काले मेघा बरस रे
- परमजीत कौर ‘रीत’
1
काले मेघा बरस रे!, अब
तो म्हारेदेस।
तपती धरती छोड़कर, मत
जा रे! परदेस।।
मत जा रे! परदेस, अरे!
निष्ठुर निर्मोही।
जाने कितनी बार...
बाट थी तेरी जोही।
भरदे मन-से ताल, तृप्त
हों नदिया नाले।
निभा धरा से
प्रीत... 'रीत’ जा मेघा काले।।
2
भर-भर मुट्ठी रेत
की, आँधी
-संग तूफान।
लाए मेघा साथ
में.. रखना अपना ध्यान।।
रखना अपना ध्यान, टपकती
बूँदें बोलें ।
लिये दामिनी संग, गरजते
मेघा डोलें ।
'रीत’
धरा के जीव, रहें ऐसे में डर-डर ।
गरजें बरसें साथ, मेघ
आषाढ़ी भर-भर ।।
3
जब -जब बरसी बादली, खिला
धरा का रंग।
ओढी चूनर प्रीत की, मन
में जगी उमंग।।
मन में जगी उमंग, दिखा
जो सावन आया।
अम्बर दर्पण देख, धरा
ने रूप सजाया।
झरझर झरता नेह, थाम
वह पाए कब-कब।
बदली बनकर प्रीत, 'रीत’
वो बरसी जब-जब।।
4
थम-थम बादल बरसते, छम-छम
बरसें नैन।
बूँदें, बूँदों
में मिली, चित ने पाया
चैन।।
चित ने पाया चैन, हृदय
के भेद छिपाकर।
पर कह डाली पीर, नैन
से नीर
बहाकर।
बदले पल-पल रंग, कि
मन यह कैसा पागल।
बिलकुल ऐसे 'रीत’,
बरसते थम-थम बादल।।
सम्प्रति- अध्यापन
एवं स्वतंत्र लेखन
सम्पर्क:
श्रीगंगानगर, (राजस्थान) 335001
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