बादलों को
छूकर..
- सुदर्शन
रत्नाकर
मैं कालिदास तो नहीं हूँ
जो मेघों से कहूँ
मेरा संदेश तुम तक ले जाएँ
लेकिन इन बादलों को छूकर
तुम्हारे पास से जो हवा आती है
उस हवा में
तुम्हारे प्यार की महक
मुझे अपने पास
तुम्हारे होने का एहसास करा जाती है
और इस एहसास का होना
मेरे लिए कुछ कम तो नहीं है।
जब भी आसमान में
बादल गहराते हैं
तुम्हारे पास होने का यह एहसास
मेरे भीतर से
मेरे 'मैं’को ' तुमसे ’ स्वयं ही जोड़
लेता है।
मैं कालिदास की नायिका की तरह
तुम्हारे साथ पहाड़ों पर
उछलती -कूदती
भीग तो नहीं सकती
हाँ-मेरा मन भीग -भीग जाता है
भीतर तक।
माथे पर आ गई
गीली लटों को हटाते हुए
तुम्हारे हाथ का स्पर्श पाती हूँ।
और बिन छुए, तुम्हारे
हाथों की छुअन को,
अपने मन में समेट लेती हूँ।
तब मैं तुम्हारे अनकहे, अनछुए
स्पर्श से बँधी
सारे स्वर्ग को धरती पर उतार लेती हूँ।
मैं कालिदास या कालिदास की नायिका न सही
तुम्हारे अस्तित्व को अपने अस्तित्व में
समेट लेने वाली
कल्पना तो हूँ न।
1 comment:
बहुत सुंदर
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