उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Dec 5, 2020

लघुकथा- अंतिम अहसास

-पूनम सिंह

छोड़ो मुझे.. छोड़ो, कहाँ लिये जा रहे हो ?, ..ये कैसी पकड़ है ? दम घुट रहा है मेरा और यहाँ इतना अँधेरा क्यों हैं ?’
उसे दो बलशाली हाथों ने जोर से पकड़ रखा था।

देखो! मुझे अपने घर जाने दो। अभी बहुत से फर्ज़ पूरे करने  बाकी हैं । मेरा परिवार मेरी प्रतीक्षा कर रहा होगा।’  उसने जोर से चिल्लाते हुए कहा।

हा..हा..हा..कैसा फर्ज ? कैसी प्रतीक्षा
तुम्हारे जिंदगी के नब्बे  साल कम थे फ़र्ज़ पूरा करने के लिए और क्या, तुम्हें मालूम नहीं कि संसार में कोई किसी का नहीं होता ? सिर्फ मोह के धागे होते हैं। चलो अब अपने अंतिम घर।’  दोनों ने दहाड़ती हुई आवाज़ में कहा।

अन्तिम घर!  नहीं, नहीं, मुझे भ्रम में मत डालो ।
देखो ! मुझे एक मौका और दे दो, तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ।उसने विनती भरे स्वर में  गिड़गिड़ाते हुए कहा।
अच्छा एक बात बताओ!  तुमने अपनी पूरी जिंदगी जिस परिवार के पालन-पोषण, देखभाल में लगा दिया, तुम्हें उनसे क्या मिला? और  जिसने तुम्हें ये साँसें दी, क्या उनके प्रति तुमने अपना कोई  फ़र्ज़ निभाया ?’

यह सुनते ही वो मूक हो गया। उसकी आँखों के आगे उसके अतीत का चित्र घूमने लगा। विचारो के मंथन के पश्चात उसका सिर ग्लानि से झुक गया।  कुछ पल शांत रहने के पश्चात उसने फिर से आशा भरी नज़रों से उन दो बलशाली छायाओं की तरफ देखा मानो उनसे मौन होकर अपने गुनाहों की माफी माँग रहा हो ।

दोनों की नज़रें  एक दूसरे से मिली और उनमें से एक ने कहा, ‘ठीक है इसे थोड़ी मुहलत और  दे देते हैं।  छोड़ दो इसे।

उसकी आँखें खुलीं, तो उसने अपने आपको प्रकाश में पाया। चारो तरफ अपना मुख घुमाते हुए  वो बड़बड़ाया , ‘कहाँ हूँ मैं ? ये कैसा दिवास्वप्न था ?’

अब आप बिल्कुल ठीक हो चुके है सर और घर जा सकते है। उसका निरीक्षण कर रहे डाक्टरों ने कहा-
आप पहले ऐसे बुजुर्ग मरीज है, जो कोरोना की चपेट से बाहर निकल आए।

हाँ.. तुम ठीक कह रहे हो डॉक्टर, मैं अब सचमुच  ठीक हो गया हूँ और यहाँ बिखरा प्रकाश अब मुझे अँधेरे- सा प्रतीत हो रहा है।’  वह मन ही मन बुदबुदाया। उसे सामने सफेद पोशाक में खड़े डॉक्टर ईश्वर स्वरूप दिख रहे थे।

और हाँ, वेंटिलेटर का बिल दे दीजिएगा।
सुनते ही उसके आँखो से आँसू बहने लगे। उसने विस्मित नज़रों से डॉक्टर की ओर देखते हुए कहा- ‘वेंटिलेटर !

  आँसू देख डॉक्टर कुछ पल के लिए असमंजस में पड़ गए और कहा,  ‘अच्छा कोई बात नहीं, आप बिल की चिंता मत कीजिए ।

नहीं - नहीं, बिल तो मैं दे दूँगा । सोच रहा हूँ कि ..आप लोगों ने कुछ घंटे साँसें दीं,  तो कीमत माँग रहे है। अफसोस इस बात का है कि उस ऊपर वाले ने पूरी जिंदगी मुफ्त का ऑक्सीजन दिया, उसका ..कर्ज कैसे चुकाऊँगा...?’


लेखक के बारे में – विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में अनेक रचनाओं का प्रकाशन जैसे- मुस्कान, लघुकथा कलश, लोकतंत्र की बुनियाद , आलोकपर्वसंगिनी, सलाम इंडिया, विजय दर्पण टाइम्स, अमेरिका से प्रकाशित, हम हिन्दुस्तानी, हरियाणा प्रदीप इत्यादि।  

1 comment:

Sudershan Ratnakar said...

सत्य और सुंदर