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Dec 5, 2020

प्रेरक- ज़िंदगी की शाम

-निशांत

कुछ सप्ताह पहले मुझे अपने फूफाजी के गुज़र जाने का दुखद समाचार मिला। उससे पहले मेरे पिताजी के एकमात्र चचेरे भाई चल बसे। बीते कुछ सालों में मेरा परिवार कितना सिकुड़ गया! कई दफा ऐसा भी हुआ कि परिवार में जिन्हें कम दिनों का मेहमान मानते थे वे बने रहे और भले-चंगे सन्बन्धी चल बसे। इसे विधि की विडम्बना मानकर दिलासा दे बैठते हैं कि परिवार के बड़े-बूढ़े तमाम रोगों और कमज़ोरियों के बाद भी बने रहते हैं और घर का कोई नौजवान पता नहीं किस बहाने से सबसे दूर चला जाता है।

पिछले पाँच सालों में मेरे दोनों बच्चों का और मेरी बहन के घर में बच्चों का जन्म हुआ। लेकिन अब परिवार बढ़ता कम है और सिकुड़ता ज़्यादा है। यह कोई मेरे घराने की ही बात नहीं है। कमोबेश, हर परिवार में यही हो रहा होगा।

मैं दिल्ली में नौकरी करने के कारण अपने गृहनगर भोपाल कम ही जा पाता हूँ। मोबाइल फोन पर तो माता-पिता से संपर्क बना ही रहता है। साल में एक-दो बार जब वहाँ जाता हूँ या जब वे यहाँ आते हैं तब अनायास ही कितने ही परिजनों और परिचितों के गुज़र जाने का समाचार मन में उदासी भर देता है। सबसे बुरा तो यह सोचकर लगता है कि माता-पिता अपने हमउम्र लोगों को एक-एक कर साथ छोड़ते देखते रहते हैं और इसका उनकी मनःस्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।

अपनी अनश्वरता का बोध होने पर मनुष्यों में गहन आतंरिक परिवर्तन आता है हाँलांकि यह आत्मविकास का कोई मापदंड नहीं है। जीवन-मरण तो सब विधि के हाथ है पर जीवन की नश्वरता का विचार मानव मन में मृत्यु का अस्वीकरण, भय, क्रोध, मनोव्यथा, खेद, और अंततः अपराजेय शत्रु के हाथों मिलनेवाली पराजय को स्वीकार करने की भावना को जन्म देता है।

अपने बड़े कुनबे में मैंने ऐसे बहुत से बुजुर्ग देखे हैं जो उदास ख़ामोशी से अपने अंत समय के करीब पहुँचते जाते हैं। इंटरनेट पर मृत्यु का सामना कर रहे लोगों के कई फोरम भी मैंने तलाशे। उनमें मैंने यह पाया कि अधिकांश व्यक्ति गंभीर रोगों से ग्रस्त रहते हैं और उनका अपना कोई भी नहीं है। ये वृद्धाश्रम या होस्पिस में अपने जैसे लोगों के बीच अपने आखिरी दिन काट रहे हैं। शुक्र है कि भारत में हालात अभी इतने खराब नहीं हैं; लेकिन हाल में ही हमने ऐसे कई समाचार सुने, जिनमें अकेले पड़ गए बुजुर्गों के साथ बड़ी बुरी गुज़री। किसी-किसी मामले में तो पड़ोसियों को भी उनके चल बसने का पता कई दिन बाद चला।

मेरे एक विदेशी ब्लॉगर मित्र ने ऐसे ही एक स्थान पर कई साल प्रशामक उपचार (palliative care) का काम किया है और अपनी एक पोस्ट में उसने ऐसे व्यक्तियों से होनेवाली चर्चा के निष्कर्षों को लिखा था। अपने बीत चुके जीवन के बारे में पूछे जाने पर वे सभी बहुधा एक जैसी ही शब्दावली और थीम में अपने मन का गुबार निकालने लगते हैं। जिन बातों का ज़िक्र वे आमतौर पर करते हैं वह ये हैं:

1. काश मैंने जीवन अपने मुताबिक़ जिया होता  यह अफ़सोस करने की सबसे आम बात है। जब लोगों को यह लगने लगता है कि उनका जीवन लगभग पूर्ण हो चुका है और वे पीछे मुड़कर देखते हैं तो उन्हें स्पष्ट दिखता है कि उनकी बहुत सी इच्छाएँ और सपने तो कभी पूरे नहीं हुए। ज्यादातर लोग तो अपनी ज़िंदगी में तो अपना सोचा हुआ आधा भी साकार होता नहीं देख सके और उन्हें अपने मन को यह समझाना बहुत कठिन था कि इस सबका सम्बन्ध उनके चुनाव से था। ऐसे में यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि जीवन में जो कुछ भी अच्छा मिले उसके महत्त्व को सराहा और स्वीकार किया जाए। जब स्वास्थ्य गिरने लगता है तब तक तो बहुत देर हो चुकती है। अच्छा स्वास्थ्य स्वयं में बहुत बड़ी स्वतंत्रता है जिसका भान कम लोगों को ही होता है। जीवन की संध्या में स्वास्थ्य के बिगड़ जाने पर उसमें सुधार की बहुत गुंजाइश नहीं होती।

2. काश मैंने इतनी मेहनत नहीं की होती  अधिकतर पुरुष यह खेद व्यक्त करते हैं। उन्हें अफ़सोस होता है कि वे अपने बच्चों और परिवार को अधिक समय नहीं दे सके। पश्चिमी देशों में परिवार में गहरा भावनात्मक जुड़ाव नहीं होना भी इसका एक कारण है। कई स्त्रियाँ भी यही खेद व्यक्त करतीं हैं। अभी मैं देखता हूँ कि भारत में 1990 के बाद काम में जी जान से जुटी युवा पीढ़ी अभी उम्र के इस दौर में नहीं पहुँची है कि उसे हाड़तोड़ मेहनत करने का अफ़सोस होने लगे पर वह दिन बहुत अधिक दूर भी नहीं हैं। जैसे-जैसे जीवन अधिक मशीनी होता जाएगा, संवेदनाएँ शून्य होती जाएँगी और आत्मिक शांति और संतोष के विकल्प या तो समाप्त हो जाएँगे या उन्हें अपनाना अत्यंत कठिन हो जाएगा। इसलिए अपने जीवन में आज से ही कार्य में संतुलन स्थापित कर लेना चाहिए।

3. काश मुझमें स्वयं को व्यक्त करने की शक्ति होती  बहुत से लोग दूसरों को नाराज़ नहीं करने के लिए अपने मन को मसोसते रहते हैं। परिणामस्वरूप, वे दोयम दर्जे की ज़िंदगी बिताते हैं और उन्हें वह सब नहीं मिल पाता जो उनका हक होता है। ऐसे लोग भीतर ही भीतर घुलते जाते हैं और अवसाद का शिकार हो जाते हैं। मैंने ऐसे कई वृद्धजनों को देखा हैं जिनमें दूसरों के लिए बेतरह कड़वाहट होती है और कोई भी उनके पास फटकना नहीं चाहता। यदि आप लोगों से वार्तालाप और सम्बन्धों में पूरी ईमानदारी बरतते हैं तो स्वार्थी लोग भले आपसे नाता तोड़ लें, पर बहुत से लोगों से आपके स्वस्थ समबन्ध स्थापित होते हैं। अब या तो आप हमेशा दूसरों के मन मुताबिक़ चलते रहें या दूसरों के कहने में आकार अपने सुख-शांति को तिलांजलि देते रहें।

4. काश मैं अपने दोस्तों से कभी दूर न जाता  बहुत से लोग दोस्ती-यारी कायम रखने और उसे निभाने को तरज़ीह नहीं देते। एक उम्र गुज़र जाने के बाद सभी अकेले पड़ जाते हैं। बच्चे अपनी-अपनी राह पर चल देते हैं। परिवार में कोई भी दो घड़ी साथ नहीं बैठना चाहता। ऐसे में करीबी लोगों की कमी खलने लगती है। पुराने दोस्त सब यहाँ-वहाँ हो जाते हैं और उनकी खोज-खबर रखना कठिन हो जाता है। वृद्ध व्यक्तियों को साहचर्य की बड़ी गहरी आवश्यकता होती है। जो व्यक्ति पूरी तरह अकेले रह जाते हैं, उन्हें अपने दोस्त नहीं होने का गम सालता रहता है। आनेवाले कठिन समय में तो सभी को अकेलेपन की दिक्कतों से दो-चार होना पड़ेगा; इसलिए सभी को अपनी दोस्ती-यारी बरकरार रखनी चाहिए। वर्तमान जीवन-शैली में अपने दोस्तों से कटकर रह जाना एक सामान्य बात हो ग है। उम्र के आख़िरी दौर में आर्थिक या सामाजिक हैसियत का उतना महत्त्व नहीं होता जितना व्यक्ति के सम्बन्धों का होता है। सिर्फ़ प्यार और अपनापन ही बुज़ुर्गों को संयत रखने में सक्षम है।

5. काश मैंने खुद को खुश होने के मौके दिए होते  यह भी बड़ी अजीब बात है। अंत समय तक भी बहुत से लोग यह नहीं जान पाते कि खुश रहना हमारे ऊपर ही निर्भर करता है। मैं अपने आसपास बहुत से वृद्धजन को देखता हूँ जो बड़ी बोझिल ज़िन्दगी जी रहे हैं। ऐसे लोग हमेशा पुराने पैटर्न पर चलते हुए अपनी ज़िन्दगी बिताते रहे। किसी भी बदलाव का उन्होंने हमेशा विरोध किया। सारी दुनिया आगे चली ग और वे पीछे रह गए। बाहरी तौर पर तो वे सभी को यह जताते रहे कि उनके भीतर आत्मिक संतोष है पर वास्तविकता में वे खिन्नता से भरे हुए थे। उनका मन भी यह करता रहता था कि वे भी बाहर की रौनक में अपना मन बहलाएँ पर कुछ तो संकोच और कुछ अकड़ के कारण वे लोगों में घुलने-मिलने और आनंदित होने के अवसर चूकते रहे। दूसरी ओर मैं ऐसे भी कुछ बुज़ुर्ग देखता हूँ जो जोश और जिंदादिली से भरपूर हैं और नयी पीढ़ी के साथ कदम से कदम मिलकर चलते हैं। ऐसे लोग यह जानते हैं कि जीवन और खुशियाँ भी हमें विकल्पों के रूप में मिलती हैं। पूरे होश-ओ-हवास, ईमानदारी, और बुद्धिमानी से अपने हिस्से की खुशियाँ बटोर लेना ही सबके हित में है अन्यथा मृत्युपर्यंत खेद होता रहेगा। (हिन्दी ज़ेन से)


1 comment:

Sudershan Ratnakar said...

हर बार की तरह प्रेरणादायी।