन स्थित ग्लोबल एलायंस फॉर इम्प्रूव्ड न्यूट्रिशन के
टाय बील का निष्कर्ष है कि यह आहार 25 वर्ष से ऊपर की आयु के व्यक्ति के लिए आवश्यक
जिंक का 78 प्रतिशत और कैल्शियम का 86 प्रतिशत ही प्रदान करता है और प्रजनन आयु की
महिलाओं को आवश्यक लौह का केवल 55 प्रतिशत प्रदान करता है।
इन आलोचनाओं के बावजूद, यह आहार पर्यावरण सम्बंधी चिंताओं को केंद्र में रखता है। रिपोर्ट के
प्रकाशन के बाद विश्व भर के जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक इस आहार को सभी तरह के लोगों
के लिए व्यावहारिक बनाने पर अध्ययन कर रहे हैं।
समृद्ध आहार
कई पोषण शोधकर्ता जानते हैं कि अधिकतर उपभोक्ता
आहार सम्बंधी दिशानिर्देशों का पालन नहीं करते। कई वैज्ञानिक लोगों को यह संदेश
देने के कारगर तरीके तलाश रहे हैं। कुछ पोषण वैज्ञानिक स्कूलों में बगैर हो-हल्ले
के एक निर्वहनीय आहार का परीक्षण कर रहे हैं, जिसमें मौसमी
सब्ज़ियों और फ्री-रेंज मांस (जिन जंतुओं को दड़बों में नहीं रखा जाता) जैसे
पारंपरिक और निर्वहनीय खाद्य की खपत को बढ़ावा दिया जाता है।
इस कार्यक्रम में प्राथमिक विद्यालय के 2000
छात्रों के स्कूल लंच का विश्लेषण करने के लिए कंप्यूटर एल्गोरिदम का उपयोग किया
गया है। जिससे उन्हें आहार को अधिक पौष्टिक और जलवायु के अनुकूल बनाने के तरीकों
के सुझाव मिले, जैसे मांस की मात्रा को कम करके फलियों और
सब्ज़ियों की मात्रा में वृद्धि। शोधकर्ताओं ने बच्चों और उनके अभिभावकों को लंच
में सुधार की सूचना दी; लेकिन उनको इसका विवरण नहीं दिया
गया। इसकी ओर बच्चों ने भी ध्यान नहीं दिया और पहले के समान भोजन की बर्बादी भी
नहीं हुई। इस कवायद के माध्यम से शोधकर्ता बच्चों में टिकाऊ आहार सम्बंधी आदतें
विकसित करना चाहते हैं, जो आगे भी जारी रहें। वैसे यह आहार EAT-लैंसेट से काफी अलग है। यह EAT-लैंसेट आहार को
स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर तैयार करने के महत्व को रेखांकित करता है।
इसी तरह से कुछ शिक्षाविद और रेस्तरां भी कम आय
वाली परिस्थिति में मुफ्त आहार का परीक्षण कर रहे हैं। इस संदर्भ में जॉन हॉपकिंस
युनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन के शोधकर्ताओं ने इस तरह का आहार लेने वाले 500
लोगों का सर्वेक्षण किया और पाया कि 93 प्रतिशत लोगों ने इस आहार को काफी पसंद
किया। देखा गया कि प्रत्येक मुफ्त आहार की कीमत 10 अमेरिकी डॉलर है जो वर्तमान में
यूएस फूड स्टैम्प द्वारा प्रदान की जाने वाली राशि का पाँच गुना है। इससे पता चलता
है कि यदि आप आहार में व्यापक बदलाव करें तो पर्यावरण पर एक बड़ा प्रभाव डाल सकते
हैं;
लेकिन इसमें सांस्कृतिक और आर्थिक बाधाएँ रहेंगी।
पेट पर भारी
इस मामले में उपलब्ध डैटा का उपयोग करते हुए
आई.आई.टी. कानपुर के फूड सिस्टम्स वैज्ञानिक अभिषेक चौधरी, जो EAT-लैंसेट टीम का हिस्सा भी रहे हैं, और उनके सहयोगी स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के वैभव कृष्णा ने
भारत के सभी राज्यों के लिए आहार डिज़ाइन तैयार करने के लिए स्थानीय पानी, उत्सर्जन, भूमि उपयोग और फॉस्फोरस एवं नाइट्रोजन
उपयोग के पर्यावरणीय डैटा का इस्तेमाल किया। इस विश्लेषण ने एक ऐसे आहार का सुझाव
दिया, जो पोषण सम्बंधी आवश्यकताओं को पूरा करता है, खाद्य-सम्बंधी उत्सर्जन को 35 प्रतिशत तक कम करता है और अन्य पर्यावरणीय
संसाधनों पर दबाव भी नहीं डालता है। लेकिन आवश्यक मात्रा में ऐसा भोजन उगाने के
लिए 35 प्रतिशत अधिक भूमि की आवश्यकता होगी या उपज बढ़ानी होगी। इसके अलावा भोजन
की लागत 50 प्रतिशत अधिक होगी।
भारत ही नहीं स्वस्थ और टिकाऊ आहार अन्य स्थानों
पर भी महँगा है। EAT-लैंसेट द्वारा प्रस्तावित
विविध आहार जैसे नट, मछली, अंडे,
डेयरी उत्पाद आदि को लाखों लोगों तक पहुँचाना असंभव है। यदि खाद्य
कीमतों के हालिया आँकड़ों (2011) को देखा जाए तो इस आहार की लागत एक सामान्य
पौष्टिक भोजन की लागत से 1.6 गुना अधिक है।
कई अन्य व्यावहारिक दिक्कतों के चलते फिलहाल
वैज्ञानिकों को कम और मध्यम आय वाले देशों में पर्यावरण संरक्षण से अधिक ध्यान
पोषण प्रदान करने पर देना चाहिए। वर्तमान में एक समिति के माध्यम से EAT-लैंसेट के विश्लेषण पर एक बार फिर विचार किया जा रहा है।
कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि गरीब देशों में
वहनीय आहार की खोज समुदायों और किसानों के साथ मिलकर काम करने से ही संभव है।
खाद्य प्रणाली से जुड़े वैज्ञानिकों को लोगों को बेहतर आहार प्रदान करने के लिए
स्थानीय परिस्थितियों से तालमेल बनाने के तरीके खोजने की भी आवश्यकता है। (स्रोत
फीचर्स)
3 comments:
Right
महत्त्वपूर्ण आलेख
good thought
Post a Comment