कोई भी घातक
महामारी हमेशा टिकी नहीं रहती। उदाहरण के लिए 1918 में फैले इन्फ्लूएंज़ा ने तब दुनिया के लाखों लोगों की जान
ले ली थी लेकिन अब इसका वायरस बहुत कम घातक हो गया है। अब यह साधारण मौसमी फ्लू का
कारण बनता है। अतीत की कुछ महामारियाँ लंबे समय भी चली थीं। जैसे 1346 में फैला ब्यूबोनिक प्लेग (ब्लैक डेथ)। इसने युरोप और
एशिया के कुछ हिस्सों के लगभग एक तिहाई लोगों की जान ली थी। प्लेग के बैक्टीरिया
की घातकता में कमी नहीं आई थी। सात साल बाद इस महामारी का अंत संभवत: इसलिए हुआ था
क्योंकि बहुत से लोग मर गए थे या उनमें इसके खिलाफ प्रतिरक्षा विकसित हो गई थी।
इन्फ्लूएंज़ा की तरह 2009 में फैले H1N1 का रोगजनक सूक्ष्मजीव भी कम घातक हो गया था। तो क्या
सार्स-कोव-2
वायरस भी इसी रास्ते चलेगा?
कुछ वैज्ञानिकों का
कहना है कि अब यह वायरस इस तरह से विकसित हो चुका है कि यह लोगों में आसानी से फैल
सके। हालांकि यह कहना अभी जल्दबाज़ी होगी लेकिन मुमकिन है कि यह कम घातक होता
जाएगा। शायद अतीत में झांकने पर इसके बारे में कुछ कहा जा सके।
यह विचार काफी
पुराना है कि समय के साथ धीरे-धीरे संक्रमण फैलाने वाले रोगजनक कम घातक हो जाते
हैं। 19वीं सदी के चिकित्सक थियोबाल्ड स्मिथ ने पहली बार बताया था
कि परजीवी और मेज़बान के बीच ‘नाज़ुक संतुलन’ होता है; समय के साथ रोगजनकों की घातकता में कमी आनी चाहिए क्योंकि
अपने मेज़बान को मारना किसी भी सूक्ष्मजीव के लिए हितकर नहीं होगा।
1980
के दशक में शोधकर्ताओं ने इस विचार को चुनौती दी। गणितीय जीव विज्ञानी रॉय एंडरसन
और रॉबर्ट मे ने बताया कि रोगाणु अन्य लोगों में तब सबसे अच्छे से फैलते हैं ,जब उनका मेज़बान बहुत सारे रोगाणु बिखेरता या छोड़ता है। यह स्थिति अधिकतर तब बनती है, जब
मेज़बान अच्छे से बीमार पड़ जाए। इसलिए रोगजनक की घातकता और फैलने की क्षमता एक
संतुलन में रहती है। यदि रोगजनक इतना घातक हो जाए कि वह बहुत जल्द अपने मेज़बान की
जान ले ले ,तो आगे फैल नहीं पाएगा। इसे ‘प्रसार-घातकता संतुलन’ कहते हैं।
दूसरा सिद्धांत
विकासवादी महामारी विशेषज्ञ पॉल इवाल्ड द्वारा दिया गया था जिसे ‘घातकता का सिद्धांत’ कहते हैं। इसके अनुसार, कोई रोगजनक जितना अधिक घातक होगा उसके फैलने की संभावना
उतनी ही कम होगी। क्योंकि यदि व्यक्ति संक्रमित होकर जल्द ही बिस्तर पकड़ लेगा
(जैसे इबोला में होता है) तो अन्य लोगों में संक्रमण आसानी से नहीं फैल सकेगा। इस
हिसाब से किसी भी रोगजनक को फैलने के लिए चलता-फिरता मेज़बान चाहिए,
यानी रोगजनक कम घातक होते जाना चाहिए। लेकिन सिद्धांत यह भी
कहता है कि प्रत्येक रोगाणु के फैलने की अपनी रणनीति होती है,
कुछ रोगाणु उच्च घातकता और उच्च प्रसार क्षमता,
दोनों बनाए रख सकते हैं।
इनमें से एक रणनीति
है टिकाऊपन। जैसे चेचक का वायरस शरीर से बाहर बहुत लंबे समय तक टिका रह सकता है।
ऐसे टिकाऊ रोगाणु को इवाल्ड ‘बैठकर प्रतीक्षा करो’ रोगजनक कहते हैं। कुछ घातक संक्रमण अत्यंत गंभीर मरीज़ों से
पिस्सू,
जूं, मच्छर सरीखे वाहक जंतुओं के माध्यम से फैलते हैं। हैज़ा जैसे
कुछ संक्रमण पानी से फैलते हैं। और कुछ संक्रमण बीमार या मरणासन्न लोगों की देखभाल
से फैलते हैं, जैसे
स्टेफिलोकोकस बैक्टीरिया संक्रमण। इवाल्ड के अनुसार ये सभी रणनीतियाँ रोगाणु को कम
घातक होने से रोक सकती हैं।
लेकिन सवाल है कि
क्या यह कोरोनावायरस कभी कम घातक होगा? साल 2002-03 में फैले सार्स को देखें। यह संक्रमण एक से दूसरे व्यक्ति
में तभी फैलता है, जब
रोगी में संक्रमण गंभीर रूप धारण कर चुका हो। इससे फायदा यह होता था कि संक्रमित
रोगी की पहचान कर उसे अलग-थलग करके वायरस के प्रसार को थामा जा सकता था। लेकिन
सार्स-कोव-2 संक्रमण की शुरुआती अवस्था से ही अन्य लोगों में फैलने लगता है। इसलिए यहाँ
वायरस के फैलने की क्षमता और उसकी घातकता के बीच सम्बन्ध ज़रूरी नहीं है। लक्षण-विहीन संक्रमित
व्यक्ति भी काफी वायरस बिखराते रहते हैं। इसलिए ज़रूरी नहीं कि मात्र गंभीर बीमार हो
चुके व्यक्ति के संपर्क में आने पर ही जोखिम हो।
लेकिन अब भी
निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि सार्स-कोव-2 किस ओर जाएगा। वैज्ञानिकों ने वायरस के वैकासिक परिवर्तनों
का अवलोकन किया है जो दर्शाते हैं कि सार्स-कोव-2 का प्रसार बढ़ा है, लेकिन घातकता के बारे में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा
सकता। लॉस एलामोस नेशनल लेबोरेटरी की कंप्यूटेशनल जीव विज्ञानी बेट्टे कोरबर
द्वारा जुलाई माह की सेल पत्रिका में प्रकाशित पेपर बताता है कि अब वुहान में मिले
मूल वायरस की जगह उसका D614G उत्परिवर्तित संस्करण ले रहा है। संवर्धित कोशिकाओं पर किए
गए अध्ययन के आधार पर कोरबर का कहना है कि उत्परिवर्तित वायरस में मूल वायरस की
अपेक्षा फैलने की क्षमता अधिक है। बहरहाल, कई शोधकर्ताओं का कहना है कि ज़रूरी नहीं कि संवर्धित
कोशिकाओं पर किए गए प्रयोगों के परिणाम वास्तविक परिस्थिति में लागू हों।
कई लोगों का कहना
है कि सार्स-कोव-2 वायरस कम घातक हो रहा है। लेकिन अब तक इसके कोई साक्ष्य नहीं हैं। सामाजिक
दूरी,
परीक्षण, और उपचार बेहतर होने के कारण प्रमाण मिलना मुश्किल भी है; क्योंकि अब सार्स-कोव-2 का परीक्षण सुलभ होने से मरीज़ों को इलाज जल्द मिल जाता है,
जो जीवित बचने का अवसर देता है। इसके अलावा परीक्षणाधीन
उपचार मरीज़ों के लिए मददगार साबित हो सकते हैं। और जोखिमग्रस्त या कमज़ोर लोगों को
अलग-थलग कर उन्हें संक्रमण के संपर्क से बचाया जा सकता है।
सार्स-कोव-2 वायरस शुरुआत में व्यक्ति को बहुत बीमार नहीं करता। इसके
चलते संक्रमित व्यक्ति घूमता-फिरता रहता है और बीमार महसूस करने के पहले भी
संक्रमण फैलाता रहता है। इस कारण सार्स-कोव-2 के कम घातक होने की दिशा में विकास की संभावना कम है।
कोलंबिया
युनिवर्सिटी के विंसेंट रेकेनिएलो का कहना है कि वायरस में होने वाले परिवर्तनों
के कारण ना सही, लेकिन
सार्स-कोव-2
कम घातक हो जाएगा, क्योंकि एक समय ऐसा आएगा जब बहुत कम लोग ऐसे बचेंगे जिनमें
इसके खिलाफ प्रतिरक्षा न हो। रेकेनिएलो बताते हैं कि चार ऐसे कोरोनावायरस अभी
मौजूद हैं जो अब सिर्फ सामान्य ज़ुकाम के ज़िम्मेदार बनते हैं जबकि वे शुरू में काफी
घातक रहे होंगे।
इन्फ्लूएंज़ा वायरस
से तुलना करें तो कोरोनावायरस थोड़ा अधिक टिकाऊ है और इस बात की संभावना कम है कि
यह इंसानों में पहले से मौजूद प्रतिरक्षा के खिलाफ विकसित होगा। इसलिए कई
विशेषज्ञों का कहना है कि कोविड-19 से बचने का सुरक्षित और प्रभावी तरीका है टीका। टीकों के
बूस्टर नियमित रूप से लेने की ज़रूरत होगी; इसलिए नहीं कि वायरस तेज़ी से विकसित हो रहा है बल्कि इसलिए
कि मानव प्रतिरक्षा क्षीण पड़ने लग सकती है।
बहरहाल,
विशेषज्ञों के मुताबिक हमेशा के लिए ना सही,
तो कुछ सालों तक तो वायरस के कुछ संस्करण बने रहेंगे।
हाल ही में किए गए
अध्ययनों से कोविड-19 से होने वाली मौतों और वायु प्रदूषण के सम्बन्ध का पता चला है। शोधकर्ताओं के अनुसार वैश्विक स्तर पर
कोविड-19 से होने वाली 15 प्रतिशत मौतों का सम्बंध लंबे समय तक वायु प्रदूषण के
संपर्क में रहने से है। जर्मनी और साइप्रस के विशेषज्ञों ने संयुक्त राज्य अमेरिका
और चीन के वायु प्रदूषण, कोविड-19 और सार्स
(कोविड-19 जैसी एक अन्य साँस सम्बंधी बीमारी) के स्वास्थ्य एवं रोग
के आकड़ों का विश्लेषण किया है। यह रिपोर्ट कार्डियोवैस्कुलर रिसर्च नामक
जर्नल में प्रकाशित हुई है।
इस डैटा में विशेषज्ञों ने वायु में सूक्ष्म कणों की उपग्रह
से प्राप्त जानकारी के साथ पृथ्वी पर उपस्थित प्रदूषण निगरानी नेटवर्क का डैटा
शामिल किया ताकि यह पता लगाया जा सके कि कोविड-19 से होने वाली मौतों के पीछे वायु
प्रदूषण का योगदान किस हद तक है। डैटा के आधार पर विशेषज्ञों का अनुमान है कि
पूर्वी एशिया में,
जहाँ हानिकारक प्रदूषण का स्तर सबसे अधिक है, वहाँ कोविड-19 से होने वाली 27 प्रतिशत मौतों का दोष वायु
प्रदूषण के स्वास्थ्य पर हुए असर को दिया जा सकता है। यह असर युरोप और उत्तरी
अमेरिका में क्रमश: 19 और 17 प्रतिशत पाया गया। पेपर के लेखकों के अनुसार कोविड-19
और वायु प्रदूषण के बीच का यह सम्बंध बताता है कि यदि हवा साफ-सुथरी होती तो इन
अतिरिक्त मौतों को टाला जा सकता था।
यदि कोविड-19 वायरस और वायु प्रदूषण से लंबे समय तक संपर्क
एक साथ आ जाएँ तो स्वास्थ्य पर, विशेष रूप से ह्रदय
और फेफड़ों पर,
काफी हानिकारक प्रभाव पड़ सकते हैं। टीम ने यह भी बताया कि
सूक्ष्म-कणों के उपस्थित होने से फेफड़ों की सतह के ACE2 ग्राही की सक्रियता बढ़ जाती है और ACE2 ही
सार्स-कोव-2 के कोशिका में प्रवेश का ज़रिया है। यानी मामला दोहरे हमले का है -
वायु प्रदूषण फेफड़ों को सीधे नुकसान पहुंचाता है और ACE2
ग्राहियों को अधिक सक्रिय कर देता है जिसकी वजह से वायरस का कोशिका-प्रवेश आसान हो
जाता है।
अन्य वैज्ञानिकों का मत है कि हवा में उपस्थित सूक्ष्म-कण
इस रोग को बढ़ाने में एक सह-कारक के रूप में काम करते हैं। एक अनुमान है कि
कोरोनावायरस से होने वाली कुल मौतों में से यू.के. में 6100 और अमेरिका में 40,000
मौतों के लिए वायु प्रदूषण को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है।
देखने वाली बात यह है कि कोविड-19 के लिए तो टीका तैयार हो
जाएगा; लेकिन खराब वायु गुणवत्ता और जलवायु
परिवर्तन के खिलाफ कोई टीका नहीं है। इनका उपाय तो केवल उत्सर्जन को नियंत्रित
करना ही है।
संपूर्ण लॉकडाउन के विकल्प
दुनिया भर के कई
देश/शहर कोरोना वायरस की दूसरी लहर और एक के बाद एक लगते जा रहे दोबारा लॉकडाउन से
गुज़र रहे हैं। संभवत: यह महामारी आने वाले कुछ महीनों या सालों तक बनी रहने वाली
है। ऐसे में आर्थिक,
सामाजिक और मनौवैज्ञानिक क्षति पहुँचाने वाली संपूर्ण
तालाबंदी की बजाय अन्य प्रभावी और स्थायी विकल्प तलाशने की ज़रूरत है।
इस डिजिटल युग में दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा डैटा कोविड-19 के
प्रसार को रोकने में मदद कर सकता है। विभिन्न स्रोतों से जुटाए गए डैटा की मदद से
कोविड-19 के ‘सुपरस्प्रेडर स्थानों’ को पहचाना जा सकता है ताकि हम पूरे शहर या देश
में तालाबंदी करने की बजाय,
तालाबंदी की अन्य निभने योग्य रणनीति बना सकें या सिर्फ उन
स्थानों की तालाबंदी करें जहाँ से कोविड-19 के फैलने की संभावना अधिक है।
लोगों की तरह कुछ स्थान भी अधिक संक्रमण फैलाने वाले ‘सुपरस्प्रेडर्स
स्थान’ हो सकते हैं। शहरों में लगातार कुछ ना कुछ गतिविधि होती रहती है। जैसे
शहरों से होकर लोग गुज़रते हैं, आते-जाते हैं, मिलते हैं। इसलिए शहर मानव संपर्क और बीमारी फैलाने के
केंद्र होते हैं। छोटी-बड़ी हर तरह की बीमारी को फैलने से रोकने के प्रबंधन के लिए
शहरों में लोगों की सामूहिक गतिविधियों की रूपरेखा और शहरों में लोगों के आने-जाने
और शहरों से गुज़रने के पैटर्न को पहचानना-समझना ज़रूरी है।
अच्छी बात यह कि इन सुपरस्प्रेडर स्थानों की पहचान के लिए
हमारे पास मानव आवागमन का काफी डैटा है। हाँगकांग, पेरिस और सिंगापुर जैसे शहरों में बेहतर शहरी और आवागमन योजना के लिए पहले से
ही परिवहन डैटा का व्यवस्थित तरीके से विश्लेषण किया जाता रहा है। और अब
राइड-शेयरिंग सेवाओं,
इंटरनेट से जुड़े डिवाइसेस (जैसे स्मार्ट लैम्पपोस्ट और
स्मार्ट फोन) पर ट्रैफिक ऐप, और स्थान को टैग
करती हुई सोशल मीडिया पोस्ट से मानव आवागमन के पैटर्न, सामूहिक गतिविधि और महामारी वाली जगहों को चिंहित करने में
मदद मिल सकती है।
फिर इस डैटा को कोविड-19 के प्रसार के ताज़ा आँकड़ों के आधार
पर प्रोसेस किया जा सकता है। कोविड-19 के कुछ प्रभावी कारक भी पहचाने गए हैं। जैसे, खुली जगहों पर मेलजोल, छोटे बंद कमरों में मेलजोल की तुलना में कम जोखिम भरा है। मास्क
पहनने और सामाजिक दूरी रखने की कारगरता से तो सभी सहमत हैं। बहरहाल कोविड-19 के
प्रसार और मानव सम्पर्क की हमारी टूटी-फूटी समझ संक्रमण के
फैलाव का विस्तृत नक्शा बनाने में हमारी प्रमुख चुनौती है।
इसलिए नए प्रमाण इकट्ठे किए जा रहे हैं ताकि संक्रमण की
रोकथाम और नियंत्रण की योजनाएँ बनाने, उन्हें परिष्कृत और सटीक करने के लिए स्थानीय सरकार और स्वास्थ्य विभागों के
पास जानकारी उपलब्ध हो। इसके अलावा, शहरों की मानव गतिविधि और सामाजिक सम्पर्क
वाले स्थानों को पहचानने वाले अनुसंधान कार्यों को बढ़ावा देने के लिए स्वस्थ
वित्त-पोषण भी ज़रूरी है। शहरों को ऐसे स्रोत भी बनाने चाहिए जो मानव गतिविधि का
डैटा जुटा सकें। इसके अलावा शहरों को, इस डैटा का सामाजिक हित के अनुसंधान में उपयोग करने के लिए कानूनी और तकनीकी
व्यवस्था भी बनानी चाहिए।
मानव आवागमन और संपर्क के डैटा को कोविड-19 के डैटा के साथ
जोड़कर सुपरस्प्रेडर स्थानों को पहचानकर नियंत्रित किया जा सकता है, और असुरक्षित लोगों के लिए बेहतर प्रबंधन किया जा सकता है।(स्रोत
फीचर्स)
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